डॉ उषा त्यागी
दलित विमर्श अब साहित्यिक संदर्भ में भी अपने यौवन पर है। शरण कुमार लिंबाले के अनुसार "दलित साहित्य, अपना केंद्र बिन्दू मनुष्य को मानता है, दलित वेदना, दलित, साहित्य की जन्म दात्री है। वास्तव में यह बहिष्कृत समाज की वेदना है।" प्रारंभ में दलित साहित्य की मुख्य विद्या आत्मकथा ही रही, जो भोगे हुए यथार्थ पर आधारित है। अपने-अपने पिंजरे में मोहनदास नैमिशराय अपने ईद-गिर्द गांव टोले मौहल्ले में अपना बचपन जीते हुए, उसके पूरे समाज का विहंगावलोकन करते हैं। दलित साहित्य का इतिहास भी उतना ही पुराना है, जितना कि हिन्दी साहित्य का इतिहास। इस संदर्भ में यदि संक्षेप में ही चर्चा की जाये तो दलित साहित्यकारों के चर्चित उपन्यास मुक्तिपूर्व (मोहनदास नैमिशराय), ठंडी आग (प्रेम कापडि़या), काली रेत (ओम प्रकाश वाल्मीकि, क्या मुझे खरीदोगे) (मोहनदास नैमिशराय) रक्त का रिश्ता (डीपी राय) टूटते संवाद (लघु कथा संग्रह केएस तूफान) आदि पुस्तकें उल्लेखनीय हैं। काव्य में आदिवंश का डंका (अछूतानंद), भीमारायण, जगजीवन ज्योति, झलकारी बाई, शम्बूक काव्य, एकलव्य खंड काव्य नामक पुस्तक चर्चा में रही हैं।
दलित कथा लेखक/संपादक ‘दुनिया का यथार्थ (रमणिका गुप्ता),’ पुटुस के फल (प्रहलाद चंद दास) चार इंच की कमल (डा केके वियोगी) सलाम (ओम प्रकाश वाल्मीकि) सुरंग, कफनखोर, आवाज टूटता वहम, जुड़ते दायित्व, अनुभूति के घेरे, अपमान, बुधिया की तीन रातें आदि प्रमुख हैं। जब, दलित समाज अनपढ़ था तब विवाह उत्सव पर स्वांग/नोटंकी आदि का आयोजन होता था। सबसे पहले स्वामी अछूतानंद ने ‘रामराज्य का न्याय’ और ‘मायाराम’ नामक नाटक लिखे। स्वतंत्रता के पूर्व इलाहाबाद में नंदलाल जैसवार ने ‘इन्साफ’ नाटक लिखा। कठोती में गंगा (डा एन सिंह), अछूत का बेटा, धर्म के नाम पर धोखा, तड़प, मुक्ति, वीरांगना ऊदा देवी पासी, प्रतिशोध वीरागंना झलकारी बाई धर्मपरिवर्तन, अन्तहीन बेडि़या (चालीस नाटक एकांकी संग्रह) माता प्रसाद मित्र द्वारा लिखे गये। एकलव्य के जीवन पर आधारित नाटक, शोषितों के नाम संतोष का पैगाम भीम सेन संतोष ने लिखा। ललई सिंह यादव के नाटक ‘शंबूक वध’ ने तहलका मचा दिया। इसी के साथ दो चेहरे, संवाद के पीछे, बारात नहीं चढ़ेगी, रामराज का दरबार, के अलावा जब रोम जल रहा था- नीरो वंशी बजा रहा था (कंवल भारती) नाटक भी चर्चित रहे। दलित निबंध भी लिखे गये। निबंध संग्रह-नारी तन मन गिरवी कब तक? लेखक के एस तूफान ने नारी विमर्श के साथ-साथ दलित चेतना से साक्षात्कार कराता है।
संघर्षशील जीवन में भोगा गया यथार्थ, गरीबी का दंश, तिरस्कार आदि वेदना को अनेक दलित लेखक/लेखिकाओं ने अपने आत्मकथा लेखन से उद्घाटित किया है। ‘मैं भंगी हूं’ (भगवान दास) अपने-अपने पिंजरे (मोहनदास नैमिशराय) दोहरा अभिशाप (कौशल्या बैसन्ती) जूठन (ओमप्रकाश वाल्मीकि) उठाईगीर (लक्ष्मण गायकवाड) झोपड़ी से राजभवन (माताप्रसाद) घूंट अपमान के (सूरजपाल) मेरी मंजिल मेरा सफर (डा डी आर जाटव) मेरे गुनाह (श्रवण कुमार) हमारा जीवन (बेबी कांबले) सहित श्यौराज सिंह बेचैन आदि की आत्मकथाएं प्रमुख हैं।
हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में दलित आलोचना ग्रंथ, दलित शोध ग्रंथ, समीक्षात्मक ग्रंथ भी लिखे गए हैं। यदि देखा जाए तो दलित चेतना को इस जीवंत स्तर तक पहुंचाने के लिये महात्मा ज्योति राव फुले (सन् 1827-1890) एवं सावित्री बाई फुले (1831) जैसे समर्पित दंपत्ति का योगदान विस्मृत नहीं किया जा सकता। महात्मा फुले ने सन् 1848 में पहली कन्या पाठशाला खोली। सन् 1851 अछूतों के लिए पहली पाठशाला खोली। सन् 1864 में विधवा विवाह संपन्न कराया। सावित्री बाई फुले ने पहली भारतीय शिक्षिका होने का गौरव पूर्ण स्थान भी प्राप्त किया। आंध्र प्रदेश के कार्मी गांव की आशम्मा का नाम भी दलित उत्थान में प्रमुख है। महाराष्ट्र के कोल्हाटी समाज में नाच गाने वाली औरतों में काम करने वाली शांतिबाई, टीचर बनना चाहती थी, लेकिन सामाजिक प्रतारणाओं के कारण उसका सपना पूरा नहीं हो सका, लेकिन उसका बेटा किशोर शांताबाई काले, पढ़-लिखकर डाक्टर बन गया। लक्ष्मण माने का आत्मकथात्मक उपन्याय ‘ऊपरा’ हिन्दी में ‘पराया’ नाम से प्रकाशित हो साहित्य आकदमी पुरस्कार पा चुका है।
दलित लेखन, चाहे वह किसी भी विद्या के रूप में सामने आया है वह सवर्ण समाज पर जारी श्वेत पत्र सा लगता है। दलित प्रतिबंधों, अवरोधों, निषेधों और वचनाओं के बीच जीने का सनातन अभ्यस्त रहा है, लेकिन उसका आक्रोश लेखनी से सामने आया और जनमानस उद्वेलित हुआ। यदि कुल मिलाकर दलित विमर्श पर चर्चा करते समय सामाजिक, राजनीतिक एवं साहित्यिक संदर्भ तलाशें जायें, तो सभी का मूल स्वर मुख्य धारा से अलग रहने की छटपटाहट अभिव्यक्त करता है। लेकिन इस दिशा में आज तक संपन्न हुए सभी प्रयास निकट भविष्य में स्वयं ही मुख्य धारा बन जाने की दिशा में आश्वस्त करते हैं और यह आश्वस्ति, दलित चेतना के संघर्ष जीजीविषा सहित उनकी संकल्पशक्ति से बल प्राप्त करती है।
जिसमें साहस है वही रूक पायेगा
बैर लेकर, वर्जनाओं के करीब।