धीरज चतुर्वेदी
छतरपुर (मप्र)| बुंदेलखंड में पूज्य नाग देवता के दंश से हर साल सैकड़ों लोग काल के मुंह में चले जा रहे हैं। जन सामान्य में इसे लेकर काफी असहजता है और स्वास्थ्य विभाग भी इस पर गंभीर है। तीन साल पहले इसके लिए ग्वालियर क्षेत्र के डॉक्टरों को प्रशिक्षित भी किया गया था। सभी अस्पतालों में दस वायल पहुंचाई गई थी लेकिन सर्पदंश की बढ़ती घटनाओं को देखकर यह नाकाफी है। बुंदेलखंड में नाग देवता की बहुत मान्यता है और कुल देवता के रूप में पूजा-अर्चना की जाती है।
सामंती ताकतों से जूझते आ रहे बुंदेलखंड को इस नाग देवता के ज़हर से भी जूझना पड़ता है। इस भू भाग पर सर्पदंश से हाने वाली मौतों का आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा है। बुंदेलखंड के छतरपुर, पन्ना और टीकमगढ़ जिले सबसे अधिक सर्पदंश से प्रभावित हैं। सांप के काटने से मौत होने पर पीड़ित परिवार को 50 हज़ार रूपए की सरकारी सहायता दी जाती है। सरकारी क्षतिपूर्ति मिलने वाले दस्तावेजों के मुताबिक छतरपुर जिले में 2005 में 126, 2006 में 73, 2007 में 84, 2008 में 153 और 2009 में 160 लोगों की सर्पदंश से मौत हुई हैं। पन्ना जिले में यह आंकड़ा 150 के आसपास रहता है। सन् 2005 में 143, सन् 2006 में 157, सन् 2007 में 126, सन् 2008 में153 और 2009 में 163 लोगों की सर्पदंश से मौत हुई है। दतिया जिले में भी औसतन 200 लोग सांप के दंश के शिकार होते हैं।
सर्प विशेषज्ञ डॉ विनय पटैरिया के मुताबिक इस इलाके में करैत, कोबरा और बाईपर सांप अधिक मिलते हैं। कोबरा न्यूरोटासिक होते हैं, जिनके काटने से पीड़ित के मुंह-नाक से झाग निकलने लगता है साथ ही मिर्गी आती है और फिर पीड़ित कोमा में चला जाता है। पीड़ित को अगर दो घंटे के भीतर इलाज न मिले तो वह मौत का शिकार हो जाता है। बाईपर सांप हिमोटाकसिक होता है जिसका ज़हर पीड़ित की रक्त प्रणाली पर प्रहार करता है जिसकी वज़ह से पीड़ित की मौत हो जाती है। डॉ पटैरिया के मुताबिक सर्पदंश से पीड़ित के शारीरिक लक्षणों को पहचाने बिना उसका इलाज करना जानलेवा हो सकता है। यदि दंश पीड़ित न्यूरोटाकसिक का काटा नहीं है और उसे उसका इंजक्शन लगा दें तो पीड़ित की मौत तय है।
विशेषज्ञों के मुताबिक आवासीय इलाकों में निकलने वाले सांपों में 70 फीसद ज़हरीले नहीं होते और 30 फीसद में भी 10 फीसद ऐसे हैं, जो त्वचा में ही ज़हर छोड़ पाते हैं। ज्यादातर दंश पीड़ित के मन में सांप काटने का भय मौत का कारण बनता है। बुंदेलखंड में नाग देवता की कुल देवता के रूप में पूजा होती है। अंधविश्वास और जागरूकता के अभाव में आज भी कई ऐसे पीड़ित मौत का शिकार हो जाते हैं जो डाक्टरों पर विश्वास नहीं करते। बुंदेलखंड में कई ऐसे नामचीन देवताओं के चबूतरे हैं, जहां मंत्रों और झाड़ फूंक से सांप का ज़हर उतारा जाता है। दतिया जिले में स्थित रतनगढ़ की माता के द्वार के लिए तो कहा जाता है कि सांप काटने वाले हिस्से पर माता का नाम लेकर मिट्टी का घेरा बना दिया जाए तो सर्प का ज़हर असरहीन हो जाता है। दीपावली के दिन पीड़ित को माता के द्वार पर मत्था टेकना होता है।
सर्पदंश से पीड़ित परिवार अस्पतालों में दवाईयों की कमी के कारण झाड़ फूंक पर अधिक विश्वास करते हैं। सरकारी आंकड़ों के अलावा सर्पदंश से होने वाली मौतों का आंकड़ा समूचे बुंदेलखंड में हज़ारों में पहुंच जाता है। सांपों के बढ़ते प्रकोप के कारणों के पीछे भी इंसानी फितरत है जिसने निजी स्वार्थ के चलते पर्यावरण को तबाह कर दिया है। सांप भी पर्यावरण का बहुत बड़ा घटक मित्र है। जंगलों और खेतों में चूहों का भोजन कर सांप फसलों को बचाता है लेकिन अत्यधिक कीटनाशक दवाओं के उपयोग के कारण शांत जीव रिहायशी इलाकों की ओर आ जाते हैं। सांप के लिए कहा जाता है कि वह कभी हमला नहीं करता पर खुद को असुरक्षित देखकर फन पटकता है।
बुंदेलखंड में भीषण गर्मी और जंगलों की तबाही भी सर्पदंश की घटनाओं में वृद्धि के महत्वपूर्ण कारण हैं। सांप के दंश से साल दर साल बढ़ते मौत के आंकड़ों को देखकर स्वास्थ्य विभाग भी गंभीर है। तीन साल पहले अप्रैल 2007 में ग्वालियर क्षेत्र के करीब डेढ़ सौ डॉक्टरों को सांप काटने के उपचार की आधुनिक तौर-तरीके से प्रशिक्षित किया गया था। आस्ट्रेलिया से आए सिमसन दंपति ने ट्रेनिंग दी थी। प्रशिक्षित डॉ विनय पटैरिया कहते हैं कि पहले सर्पदंश वाले शरीर के अंग को बांध दिया जाता था लेकिन नई पद्धति में बांधने को खतरनाक माना गया है। मात्र यह कोशिश की जानी चाहिए कि अंग का हिलना-डुलना बंद हो सके जिससे खून का संचार स्थिर रह सके। एंटीविनम इंजक्शन भी हर अस्पताल में पहुंचाए गए थे, पर समय के साथ स्वास्थ्य अमला भी निष्क्रिय होता चला गया। आज हालत यह है कि जिला अस्पतालों में भारी कमी है। दूसरी तरफ सर्पदंश की घटनाओं में तेजी से इजाफा होता जा रहा है। डॉक्टर खुद स्वीकार करते हैं कि अस्पतालों में मांग की तुलना में एएसवी कम मात्रा में भेजी जा रही है। (जनसत्ता)