घनश्याम पंकज
लोकसभा में विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी और कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी के बीच दिल्ली हवाई अड्डे पर एक ‘संयोग-भेंट’ क्या हुई, राजनीतिक असहिष्णुताएं उबाल खाने लगीं।
स्वस्थ लोकशाहियों में विपक्ष और सत्तापक्ष के नेताओं के बीच की मुलाकातें कोई अचंभा नहीं जगातीं बल्कि अगर सत्ता पक्ष-विपक्ष के नेताओं में संवादहीनता की स्थिति आ जाये तो उसे जरूर अचंभे की बात माना जाता है। ब्रिटेन में, जहां से हमने लोकशाही की परंपराएं ली हैं, वहां तो विपक्ष ‘छाया मंत्रिमंडल’ बनाता है जिसमें महत्वपूर्ण विभागों की जिम्मेदारियां वरिष्ठ नेताओं को सौंपी जाती है। सामान्यतः वे ही संबंधित विषयों जैसे-रक्षा, विदेश, अर्थनीति, शिक्षा, श्रमनीति-आदि के बारे में अपने विचार और सरकारी निर्णयों पर अपनी प्रतिक्रियाएं देते हैं जिन्हें सत्तापक्ष भी ध्यान देकर सुनता है और मीडिया भी।
हमारे यहां भी लोकसभा का सत्र आरंभ होते समय सरकार और विपक्ष के नेता अध्यक्ष की उपस्थिति में मिलते हैं मगर ऐसे सामूहिक सम्मेलनों में सार्थक बातें किसी हद तक ही हो सकती हैं। ऐसे औपचारिक अवसर उन अनौपचारिक मुलाकातों की जगह नहीं ले सकते जहां मीडिया में बयानबाजी से दूर हटकर एक अर्थपूर्व संवाद की स्थिति बनती हो।
अमेरिका में सीनेट की कमेटियों और फ्रांस, जर्मनी, कनाडा, स्वीट्जरलैंड जैसे देशों ने भी सत्तापक्ष और विपक्ष में निरंतर संवाद की गुंजाइश रखी है। इटली और जापान में तो सदन में पराजित होने पर सत्तापक्ष के सांसद विपक्षी दलों में से किसी एक अथवा कई को साथ में लेकर फिर सरकार बनाते देखे गये हैं।
ऐसे में क्या मजबूरी थी कि आडवाणी-राहुल की इस संयोग-भेंट को लेकर राजनीतिक रस्साकशी का वातावरण बने। शुरूवात इस बात से हुई कि मीडिया की नजरों से यह भेंट नहीं बनी और राहुल गांधी से जब मीडियावालों ने इस मुलाकात की बाबत पूछा तो वे विफर गये। उन्होंने कहा ‘वे गोपनीय चर्चा को प्रचारित नहीं करते फिरते और अगर कोई ‘प्राइवेट’ बातचीत को सार्वजनिक करना चाहे तो यह उसकी मरजी है। जहां तक मेरा सवाल है ऐसा नहीं करने की मेरी मान्यताएं हैं।’ आडवाणी जी ने स्वयं तो कुछ नहीं कहा मगर भाजपाई प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने राहुल गांधी के इस बयान पर तीखी प्रतिक्रिया जताई। बकौल रविशंकर प्रसाद यह कोई गोपनीय बैठक नहीं थी बल्कि एक शिष्टाचार भेंट थी। चूंकि दोनों के बीच थी पहली मुलाकात थी इसलिये आडवाणी ने यह जरूर कहा कि हमें राजनीतिक प्रतिस्पर्धी होना चाहिए, राजनीतिक शत्रु नहीं। बात नहीं खत्म हो जाती है और इस पर किसी और टिप्पणी की जरूरत नहीं है।
भाजपाई प्रवक्ता या कांग्रेसी विद्वतजनों की दृष्टि से इस प्रकरण पर कोई और टिप्पणी जरूरी हो या न हो मगर इससे इतनी बात तो जरूर साफ हो गई कि अभी तक वह स्वस्थ मानसिकता विकसित नहीं हुई है जिसमें पक्ष-विपक्ष के बीच संतुलित मुलाकातें और सारगर्भित आदान-प्रदान हो।
यह हमारी लोकशाही के लिये कोई उत्साहजनक लक्षण नहीं है। यदि सत्तापक्ष और विपक्ष एक दूसरे के साथ अछूतों जैसा व्यवहार करेंगे और अगर सत्ता-समीकरणों की दौड़ में असहिष्णुताएं इसी तरह जन्म लेती रहेंगी तो देर-सबेर यह वैसा ही राजनीतिक माहौल पैदा कर देगीं जैसा पाकिस्तान में है कि जहां दोनों पक्ष एक दूसरे को हरदम शत्रुभाव से ही तौलते रहते हैं। (लेखक ‘दिनमान’ और ‘स्वतंत्र भारत’ के पूर्व प्रधान संपादक है)