आज साहित्य और राजनीति के संबंधों को पुनर्परिभाषित करने की जरूरत आ गई है, जहां साहित्य संस्कृति का सबसे बड़ा प्रतिनिधि है, वहीं राजनीति, संस्कृति का नुकसान किये बगैर आगे नहीं बढ़ती, पतनशीलता के ऐसे दौर में अभिधा से काम चल ही नहीं सकता, इसीलिए जब शब्द कम पड़ने लगते हैं, तब शब्दों को मारना पड़ता है, ताकि नए शब्द जन्म ले सकें।...