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नई दिल्ली। बिखरते रिश्तों को कानून की डोर से नहीं बांधा जा सकता। घरेलू हिंसा रोकने वाला कानून हो या दहेज-उत्पीड़न-हत्या और प्रताड़ना विरोधी कानून सब अपने मूल उद्देश्यों को पाने में बौने साबित हो रहे हैं। महिलाओं पर हुए जुल्म के मामले सुनने वाले न्यायाधीशों का मानना है कि केवल कानून के जरिए महिला सशक्तिकरण की बात बेमानी है।
तीस हज़ारी में महिला अदालत की न्यायाधीश रहीं स्वर्णकांता ने कहा 'महिलाओं पर जुल्म के मामलों की सुनवाई के बाद वे कह सकती हैं कि घरेलू हिंसा का शायद ही कोई ऐसा मामला हो जिसमें औरत, औरत के खिलाफ न हो। इतना ही नहीं, कानून का फायदा सशक्त पक्ष को मिल जाता है। अबलाओं की रक्षा के लिए बने कानून अधिकांश मामलों में अपने मूल लक्ष्य को नहीं पाते। उन्होंने कहा कि महिला सशक्तिकरण को तब तक नहीं पाया जा सकता जब तक औरत अपने साथ की औरत की पीड़ा न समझे।'
कानून से एक महिला को न्याय मिलता है तो साथ ही उसी फैसले से परिवार की दूसरी महिला को पीड़ा होती है। दुष्कर्मी पिता को सलाखों के पीछे भेजने के एक फैसले को सुनाते समय न्यायाधीश स्वर्णकांता को लगा कि उन्होंने न्याय किया है लेकिन अगले ही क्षण वे सोचने पर मजबूर हो गईं जब बलात्कारी पिता की पत्नी ने तड़पते हुए बची जिंदगी गुजारने का आधार अदालत से पूछा।
स्वर्णकांता के अलावा दिल्ली हाई कोर्ट की जस्टिस गीता मित्तल, जस्टिस वीके जैन के अलावा दर्जनों विधि विशेषज्ञों, न्यायिक अधिकारियों, विधि शिक्षकों, शोधार्थियों का कमोबेश यही मानना है कि भारत में पारिवारिक कानूनों का बढ़ता चलन ठीक नहीं है। इससे जिनता बचा जाए उतना ठीक है। भारत जैसे बहुधर्मी और विविधता वाले देश में कानूनों से ज्यादा परंपरा और रिवाजों को समाज में मजबूती मिली हुई है। दिल्ली विश्वविद्यालय के विधि केंद्र-दो की ओर से रविवार को इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के एनेक्स में हुई गोष्ठी में विशेषज्ञों ने कहा कि महिला सशक्तिकरण का रास्ता कानूनों से नहीं बल्कि सामाजिक संवेदना से होकर जाता है।
विधि केंद्र की प्रोफेसर इंचार्ज प्रोफेसर पूनम सक्सेना ने कहा कि पारिवारिक कानूनों की अदालतों में अपनी तरह से की गई व्याख्या गलत परंपरा है इससे बचना चाहिए। कानून की जरूरत ही क्यों? जब संविधान के तहत काम सुचारू रूप से चले। जब शासन में संविधान के तहत काम सुचारू रूप से चले। जब शासन में संविधान के सुझाए निर्देशों की अनदेखी होती है तो ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है जिसे रोकने के लिए कानून लाने पड़ते हैं महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए बनाए गए कानून इसी की परिणति हैं।
दिनभर चली परिचर्चा में एक सत्र कोड बिल पर भी रखा गया था। इन पर जिन प्राध्यापकों ने विचार दिए उनमें प्रोफेसर किरण गुप्ता, प्रोफेसर पूनम दत्ता, प्रोफेसर एसके कौशिक, प्रोफेसर सुमित कुमार, प्रताप मलिक आदि शामिल थे। वक्ताओं में आम राय थी कि महिलाओं को सशक्तिकरण के लिए कानून से ज्यादा समाज और महिलाओं को संवेदनशील बनाने की जरूरत है। इस मौके पर एक शोध का हवाला देकर वक्ताओं ने बताया कि दहेज उत्पीड़न के मामलों में नियुक्त पुलिस अधिकारियों में से आधों का मानना है उस कानून का बेजा इस्तेमाल हुआ। वकीलों के बीच इस कानून के तहत आए मामले 'रूटीन' के मामले समझे जाते हैं। इतना ही नहीं कई न्यायाधीशों का मानना है कि लोगों में इस कानून की समझ को लेकर भी भ्रम है। (जनसत्ता)