Monday 1 February 2016 04:39:42 AM
दिनेश शर्मा
लखनऊ/ नई दिल्ली। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी से ज्यादा प्रचंड और योग्य राजनेता एवं भारतीय जनता पार्टी के सांसद वरुण गांधी को उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री के रूप में पेश करने में क्या हर्ज है? लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में भाजपा की ऐतिहासिक विजय के बावजूद विधानसभा चुनाव के लिए भाजपा के विषम परिदृश्य को देखते हुए वो बहुत सारी विशेषताएं और स्थितियां वरुण गांधी के पक्ष में दिखती हैं, जिन्हें भाजपा उत्तर प्रदेश में खोज रही है और जो उत्तर प्रदेश के संदर्भ में भाजपा में वरुण गांधी के अलावा फिलहाल दूसरे चेहरों में नहीं दिखती हैं। एक राष्ट्रवादी युवा, ओजस्वी व्यक्तित्व और राजनीतिक तेवरों से समृद्धशाली वरुण गांधी क्या भाजपा की रीति और नीति में बिल्कुल फिट नहीं बैठते हैं? इसीलिए राजनीतिक विश्लेषक कह रहे हैं कि उत्तर प्रदेश के लिए राजपुरुष की सभी कलाओं से युक्त सरकार का चेहरा खोजने में जुटी भाजपा के सामने चेहरा मौजूद तो है और भाजपा के सामने चेहरे का नहीं, बल्कि इस मामले में निर्णय लेने का संकट है। भाजपा के बाहर भी राय है कि यूपी भाजपा में वरुण गांधी से ज्यादा चमत्कारिक चेहरा कोई नहीं दिखता है। माना जा रहा है कि वास्तव में वरुण गांधी ही अखिलेश यादव, मायावती और राहुल गांधी का माकूल जवाब हैं। भाजपा में जिनके नाम लिए भी जा रहे हैं तो उनके बारे में धारणा है कि वे भाजपा के लिए जीवन-मरण जैसे राजनीतिक घमासान में अपनी ही विधानसभा सीट बचा लें तो बड़ी बात होगी। जरा इस विश्लेषण पर गौर करना चाहें-
भाजपा तब और अब
अगला साल लगते ही देश के पांच राज्यों उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, मणिपुर और गोवा में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। इनमें तीन राज्य तो भाजपा के लिए सर्वाधिक राजनीतिक महत्व के हैं। परिदृश्य यह है कि इस समय देश में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा गठबंधन की सरकार है। उत्तर प्रदेश की जनता ने लोकसभा चुनाव में मोदी सरकार को बहुमत देने में निर्णायक भूमिका निभाई है। उत्तर प्रदेश में भी अभी से विधानसभा चुनाव की तैयारियां शुरू हो चुकी हैं, जिनके लिए भाजपा को एक चेहरे की तलाश है। वो भी ऐसे चेहरे की जो मुस्लिम तुष्टिकरण की प्रधानता से राज्य में सत्तारुढ़ समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव और दलित जातीय वोट बैंक एवं दूसरे सवर्ण जाति के असरदार राजनीतिक महत्वाकांक्षी युवाओं को जोड़कर सत्ता पाने के लिए छटपटा रही बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती और कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी के 'भाजपा पर हल्ला बोल' अभियान का सफलतापूर्वक मुकाबला कर सके। नब्बे के दशक में भाजपा को राम मंदिर के नाम पर पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने का एक मौका मिला था, मगर उसमें 'राम मंदिर' भाजपा का चेहरा था। कल्याण सिंह के नेतृत्व में भाजपा की सरकार तो बनी, मगर भाजपा के नेताओं में घातक गुटबाज़ी हुई और आपस में ही लड़-भिड़कर सत्ता से बाहर हो गए। इसी में भाजपा के वरिष्ठ नेता ब्रह्मदत्त द्विवेदी की निर्मम राजनीतिक हत्या भी हुई। उसके बाद फिर कभी भाजपा को बहुमत नहीं मिल पाया। भाजपा हाईकमान ने उत्तर प्रदेश में सरकार से संगठन तक जितने भी राजनीतिक प्रयोग किए वे असफल और आत्मघाती ही सिद्ध हुए। एक समय ऐसा आया कि मुलायम सिंह यादव को पटकनी देने के चक्कर में भाजपा हाईकमान ने मायावती की ही सरकार बनवा दी, जिसमें मायावती तो 'आयरन लेडी' और दलित समाज के लिए चमत्कार बन गईं, मगर मायावती को समर्थन देकर उत्तर प्रदेश से भाजपा के तम्बू उखड़ गए। तब से आज तक भाजपा यूपी में तीसरे नंबर पर और बैसाखियों पर है। इसी भाजपा को उस चेहरे की तलाश है, जो उसकी बैसाखी हटाकर उसका पुराना वैभव लौटा सके, जिसके लिए आज केवल वरुण गांधी सर्वाधिक उपयुक्त चेहरा माना जा रहा है।
मायावती को मुख्यमंत्री बनवाने के भाजपा हाईकमान के एक ही फैसले ने भाजपा को बड़ा ही नुकसान पहुंचाया है। इसमें भाजपा के कुछ बड़े नेताओं का तो कुछ नहीं बिगड़ा, मगर शहर-कस्बा देहात में जिन्होंने मर-खपकर भाजपा को सत्ता में लाने का काम किया था, मायावती के शासनकाल में उनका 'जुलूस' निकल गया। वे दरबदर हो गए। भाजपाई नेता भी उनके संकट में खड़े नहीं हुए, बल्कि उन्हें मायावती के बारे में कुछ भी बोलने पर डांटकर भगा दिया गया, जिससे उनका मनोबल जाता रहा। इसके अनेक उदाहरण हैं। लोकसभा चुनाव में मोदी लहर चली तो भाजपा कार्यकर्ताओं में जान आई और उसके युवाओं ने भाजपा और नरेंद्र मोदी का परचम लहरा दिया। भाजपा इस विजय से फिर आपे से बाहर हो गई और दिल्ली एवं बिहार में गुटबाज़ी और चालाक विपक्षियों की कपटपूर्ण रणनीतियों का सही और सटीक उत्तर न दे पाने में विफलता के कारण उसे भारी नुकसान उठाना पड़ा। खैर लौटिए उत्तर प्रदेश! हर दृष्टि से अति संवेदनशील इस राज्य में सभी प्रमुख दलों ने कभी अकेले तो कभी गठबंधन बनाकर शासन किया है। कांग्रेस, भाजपा, सपा और बसपा ने यहां जो शासन दिया है, उसकी एक त्रासदी यह है कि कांग्रेस को छोड़कर कोई भी राजनीतिक दल लगातार अगली बार सत्ता में वापस नहीं हुआ। उत्तर प्रदेश में पिछली बार मुलायम सरकार के खिलाफ जनलहर से बसपा को एक बार पूर्ण बहुमत मिला तो इस बार बसपा के खिलाफ जनलहर से सपा को पहली बार पूर्ण बहुमत मिला। इन कालखंडों में भाजपा हाईकमान ने अपने जो भी नेता आजमाए, वे भाजपा को सत्ता संघर्ष में भी नहीं ला सके। बसपा और सपा के राजनीतिक ऐजंडे रीयल स्टेट के अंधे धंधे, भाई-भतीजों और जातिवाद में सिमट गए। उत्तर प्रदेश आज अराजकता भोग रहा है और हर क्षेत्र में राष्ट्रीय परिदृश्य पर भी उसका महत्व घटता ही जा रहा है। यहां युवा बुरी तरह परेशान है, जिसे अपनी उम्मीदों की सरकार के लिए एक नया तेजतर्रार युवा चाहिए, चाहे तो भाजपा वरुण गांधी के रूप में यह जरूरत पूरी कर सकती है।
यूपी में राजनीतिक अनिश्चय?
विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे नज़दीक आ रहे हैं, जनमानस और राजनीतिक दलों में विचार मंथन, निष्कर्ष, गठजोड़, रणनीतियों और नफे-नुकसान के हिसाब लगने लगे हैं। देश के प्रधानमंत्री रहे राजीव गांधी के पुत्र होने के नाते ही कांग्रेस राहुल गांधी को प्रधानमंत्री के रूप में देखती आ रही है, यह अलग बात है कि नरेंद्र मोदी के रहते कांग्रेस का भी सत्ता से वनवास शायद ही टूटे। जनसामान्य और भाजपा के कुछएक निष्पक्ष नेताओं एवं कार्यकर्ताओं के बड़े वर्ग में इस विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद के लिए वरुण गांधी को पेश करने की उम्मीदें दिख रही हैं, उत्तर प्रदेश की जनता में भी यह सोच पनप रही है। कुछ अकाट्य प्रश्न और तर्क भी हैं। राजनीतिक विचारकों का प्रश्न है कि जब कांग्रेस में राहुल गांधी को देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में देखा जा सकता है तो भाजपा में वरुण गांधी को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में क्यों नहीं देखा जा सकता? कुछएक भाजपाई कहते हैं कि वे इंदिरा-नेहरू राजवंश के हैं। इस पर कहा जा रहा है कि जब इस परिवार से इतना ही परहेज है तो इन्हें भाजपा ने अपने यहां क्यों इतना महत्व दिया? वरुण गांधी यदि एक तेज़तर्रार राजनेता हैं तो क्या यह उनकी अयोग्यता है और उन्हें अपना दावा पेश करने के लिए औरों की तरह 'बोदा नेता' होना चाहिए? लोकप्रियता की बात करें, तो वरुण गांधी की लोकप्रियता क्या राहुल गांधी से कम है? राहुल गांधी के पीछे कांग्रेस खड़ी है, तो क्या वरुण गांधी के साथ देश का सबसे बड़ा राजनीतिक दल भाजपा नहीं खड़ी है? उत्तर प्रदेश में भाजपा के बड़े नेताओं ने ही क्या करिश्में दिखा दिए? यही कि भाजपा को बसपा का पिछलग्गू बना दिया? भाजपा आज युवाओं पर नहीं तो किनपर भरोसा करे? क्या यह कम बड़ी बात है कि वरुण गांधी का नाम चर्चा में आने मात्र से दूसरे राजनीतिक दलों सपा-बसपा और कांग्रेस में भी गंभीर मंथन और हलचल है। मान लें कि भाजपा का वरुण गांधी कार्ड यदि सत्ता का अंक नहीं भी पार कर पाया तब भी तो वह उन दोनों को बुरी तरह लंगड़ा कर देने के लिए काफी है, जिससे सपा-बसपा अकेले अपने दमपर सरकार नहीं बना सकेंगे। मानें या न मानें सपा बसपा के लिए वरुण गांधी बड़ी चिंता का विषय हैं।
उत्तर प्रदेश भाजपा में यूं तो और भी कुछ चेहरे हैं, जो अपनी जगह तो बना रहे हैं, मगर मायावती की राजनीतिक शक्ति के सामने उनकी स्थिति अभी काफी कमजोर दिखती है। यही यक्ष प्रश्न है कि फिर मौजूदा भाजपा नेताओं में कौन करिश्माई चेहरा है, जो सत्ता के महासंग्राम में टिक सकेगा? भाजपा के शीर्ष नेताओं में एक केंद्रीय गृहमंत्री और लखनऊ के सांसद राजनाथ सिंह भी एक चेहरा हैं। सवाल है कि क्या वे सपा-बसपा के सामने उत्तर प्रदेश में राजनीतिक जोखिम उठाने को तैयार हैं? उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और भाजपा अध्यक्ष के रूप में राज्य और देश उनका काम देख भी चुका है। पिछड़े वर्ग के नेता कल्याण सिंह का भी बड़ा नाम उछला मगर आज उनके सामने भी प्रश्न चिन्ह लगा है। प्रदेश भाजपा अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी भी कोई कम मेहनत नहीं कर रहे हैं, वे जमीनी नेता माने जाते हैं, भाजपा कार्यकर्ताओं के भी बहुत करीब हैं, किंतु उनके सामने जातीय समीकरण जैसी कुछ कमजोरियां और उनको अपेक्षित सहयोग न मिलना प्रमुख कारण माना जाता है। इसमें भी यह तथ्य अपनी जगह कायम है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा अध्यक्ष पद पर जिनके नाम चलाए जा रहे हैं, कम से कम लक्ष्मीकांत वाजपेयी उनसब पर भारी माने जाते हैं। बहरहाल भाजपा नेतृत्व को यह तो स्वीकार करना होगा कि उसका कार्यकर्ता, सत्ता में बने रहने के लिए पूर्व में हुए बेमेल राजनीतिक समझौतों से, न केवल निराश है, अपितु इस कारण उत्तर प्रदेश में भाजपा के दिग्गज कहे जाने वाले अधिकांश नेताओं से घोर परहेज करता है। कल्याण सिंह, राजनाथ सिंह और उनके बाद रामप्रकाश गुप्त की भाजपा के मुख्यमंत्री के रूप में विफलताएं सबके सामने हैं। एक समय की अनुशासित भाजपा में अब अनुशासन भी दरक रहा है। नेताओं में जोड़-तोड़ से आगे निकलने की होड़ है। इसलिए लोग पूछ रहे हैं कि कुछ घिसे-पिटे और पूर्वाग्रहों से ग्रस्त भाजपा नेताओं से कैसे काम चलेगा? भाजपा को इस बार लाभ मिलने का योग बन रहा है, लेकिन तभी जब भाजपा उत्तर प्रदेश के चुनाव में किसी चेहरे को सामने लाए, इसी द्वंद्व में भाजपा कहीं फंसी दिखती है।
वरुण गांधी के लिए मोदी मंत्र
वरुण गांधी की उत्तर प्रदेश में इस दशक में कई विशाल जनसभाएं देखी गई हैं। जगह-जगह पर उनकी मांग होना इस बात का प्रमाण है कि वरुण गांधी, राहुल गांधी या अखिलेश यादव से किसी भी मायने में कम नहीं हैं। व्यक्तित्व और वाकपटुता के दृष्टिकोण से भी वरुण गांधी में राहुल गांधी से ज्यादा राजनीतिक सम्मोहन दिखाई देता है। भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री पद के लिए वरुण गांधी को पेश किए जाने पर उत्तर प्रदेश के राजनीतिक दलों में बड़ी उठा-पटक और उतार-चढ़ाव से इंकार नहीं किया जा सकता। वरुण गांधी की मां मेनका संजय गांधी एक प्रमुख राजनेता और भाजपा सरकार में केंद्रीय मंत्री हैं, जातीय समीकरण भी देखें तो पंजाबी जाट होने के कारण इनको इसका भी लाभ मिला है। ये सारे समीकरण वरुण गांधी की राजनीतिक ताकत को और ज्यादा बढ़ाने एवं उत्तर प्रदेश में भाजपा के सत्ता संघर्ष को चरम तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। वरुण गांधी युवाओं में भारतीयता एवं संस्कारों का समृद्ध रोपण भी करते हैं, जिससे उनका यह पक्ष भी बिल्कुल स्पष्ट और बलवान माना जाता है। गंभीरपूर्वक कहा जाता है कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के संदर्भ में सामान्य रणनीतियों से बसपा अध्यक्ष मायावती की राजनीतिक ताकत का सामना इतना आसान नहीं है, जितना भाजपा नेतृत्व समझ रहा है। मायावती हर प्रकार से शक्तिशाली हैं और सत्ता के लिए निर्णायक वोट बैंक उनके पास है। वह सवर्ण जाति के खिलाफ होते हुए भी इस जाति के असरदार युवाओं को बसपा के वोटों से विधायक बनाने को रिझा रही हैं, इसलिए इसे राकने के लिए किसी 'करिश्माई चेहरे' को ही सामने लाए बिना भाजपा का काम चलने वाला नहीं है। इससे यह तथ्य अवश्य जुड़ा है कि यह चुनाव सामूहिक सहयोग और उसमें भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करिश्में पर लड़ा जाएगा, जिसका वरुण गांधी को भरपूर लाभ मिल सकता है।
भाजपा हाईकमान के लिए यह अत्यंत विचारणीय है कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में समीकरण किस ओर जा रहे हैं और इस समय किस राजनीतिक कार्ड की जरूरत है। बहरहाल जिसकी जरूरत है, भाजपा हाईकमान उस पर अभी ख़ामोश है। हां, सपा-बसपा का सामना करने की जो क्षमता नहीं रखते हैं, उनमें कुछ जरूर भाजपा में अपने को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का चेहरा प्रचारित कर रहे हैं। विश्लेषणकर्ता कहते हैं कि सही है कि वरुण गांधी भी कुछ भाजपा नेताओं के लिए सहज और पसंदीदा नहीं हैं, क्योंकि भाजपा के कई महत्वाकांक्षी चेहरे उन्हें अपने लिए राजनीतिक रूप से घातक मानते हैं। उन्हें भय है कि वरुण गांधी के सामने उनका राजनीतिक महत्व कमजोर या प्रभावहीन हो सकता है, मगर यह तो सभी मानते हैं कि वरुण गांधी भाजपा में और उत्तर प्रदेश में युवाओं की पहली पसंद के रूप में उभर रहे हैं। ध्यान रहे कि देश और उत्तर प्रदेश में युवा राजनीति अपने चरम पर है और यूपी में युवा, भाजपा के आजमाए हुए, थके या पुराने और राजनीतिकरूप से तेजहीन चेहरों के साथ जाना चाहेंगे? और यदि भाजपा को चुनाव बाद मायावती की ही सरकार को समर्थन देने का विकल्प खुला रखना है तो फिर युवा, सपा या बसपा की ही बुराई क्यों लें और बाद में उनकी सरकारों के क्यों डंडे खाएं? विश्लेषक मानते हैं कि भाजपा को जितना खतरा बसपा से है, उतना सपा से नहीं है, क्योंकि बसपा सवर्ण युवाओं में राजनीतिक महत्वाकांक्षा पैदा कर रही है, जिसका भाजपा को ही बड़ा नुकसान होगा, इसलिए भाजपा हाईकमान को यूपी के संदर्भ में यथाशीघ्र निर्णय लेना चाहिए, अन्यथा का वर्षा जब कृषि सुखाने?