Wednesday 10 February 2016 01:03:29 AM
दिनेश शर्मा
लखनऊ/ नई दिल्ली। 'नेताजी! आप हम पर गुस्सा मत उतारिए!' जी हां! समाजवादी पार्टी के जो नेता और कार्यकर्ता कभी 'नेताजी' के सामने दंडवत हुआ करते थे, सम्मान में झुककर अपनी आधी-अधूरी बात ही कह पाते थे, आज वो भी सपा नेतृत्व के सामने कुछ भी कहने से नहीं चूक रहे हैं, उनमें सपा से निकाल दिए जाने का भी कोई भय नहीं रहा है, वे एक नहीं, बल्कि उन जैसे हज़ारों-लाखों हैं। उल्टे 'नेताजी' की नसीहत पर वे कहने लगे हैं कि 'पार्टी को धरती दिखा रहे लोग भी आपही के 'खास लोग' हैं, आपके 'निजी सचिव' हैं, वे कभी आपतक पहुंचने ही नहीं देते, बेइज्जती करते हैं। कार्यकर्ता आगे कहते हैं कि हम और बोलेंगे तो आप सुन नहीं पाएंगे, 'भैया' भी हमसे मिलते-मिलाते नहीं हैं।' सपा कार्यकर्ता कहीं इशारों में तो कहीं सीधे बोल रहे हैं कि समाजवादी पार्टी का सत्ता में वापस आना अब नामुमकिन है। समझा आपने? लखनऊ में सपा मुख्यालय पर कार्यकर्ताओं के 'कटीले शब्द' सुनकर नेताजी मुलायम सिंह यादव कभी गुस्सा खाते हैं और कभी गुस्से को रोकते हुए कार्यकर्ताओं को क्षेत्र में मेहनत करने और अनुशासन की 'नसीहतें' देते हैं। इसका सीधा मतलब है कि समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं का धैर्य जवाब दे गया है, उनमें ग़ुस्सा और निराशा है।
मुख्यमंत्री आवास, समाजवादी पार्टी मुख्यालय या मुलायम सिंह यादव 'नेताजी' के घर के बाहर सुरक्षाकर्मियों से लतियाते धकियाते सपा के इन जमीनी कार्यकर्ताओं की ज़ुबान पर सपा सरकार का यह बहुत कड़वा सच चल रहा है, जो 'नेताजी' भांप चुके हैं और जान भी चुके हैं। वे नाराज कार्यकर्ताओं पर नरम होते हुए जब उनके कागज़ एवं मोबाइल नंबर लेने को अपने निजी सहायकों से कहते हैं तो कुछ और भी आवाज़ें आती हैं कि 'आपने हमारे भी कागज़ और नंबर लिए थे नेताजी!' मुख्यमंत्री अखिलेश यादव आज जो भी दावा करें, सपा सरकार का यह चार साल का रिपोर्ट कार्ड बहुत निराशाजनक है, जिसमें 'नेताजी' को 2017 का जनादेश साफ-साफ खिलाफ जाता दिख रहा है। 'नेताजी' ने अपने राजनीतिक जीवन में भले ही येन-केन प्रकारेण दिग्गज नेताओं को धरती दिखाई हो, किंतु आज कार्यकर्ताओं को मनाने समझाने में नेताजी को धरती नज़र आ रही है, 'नेताजी' के सारे दांव फेल होते जा रहे हैं। 'नेताजी' से मिलकर आने वाले कुछ 'खुश किस्मत' भी कह रहे हैं कि 'नेताजी' बहुत गुस्सा खा रहे हैं। उत्तर प्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य और सपा शासन पर एक वृहद विश्लेषण-
समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता ही नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश का जनसामान्य भी भारी गुस्से में है, जिसने भ्रष्टाचार, जातीय भेदभाव और कुशासन जैसे कारणों से बसपा को सत्ता से बाहर फेंककर सपा को पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता सौंपी थी, ऐसे ही कारणों से जनता सपा के भी खिलाफ फिर खड़ी हो रही है और आने वाले विधानसभा चुनाव में सपा को बसपा जैसा ही सबक सिखाने जा रही है। जनसामान्य की नाराज़गी भाजपा से भी है, जिसे उसने लोकसभा चुनाव में यूपी से प्रचंड जनादेश दिया, मगर उसने दिल्ली एवं बिहार के विधानसभा चुनाव में वहां की सच्चाईयों और स्थानीय कार्यकर्ताओं की उपेक्षा जैसी गंभीर गलतियों के कारण भारी नुकसान उठाया है। कांग्रेस से कोई उम्मीद नहीं दिखती है, वह तो केवल संसद ठप रखने के अभियान पर है और नरेंद्र मोदी के विरुद्ध बयानबाज़ी की ही राजनीति कर रही है। सपा के 'स्टार' अखिलेश यादव के लिए त्रिकोणात्मक मुकाबले की स्थिति कोई कम शर्मनाक नहीं कही जा सकती है, वे जिस अंदाज में सरकार चलाते आ रहे हैं, उसपर उनसे सवाल किए जा रहे हैं कि यूपी की जनता ने सपा को क्या इसलिए बहुमत दिया था कि वह उत्तर प्रदेश को छोड़कर 'निजी एजेंडे' पर चलेगी, बसपा से भी बदतर शासन देगी और परिणामस्वरूप अगली बार फिर से उसे बसपा या भाजपा या बसपा-भाजपा गठबंधन की सरकार पर संतोष करना होगा?
सपा के 'स्टार' और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव अपनी पूर्ण बहुमत की सरकार के बेहद निराशाजनक प्रदर्शन के लिए किस-किसको जिम्मेदार ठहराएंगे? यह सवाल उन्हीं से उत्तर मांग रहा है, क्योंकि जिला पंचायतों में अध्यक्ष की कुर्सी, विधानपरिषद की सीटें, ब्लाक प्रमुखी, लालबत्तियां और अपनों को सरकार की बड़ी-बड़ी नौकरियां बांटने, सरकार, प्रशासन और पार्टी में भी सजातियों पर ही सर्वाधिक भरोसा कर उन्हें मलाईदार पदों पर रखने के बावजूद समाजवादी पार्टी और पिता-पुत्र के राजपाट एवं सपा का राजनीतिक परिदृश्य बड़ा ही स्पष्ट है। 'नेताजी' के सामने जिनकी ज़ुबान नहीं खुलती थी, वे आज ताल ठोककर उनका सामना कर रहे हैं, जैसे कि सपा की युवजन सभा के नेता सुनील साजन और आनंद भदौरिया, जिन्होंने पूरा उत्पात मचाया, जिसपर इन्हें सपा से निलंबित किया गया और कुछ ही दिन बाद निलंबन वापस लेकर अब तो एमएलसी का टिकट भी दे दिया गया है। सीतापुर के सपा के विधायक रामपाल सिंह, बिजनौर की विधायक रुचिवीरा एवं और भी कई विधायक और नेता हैं, जिन्होंने इन पंचायत चुनावों में 'नेताजी' को आंखें दिखाई हैं। सरकार में मंत्री मोहम्मद आजम खां का 'अनुशासन' तो जगजाहिर ही है। 'नेताजी' इनमें से किसी का कुछ भी नहीं बिगाड़ पाए। पंचायत चुनावों में सपा जिसे जीत बता रही है, वास्तव में वह उसकी भावी प्रचंड पराजय ही है। दूसरों के लिए समाजवाद और अपने लिए साम्राज्यवाद?
सवाल है कि नई पीढ़ी के सामने धर्मनिरपेक्षता के छद्मावरण में तुष्टिकरण, जातिवाद, कुनबापरस्ती और मतलबपरस्ती आखिर कब तक इस कुनबे का साथ देगी? अपनी उपेक्षा के कारण आक्रोश से भरे सपा के जमीनी कार्यकर्ताओं का गुस्सा एक समय बाद फूटना ही था, सो अब फूट पड़ा है। सपा मुख्यालय और उसके बाहर सड़क पर रोज ही सपा कार्यकर्ताओं और नेताओं के तेवर और उनके खुले विचार आप भी सुन सकते हैं। कोई केवल बसपा सरकार के आने की बात करता है तो कोई बसपा-भाजपा गठबंधन की बात और किसी की ज़ुबान पर भाजपा का चांस लगने की बात है। लोभ-मोह के वशीभूत चारण और भाटों को छोड़कर बाकी कोई भी अखिलेश यादव सरकार की सत्ता में वापसी नहीं मान रहा है। आज हर कोई कहता है कि मुलायम सिंह यादव परिवार ने समाजवाद को सांप्रदायिकता, जातिवाद एवं भ्रष्टाचार में बदल दिया है, इन्हें अब सांप्रदायिक और जातिवादी राजनीति ही अनुकूल लगती है। सैफई इटावा मैनपुरी और कन्नौज ही इनका उत्तर प्रदेश है, मगर उनके लिए यहां भी कोई ज्यादा सुखद हालात नहीं कहे जा सकते हैं। धारणा है कि समाजवादी पार्टी जिस तरह की राजनीति कर रही है, वास्तव में उसकी सही परिभाषा और परिणाम विघटन और विध्वंस है।
आखिर वे क्या कारण हैं, जिनकी वजह से मुलायम सिंह यादव की सरकार को भी हरबार सत्ता से बाहर जाना पड़ा है और विकास के बड़े-बड़े दावों के बावजूद अखिलेश सरकार की वापसी पर भी बड़ा भारी प्रश्न चिन्ह लग गया है? यह तब है, जब बहुत लोग यह भी मानते हैं कि अखिलेश यादव यूपी की राजनीति में सपा का एक 'स्टार चेहरा' हैं, मगर समाजवादी पार्टी उन्हें 'करिश्माई चेहरा' नहीं बना सकी है। क्या अखिलेश यादव भी कम जिम्मेदार नहीं हैं, जो अपने पराए की पहचान और अपनी सरकार की छवि स्थापित करने में नाकाम हुए हैं? जिनके बारे में जनता और मीडिया की भी धारणा बदल चुकी है? क्या अखिलेश यादव अपने पिता के लगातार सरकार में वापस नहीं लौटने के 'मिथक' को तोड़ पाएंगे? अतीत में जाएं तो मुलायम सिंह यादव की सरकार का भी कोई कार्यकाल ऐसा नहीं रहा है, जो उत्तर प्रदेश के विकास और सौहार्द के लिए शुभ और अनुकरणीय रहा हो और जिसमें भ्रष्टाचार, ताबड़तोड़ अपराध एवं घोर सांप्रदायिक दंगे ना हुए हों। सावन के अंधे की तरह शेखी बघारते घूम रहे 'राजपुरुष' अखिलेश यादव की सरकार में भी दो सौ से ज्यादा सांप्रदायिक दंगे, झड़पें, जातीय हत्याएं और अराजकता एक खुली सच्चाई है। बसपा अध्यक्ष मायावती और भारतीय जनता पार्टी के मुलायम सिंह यादव और उनके परिवार पर जो आरोप हैं, वे कहीं न कहीं तो सच हो रहे हैं?
मुलायम सरकार की तरह अखिलेश सरकार के कार्यकाल में भी रियल एस्टेट के दलालों, मुंबई के फिल्मी दुनिया के कुछ टैक्स फ्री कमीशनखोरों के अलावा अब तक कोई भी नामी-गिरामी उद्यमी पूंजी निवेश के नाम पर पिकनिक मनाने के अलावा यूपी नहीं आया और न ही आना चाहता है। उद्यमियों की दिलचस्पी अगर है भी तो नोयडा जैसे इलाकों में और वह भी रियल एस्टेट में है। उत्तर प्रदेश में औद्योगिक क्षेत्र में पहले से मौजूद उद्यमियों को छोड़कर निवेश में किसी भी छोटे-बड़े उद्यमी की दिलचस्पी नहीं दिखाई देती है। उत्तर प्रदेश की अरबों-खरबों रुपयों की परिसंपत्तियों और खनिजों पर ही सबकी गिद्ध नज़रें हैं। उत्तर प्रदेश की नई राजस्व संहिता से रियल एस्टेट कारोबार का बड़ा 'गहरा' और 'सुनहरा' रिश्ता है, जिसका मार्ग सपा सरकार में निष्कंटक हो गया है। गौर कीजिएगा कि उत्तर प्रदेश में दूसरों की बैसाखी पर तीन बार मुख्यमंत्री हुए 'धरतीपुत्र' और समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव अपनी तीव्र राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए राज्य के विकास और सद्भाव जैसे सभी हितों को ताक पर रखकर अनेक अनैतिक और बेमेल गठबंधनों के लिए ही ज्यादा जाने जाते हैं। मुलायम सिंह यादव ने सत्ता और जात-पात की अनेक कमजोरियों के वशीभूत ही दलित वोटों के लिए बसपा के संस्थापक अध्यक्ष कांशीराम को इटावा से लोकसभा चुनाव लड़वाया था और राजनीतिक सौदेबाज़ी में मायावती से खट-पट हुई तो स्टेट गेस्ट हाउस लखनऊ में मायावती के साथ बैठे बहुजन समाज पार्टी के विधायकों को माफियाओं से उठवाया था।
अखिलेश यादव और मुलायम सिंह यादव हमेशा से मायावती पर अपराधियों और भ्रष्टाचार को संरक्षण देने का आरोप लगाते आए हैं, जबकि खुद इन सबके आदर्श और सूत्रधार माने जाते रहे हैं। मुलायम सिंह यादव के भ्रष्टाचार की सीडी आज भी राजनीति और सत्ता के गलियारों में सुनी जाती है, जिसमें मुलायम सिंह यादव और अमर सिंह के बीच इन्हीं की ज़ुबानी भ्रष्टाचार की कई दास्तानें सुनी जा सकती हैं, इसके बावजूद वे इन आरोपों को नज़रअंदाज करते हैं। इन्होंने कभी भाजपा के हिंदूवादी नेता कल्याण सिंह का साथ लिया तो दिल्ली की जामा-मस्जिद के इमाम सैयद अहमद बुखारी के आगे-पीछे दिखाई दिए हैं। सत्ता के संताप में ये कभी मीडिया के सामने मोहम्मद आजम खां के साथ बैठकर रोते दिखाई दिए हैं तो कभी केवल मुस्लिम वोट हासिल करने के लिए अयोध्या में राम जन्मभूमि जैसे संवेदनशील मामले में अदालत के फैसले की उपेक्षाकर उसका सांप्रदायिक राजनीतिकरण करते दिखते हैं। मुलायम सिंह यादव अपनी पार्टी की सरकार के मंत्रियों से कह रहे हैं कि उन्हें धन कमाना हो तो वे कोई और कारोबार करें, लेकिन क्या उनके पास जवाब है कि उनके और यादव खानदान के पास अकूत संपत्ति किस उद्योग से आई है और वे किस लिए कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाते हैं?
क्या बात है! कहने को समाजवादी डॉ राममनोहर लोहिया और लोकनायक जयप्रकाश नारायण इनके और इनके परिवार के बड़े ही परमपूज्य आदर्श हैं, जबकि परिवारवाद, क्षेत्रवाद एवं जातिवाद से इनकी और इनके राजपुत्र की सुबह शुरू होती है। मायावती कह रही हैं कि अगर आज लोहियाजी होते तो वे इनकी समाजवाद से ही छुट्टी कर दिए होते। नई पीढ़ी को बहुत कम ही मालूम है कि एक जमाने में मुलायम सिंह यादव की बलराम सिंह यादव से मैनपुरी ऐटा इटावा में राजनीतिक वर्चस्व की हिंसक लड़ाई में न जाने कितने बेकसूर परिवार उजड़े हैं, इसकी चर्चा आज भी राजधानी और इनके इलाकों में होती रहती है, इसलिए आपही तय करें कि मुलायम सिंह यादव परिवार उत्तर प्रदेश के लिए कितना आदर्श है और यूपी की जनता का ये कितना कल्याण कर पाए हैं? ये राजनीति और सुशासन के आदर्श क्यों नहीं बन सके? सब जानते हैं कि उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भाजपा और कांग्रेस में कोई दम नहीं था, मायावती के खिलाफ जनलहर थी, परिणामस्वरूप समाजवादी पार्टी पूर्ण बहुमत से सत्ता में आई। मायावती के खास लोगों के भ्रष्टाचार और उनके 'सिंडिकेट' की बदनामियों का लाभ भी मुलायम सिंह यादव को ही मिलता आया है। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भी ज़मीनी लोगों एवं बहुसंख्यकों की घोर उपेक्षा करके मुस्लिम तुष्टिकरण के रास्ते पर चल रहे हैं, इसीलिए लोकसभा चुनाव में प्रदेश की जनता ने इन्हें तगड़ा झटका दिया, यही हाल बसपा का हुआ और भाजपा को यूपी में बड़ी सफलता मिली, परिणामस्वरूप आज सपा के कई दिग्गज भाजपा में जाने को तैयार बैठे हैं।
विचारणीय प्रश्न हैं कि मायावती कई बार उत्तर प्रदेश में भाजपा से मिलकर सरकार बना चुकी हैं, तब भी मुसलमान बसपा से जुड़े रहे और आज भी जुड़े दिखाई देते हैं। तुलनात्मक रूपसे देखें तो बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती भी राज्य में मुस्लिम तुष्टिकरण, जातीय राजनीति से अलग हटकर कभी नहीं चली हैं, वह भी दलित-मुस्लिम गठजोड़ को सत्ता का एक मजबूत कारक मानती हैं, लेकिन मुलायम सिंह यादव की तरह से मायावती मुस्लिम राजनीति के दबाव में कभी नहीं देखी गईं। उन्होंने मुसलमानों का कोई भी दबाव कतई मंजूर नहीं किया, उनके राजनीतिक फैसलों पर नज़र डालें तो उत्तर प्रदेश में कोई भी मुसलमान नेता ऐसा नहीं है, जिसने मायावती के सामने अकड़कर चलने की हिम्मत दिखाई हो। हालांकि इसका कारण दलित वोट बैंक है, जिसके दम पर मायावती ने जिसको चाहा राजनीति में ऊपर उठाया है और जिसे चाहा जमीन पर पटक दिया है, जबकि जामा मस्जिद दिल्ली के इमाम अहमद बुखारी जब चाहा सर-ए-आम सपा नेतृत्व को मुसलमानों की धौंस देकर हड़काते-दौड़ाते हैं, सपा सरकार से पूरा लाभ भी उठाते हैं, इसी तरह जब चाहा सपा सरकार के मंत्री आज़म खां गुर्राते-धमकाते हैं और मुलायम खानदान इनके सामने घुटने टेकता गिड़गिड़ाता और इन्हें मनमर्जी के 'पैकेज' देता नज़र आता है।
मायावती सरकार में छिटपुट तनाव को छोड़कर कोई सांप्रदायिक दंगा भी नहीं हुआ, तब क्या कारण है कि सपा की सरकार आते ही राज्य में सांप्रदायिक दंगों, अपराधों और जातिवाद की बाढ़ सी आ जाती है? क्या कारण हैं कि सपा सरकार आने पर गुंडे, माफिया और सांप्रदायिक तत्व उत्पात मचाने और मनमर्जी करने लगते हैं? इनमें आजम खां जैसे सपा के कुछ मुस्लिम नेताओं की हेकड़ी और संलिप्तता भी किसी से छिपी नहीं है। अखिलेश यादव सरकार इनकी चुनौतियों का सामना करने के बजाय बचाव के रास्ते पर चलती आ रही है। चालाक और चाटुकारों की झूंठी प्रशंसाओं से घिरे और सही बात कहने वालों को दुत्कारने वाले मुलायम परिवार की अनेक विफलताओं का राजनीतिक विश्लेषक अकसर जिक्र किया करते हैं। वे कई मायनों में लालू प्रसाद यादव को इनसे ज्यादा सफल राजनेता मानते हैं। एक समय यूपीए सरकार में लालू यादव ने सपा के सांसदों की बड़ी संख्या के बावजूद मुलायम सिंह यादव को लोकसभा में प्रभावहीन किए रखा। वे कहते हैं कि मुलायम सिंह यादव देश के कुछ क्षेत्रीय दलों और कुछ नेताओं को लंबे समय तक तीसरे मोर्चे के सपने दिखाते रहे हैं, लेकिन बिहार चुनाव में उनकी सच्चाई सामने आ गई और लालू प्रसाद यादव की पार्टी की जोरदार वापसी से तीसरे मोर्चे के नेता के लिए भी मुलायम सिंह यादव की उपयोगिता और प्रासंगिकता खत्म हो गई है।
मुलायम सिंह यादव की उपयोगिता?
राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि पश्चिम बंगाल में वामनेता ज्योति बसु और वाम राजनीति के मैनेजर हरिकिशन सिंह सुरजीत जब तक जिंदा रहे मुलायम सिंह यादव की भ्रम की दुकान खूब चली, मगर उनके जाते ही उन्हें आज वाम राजनीति में कोई नहीं पूछ रहा है। सच तो यह है कि वामनेता ज्योति बसु, केवल मुलायम सिंह यादव का इस्तेमाल करते थे, जबकि मुलायम सिंह यादव समझते आए हैं कि उनका वामदलों में बड़ा राजनीतिक महत्व है। याद कीजिएगा कि समाजवादी पार्टी ने सितंबर 2012 में कोलकाता में कार्यकर्ता सम्मेलन किया था, जिसमें सपरिवार पहुंचे मुलायम सिंह यादव का किसी ने भी कोई नोटिस नहीं लिया। सपा सरकार की अहंकारजनित कार्यप्रणाली का पहला परिणाम लोकसभा चुनाव में आया और परिवार के दिग्गज भी लोकसभा चुनाव हारते-हारते बचे। पिता-पुत्र का दावा है कि सपा सरकार ने उत्तर प्रदेश में बहुत काम किया है, जबकि सच यह है कि विकास संगोष्ठियों, प्रवासी उद्यमियों की बैठकों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से ही उत्तर प्रदेश में सपा के पक्ष में राजनीतिक वातावरण विकसित किया जा रहा है। दरबारी कवियों, लेखकों, बुद्धिजीवियों से सरकार की प्रशंसा में बयान दिलाए जा रहे हैं। पीठों, दरगाहों एवं धर्मगुरूओं का चुनाव जीतने के लिए आशीर्वाद लिया जा रहा है।
मुलायम सिंह यादव और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव आजकल एक-दूसरे की पीठ थपथपा रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में पूंजी निवेश हो रहा है और राज्य में विकास और सद्भाव का वातावरण बन रहा है। सवाल है कि वास्तव में 'आज' किनका बदल रहा है और 'कल' किनका संवर रहा है? मुलायम सिंह यादव ने भी सपा के घोषणापत्र में और मुख्यमंत्री के रूपमें विधानसभा में बार-बार कहा था कि 'उत्तर प्रदेश को उत्तम प्रदेश और आदर्श प्रदेश बनाने का हमारा संकल्प है' तो कहां है मुलायम सिंह यादव का वह उत्तम प्रदेश? इनकी सरकार में भी अराजकता और दंगे नहीं रुके और अखिलेश सरकार में भी खराब कानून व्यवस्था सहित करीब दो सौ से ज्यादा सांप्रदायिक दंगे, झड़पें और घटनाएं घट चुकी हैं। उद्यमियों के मात्र पूंजी निवेश के प्रस्तावों को ही पूंजी निवेश प्रचारित किया जा रहा है? ऐसे प्रस्ताव और समझौते तो मुलायम और मायावती सरकार में पहले भी और खूब हुए थे, लेकिन निवेश कहां हुआ? मुलायम मायावती से लेकर अखिलेश सरकार तक निवेश के बड़े-बड़े समझौते करने और उनके नाम पर रियल एस्टेट का बड़ा धंधा जरूर होता आ रहा है। जनसामान्य में कुछ समय तक अखिलेश यादव को समाजवाद की राजनीतिक सुचिता एवं कर्मठता का चेहरा और अपवाद तो माना जाता रहा है, लेकिन मुलायम सिंह यादव की राजशाही की यह बंद मुट्ठी भी अब खुल गई है।
सपा के सत्ता प्रतिष्ठान ने विधानसभा मिशन 2017 में सफलता प्राप्त करने के लिए जो रणनीति अपनाई हुई है, उसके विभिन्न और वीभत्स रूप सामने हैं और आते जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश में अलगाववाद का वातावरण चरम पर है। वोटों की खातिर सपा की मुसलमानों पर खास तवज्जो दिखती है। क्षेत्र और जातिगत आधार पर भेदभावपूर्ण नियुक्तियां, उत्तर प्रदेश लोकसेवा आयोग में प्रशासनिक अधिकारियों का चयन, नियुक्तियां एवं पदस्थापनाओं में भ्रष्टाचार सबके सामने है। मुलायम सिंह यादव के शासनकाल में भी यही हाल रहा है। उत्तर प्रदेश में बड़े पैमाने पर सरकारी भर्तियों में 'इनका समाजवाद' स्पष्ट दिख रहा है। तुष्टिकरण का नकारात्मक असर अखिलेश सरकार की कार्यप्रणाली, जनता में रोष, सांप्रदायिक भाईचारे, शासन व्यवस्था और कानून व्यवस्था पर बिल्कुल साफ दिख रहा है। बड़ी संख्या में समाजवादी पार्टी के सजातीय जिला पंचायत अध्यक्षों और ब्लॉक प्रमुखों के र्निविरोध चुनाव का सच भी पूरा प्रदेश जान रहा है। समाजवादी पार्टी के सारे पद मुलायम सिंह यादव के ही भाई-भतीजों के पास हैं। यह समझने के लिए भी उदाहरणों की आवश्यकता नहीं है कि 'नेताजी' सत्ता में रहकर भी सर्वसमाज से कभी भी न्याय नहीं कर पाए हैं। यह सब देखने समझने के बाद मुलायम सिंह यादव और सपा के नए अवतार अखिलेश यादव के समाजवाद और राजनीतिक दर्शन की वास्तविकता सामने है, जिस पर मायावती ने भी हल्ला बोला हुआ है।
धर्मनिरपेक्षता के नाम पर बेहद उकसाए, भाजपा से डरे-डराए, कई फिरकों में बंटे और सत्ता के पीछे भागते अधिकांश मुसलमानों का राजनीतिक लाभ उठाने की रणनीतियां सपा के राजनीतिक एजेंडे में सबसे ऊपर हैं। मज़हबी भावनाओं में डूबे और अपने-पराए की पहचान से गुमराह मुसलमानों के सामने नरेंद्र मोदी-नरेंद्र मोदी के प्रायोजित भयावह शोर का उत्तर प्रदेश में ज्यादा से ज्यादा लाभ हांसिल करने के लिए मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव रोज मुसलमानों जनता को नरेंद्र मोदी और भाजपा से डरा रहे हैं। मायावती भी कमोवेश इसी राह पर चलती जा रही हैं। उत्तर प्रदेश की राजनीति में सत्ता और सत्ता बचाने या सत्ता में वापसी का खेल इसी प्रकार चल रहा है। 'उत्तम प्रदेश' से हुई शुरूआत 'बदल रहा है 'आज' संवर रहा है 'कल' का क्या यही भविष्य है कि पिता की सरकार की तरह अब पुत्र की सरकार के भी जाने की बारी है? उत्तर प्रदेश का जो राजनीतिक परिदृश्य है, उसमें सत्ता संघर्ष भाजपा की तरफ जाता दिख रहा है, जिसमें सपा सरकार का जाना तो निश्चित लगता है। मीडिया के विश्लेषण राज्य में त्रिकोणात्मक मुकाबला दिखा रहे हैं। उत्तर प्रदेश में कोई भी चमत्कार हो सकता है और यह नहीं भूला जा सकता कि उत्तर प्रदेश की जनता भाजपा को लोकसभा चुनाव में प्रचंड जीत दिला चुकी है। बहरहाल अब देखना है कि राज्य की जनता पिता-पुत्र और सपा की राजनीति को कहां तक स्वीकार करती है।