पुण्य प्रसून बाजपेयी
नई दिल्ली। मेजर ध्यान चंद नेशनल स्टेडियम से बाहर निकलती भारतीय टीम के साथ उस दिन कोई नहीं था। ना कोई अधिकारी, ना कोई सुरक्षाकर्मी और ना न्यूज चैनलों के कैमरे वाले। ये वही टीम है जिसके लिये चंद मिनट पहले तक ध्यानचंद स्टेडियम के भीतर लगातार सत्तर मिनट तक की गूंज में हजारों दर्शकों का सिर्फ एक ही शब्द सुनायी दे रहा था -इंडिया-इंडिया। वही टीम जिस खामोशी से ध्यानचंद स्टेडियम से बाहर निकल रही थी और स्टिक थामे लगभग चुराई नजरों से हॉकी के जादूगर मेजर ध्यान चंद की प्रतिमा को भी देख रही थी। उन्हीं ध्यान चंद को जिनकी हॉकी को हॉलैंड में तोड़ कर देखा गया था कि कहीं उसमें चुंबक तो नहीं है। वही ध्यान चंद, जिन्होंने कभी ना हारने वाले जर्मन के तानाशाह हिटलर की आखों के सामने न सिर्फ जर्मनी को 8-1 से रौंद डाला था, बल्कि जर्मनी में एक बड़े ओहदे के साथ रहने के हिटलर के खुले निमंत्रण को भी ठुकरा दिया था।
उन्हीं ध्यान चंद के नाम पर बने नेशनल स्टेडियम में देश ने भारतीय हॉकी को उसकी शक्ति दुबारा जगाने का सपना शायद अर्से बाद देखा। पाकिस्तान को हराने के बाद तो शायद भारतीय हॉकी टीम ने भी यही सपना देखा होगा कि वह विश्व चैपियन बनने का दम-खम रखती है, मगर शास्त्रीय संगीत से रॉक के हंगामे की तरह हॉकी का समूचा खेल ही बदल गया। जिस दौर में ध्यान चंद खेलते थे तब हॉकी की कीमत 50 रूपये थी। आज वही हॉकी 12 हजार की हो चुकी है। तब लकड़ी की स्टिक होती थी और अब कार्बन की होती है। तब भारत के लिये उसके सामने गोल्ड मेडल कोई मायने नहीं रखता था, जरूरी यह होता था कि विरोधी टीम कोई गोल ना कर जाए। उसके उलट अब समूचा खेल ही रक्षात्मक हो गया है, यानी अब तो विरोधी का गोल बचाने की कोशिश होती है। मिट्टी और घास के मैदान पर हुनर की जगह अब रबर के मैदान को गीला कर रफ्तार को मात देने के दम-खम में ही समूची हॉकी सिमट गयी है। हां, पाकिस्तान को हराने के बाद जीत का जश्न खिलाड़ियों समेत समूचे हिन्दुस्तान ने जरूर देखा। मगर सपने देखना और सपनों में ही जीना कितना अलग और कितना खतरनाक है, यह भी हश्र सामने है। सवाल है कि इसके लिये जिम्मेदार कौन है? जी, बडा सवाल यही है और इसे समझने के लिये ध्यान चंद स्टे़डियम से बाहर निकलना होगा जहां सबसे पहले मालूम होता है कि दो साल से भारत के राष्ट्रीय खेल हॉकी को संभालने वाली आईएचएफ यानी इंडियन हॉकी फेडरेशन ही नहीं है।
इंडियन हॉकी फेडरेशन ठीक वैसे ही है जैसे क्रिकेट के लिये बीसीसीआई। दो साल पहले आईएचएफ के सचिव ज्योति कुमार कैमरे पर खिलाड़ियों के चयन के लिये घूस लेते हुये पकड़े गये थे और उसके बाद ही भारतीय ओलंपिक संघ ने आईएचएफ को भंग कर दिया था। उसी के साथ केपीएस गिल का साम्राज्य भी खत्म हुआ था। लेकिन, इन दो साल में आईएचएफ का चुनाव नहीं हुआ, क्योंकि इसमें घुसने के लिये राजनीति के धुरंधर खिलाड़ियों से लेकर रईसों तक में ऐसी होड़ मची कि मामला अदालत तक जा पहुंचा। चूंकि आईएचएफ के चुनाव में शिरकत करने के लिये किसी राज्य हॉकी एसोसिएशन का अधिकारी होना जरूरी है, तो अधिकारी बनने के लिये लाखों के वारे-न्यारे का खेल शुरू हुआ। मसलन, बंगाल हॉकी एसोसिएशन में सहारा के सर्वेसर्वा सुब्रत रॉय के भाई जयव्रत रॉय घुस गये, तो पंजाब हॉकी एसोसिएशन में सुखबीर सिंह बादल के बेटे।
पूर्वहॉकी खिलाड़ियों को इस दशा पर रोना भी आया और आक्रोश भी छलका, तो मामला अदालत तक पहुंचा। लेकिन इन दो वर्ष में भारतीय ओलंपिक एसोसिएशन ने अस्थाई तौर पर तत्कालिक व्यवस्था के तहत उत्तर प्रदेश के पूर्व सांसद असलम खान को कार्यभार सौंपकर उनके मातहत पांच खिलाड़ियों-अशोक ध्यानचंद, असलम शेर खान, धनराज पिल्लै, अजित पाल सिंह और जफर इकबाल को नियुक्त कर दिया। लेकिन आईएचएफ के चुनावों को लेकर इस तरह राजनीति गरमायी कि आईएचएफ पर कब्जा करने की राजनीतिक समझ ने पूर्व खिलाड़ियों को अंदर से हिला दिया और अस्थाई व्यवस्था के तहत नियुक्त इन पांचों खिलाड़ियों ने एक-एक कर अपना पिंड छुड़ाना ही सही समझा और एक-एक कर सभी ने इस्तीफा दे दिया।
असलम खान ने भी अंतत: तंग आकर इस्तीफा दे दिया। उनके बाद हॉकी को देखने के लिये एके मट्टू की नियुक्ति हुई, जिन्होंने खिलाड़ियों को पैसे मिलने, ना मिलने की राजनीति के बीच इस्तीफा दे दिया। फिलहाल हॉकी फेडरेशन को विद्या स्ट्रोक्स देख रही हैं। स्ट्रोक्स भी वही हैं जिनकी राजनीति को हिमाचल में कांग्रेस भी दूर से सलाम कहती है, लेकिन भारतीय खेल हॉकी को फिलहाल वही सलाम कर रही हैं। हॉकी की दुर्दशा यहीं नहीं रुकी है। अगर हॉकी के पास क्रिकेट सरीखा बीसीसीआई नहीं था, तो खिलाड़ियों को चुनने का कोई पैमाना भी नही था। क्रिकेट में रणजी के जरिये हर राज्य से खिलाड़ी भारतीय टीम तक पहुंचते हैं, लेकिन बीते दो सालों में हॉकी का कोई मैच राज्य या राष्ट्रीय स्तर पर हुआ ही नहीं। रंगास्वामी टूर्नामेंट तक तो नहीं हुआ। इन दो सालो में हॉकी को लेकर किसी स्तर पर कोई खेल देश में नहीं हुआ। यानी जो टीम दो साल पहले थी उसमें देश के किसी हिस्से से कोई नया खिलाड़ी नहीं जुड़ा। इसलिये जब शिवेन्द्र पर दो मैच का प्रतिबंध लगा, तो विकल्प के तौर पर घायल दीपक ठाकुर को खिलाने के अलावा और कोई चारा नहीं था। संदीप को तो सिर्फ पेनल्टी कॉर्नर एक्सपर्ट के तौर पर ही लगातार खिलाया जाता रहा, चाहे उनकी डिफेन्स में बार-बार सेंध लगी हो। टीम, जो कि एक योजना के तहत तैयार होती है, वह गायब हो गयी और मैदान पर हर खिलाड़ी अपना ही दम-खम दिखाता नजर आया। बोर्ड नहीं, मैच नहीं, तो टीम को संभाले कौन? इसके लिये कोच को ही सब कुछ मान लिया गया।
इन दो सालो में हॉकी टीम के कोच बनाने और हटाने का सिलसिला भी खिलाड़ियों की संख्या सरीखा ही रहा। करीब बारह कोच इस दौर में बदल दिये गये और दुर्दशा यहीं नहीं रुकी बल्कि विश्व कप हॉकी के लिये जब कोच का सवाल उठा, तो एथलेटिक्स की समझ रखने वाले सुरेश कलमाडी को यही समझाया गया कि स्पेन के जोएश ब्रासा को कोच बनाया जा सकता है, क्योंकि उन्होंने स्पेन जैसी टीम को विश्व विजेता बनाया है। लाखों रुपये देकर ब्रासा को भारतीय हॉकी टीम का कोच भी बना दिया गया। लेकिन, ब्रासा की नियुक्ति के बाद पता चला कि वह पुरुष नहीं बल्कि महिला हॉकी टीम के कोच रहे हैं। निजी तौर पर वे स्पेन के दो पुरुष खिलाड़ियों के कोच जरुर रहे हैं। शायद वजह भी यही रही कि स्पेन के ट्रम्प कार्ड पाबलो अमत को कवर करने के लिये कोई भारतीय खिलाड़ी मैदान में नहीं था।
अब सवाल है कि हॉकी में कभी नंबर एक की टीम की रैंकिंग जब 12 है तो इस स्थिति के बावजूद भारत में विश्वकप का आयोजन क्यों हो रहा है? तो, इसका फैसला फेडरेशन ऑफ इंटरनेशनल हॉकी करता है। अगर मेजबानी का मामला अटक जाये तो एफआईएच के अध्यक्ष की सुनी जाती है और संयोग से फेडरेशन के अध्यक्ष नेयाग्रे ने खासतौर पर इस बार हॉकी को भारत में कराने की पेशकश के पीछे यही तर्क दिया था कि ध्यान चंद का सुनहरा इतिहास भारत के साथ जुड़ा है और भारत में हॉकी जाग जाये तो हॉकी के भी वारे-न्यारे हो सकते हैं, इसलिये विश्वकप भारत में कराकर उस सुनहरे इतिहास को भी जगाने का मौका भारत को मिलेगा।
चूंकि विश्वकप हॉकी आफिशियल टूर्नामेंट है, इसलिये इसमें शामिल होने वाली टीमों का खर्चा मेजबान को उठाना नहीं पड़ता है, जो भी टीम खेलती है उसे अपना धन खर्च करना पड़ता है, यानी हवाई किराये से लेकर चोट की सेंकाई के बर्फ तक का खर्च हर देश को खुद ही उठाना पड़ता है। ऐसे में एफआईएच ने यह भी माना कि क्रिकेट के जरिये विश्व बाजार बना भारत हॉकी के खिलाड़ियों का भी जीर्णोद्धार हो सकता है। लेकिन, इंग्लैड से हारकर मेजर ध्यान चंद स्टेडियम के बाहर जिस तरह खामोशी के साथ चुरायी नजरों से हॉकी टीम के खिलाड़ी ध्यान चंद की प्रतिमा को देखते हुये बस में सवार हो रहे थे..... यही लगा कि इंडिया-इंडिया की गूंज करने वाला भारत कब समझेगा? राष्ट्रीय खेल सिर्फ नारों और सपनों से नही बचता, इसके लिये जुटना पड़ता है। ध्यान चंद तो संघर्ष के दौर में निकले थे लेकिन, उनकी मौत एम्स के जनरल वार्ड में हुई और इलाज कर रहे डॉक्टर की उनकी मौत पर पहली टिप्पणी यही थी, हॉकी मर गई। (हिन्दी-भारत)