विशेष संवाददाता
नई दिल्ली। भारत सरकारअमरीका से परमाणु करार करने के करीब पहुंच रही है। लगभग तय हो गया है कि बुशप्रशासन के कार्यकाल में ही भारत और अमरीका के बीच परमाणु करार हो जाएगा। संसद मेंयूपीए सरकार का चुनावी बजट आते ही दोनों देशों में शीर्ष स्तर पर जो हलचल देखी जारही है उससे यह यकीन पक्का हो चला है कि भारत सरकार सारे राजनीतिक दबावों औरगतिरोधों को दरकिनार करके अब इस करार को पूर्ण कर देना चाहती है। ‘अमरीका की कूटनीतिक सलाह’ पर प्रधानमंत्री डा मनमोहनसिंह ने परमाणु करार पर समर्थन पाने के लिए अपनी छाती पर पत्थर रखते हुए भाजपा केभीष्म पितामह अटल बिहारी वाजपेयी की ‘तारीफ’ की है। इससे अब किसी भी रूप में भाजपा का समर्थनमिल जाना तय सा माना जा रहा है। यूपीए सरकार इस बहुप्रतीक्षित समझौते को जल्दी हीपूरा करना चाहती है, चाहे अब उसको वामदलों का समर्थन रहे याजाए। वैसे भी इस साल के अंत तक देश में आम चुनाव हो जाने हैं।
उधर लोकसभा में बजट पेश होनेऔर उस पर जनता की सकारात्मक प्रतिक्रिया आने के बाद यूपीए सरकार के ‘सहयोगी’ घटक वामदलों ने परमाणु करार पर भारत औरअमरीका की अचानक सक्रियता देखते हुए सरकार पर फिर से यह दबाव बढ़ा दिया है कि वहइस समझौते को अंजाम न दे। वामदल मानते हैं कि यह समझौता देश की संप्रभुता के लिएखतरा है लेकिन भारत सरकार कहती है कि आंतरिक और वाह्य सुरक्षा को दृष्टिगत रखतेहुए दोनों देश परमाणु समझौते के लिए आगे बढ़े हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पररक्षात्मक सहयोग लेने व देने तक का मसौदा इस करार में शामिल है। प्रधानमंत्रीमनमोहन सिंह लोकसभा में कई बार स्पष्ट कर चुके हैं कि इस समझौते का कोई नुकसाननहीं है।
केंद्र में प्रमुख विपक्षीदल भारतीय जनता पार्टी भी वामदलों की तरह इस समझौते का विरोध कर रही है। उसका कहनाहै कि यह समझौता देशहित में नहीं है। भाजपा ने विरोध जताते ही अमरीका के पूर्वविदेश सचिव स्टॉप टॉलबोट ने कहा है कि भाजपा गठबंधन भी अमरीका से एटमी करार केपक्ष में था अब और बात है कि तब वह सत्ता में था और वह आज विपक्ष में है। भाजपा केनेता यशवंत सिन्हा और भाजपा के प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने इस बयान पर एतराज जतायाहै। टॉलबोट ने तो साफ-साफ कहा है कि यदि उस समय क्लिंटन प्रशासन इस समझौते के लिएतैयार हुआ होता तो यह करार उसी समय हो गया होता। इस मामले में एनडीए सरकार से दोसाल तक वार्ता चली है और टॉलबोट कह रहे हैं कि वह उसमें वार्ताकार थे और उस समय केभारत के विदेश मंत्री जसवंत सिंह करार पर बातचीत कर रहे थे। सहमति भी लगभग बन गईथी। टॉलबोट कह रहे हैं कि इस परमाणु करार से भारत को काफी कुछ मिल रहा है जबकिभाजपा तो कम छूट मिलने पर भी यह समझौता करने को तैयार थी।
अमरीका के साथ भारतीय रिश्तोंको नया रूप देने वाली भाजपा की एनडीए सरकार के रुख में और आज के रुख में जो बदलावदेखा जा रहा है कि वह रचनात्मक विरोध से ज्यादा कुछ नहीं है। क्योंकि लालकृष्णआडवाणी ने अमरीकी रक्षा मंत्री रॉबर्ट ग्रेट्स से मुलाकात के दौरान कहा था कि करारपर उनकी पार्टी को आपत्ति नहीं है। आपत्ति देश की संप्रभुता और परमाणु परीक्षण कीआजादी को लेकर है। अमरीका के साथ परमाणु करार को लेकर भाजपा और विपक्षी पार्टियांयूपीए सरकार को संसद में घेरती रही हैं। इस मुद्दे पर वामदल भी साथ खड़े हैं, जिससे केंद्र सरकार को इस करार को लागू करने के लिए उनके भी समर्थन कीजरूरत है, क्योंकि लोकसभा में वामदलों के सरकार से अलग होजाने की स्थिति में केंद्र की सरकार के पास पर्याप्त समर्थन नहीं है। उधर अमरीकायह साफ-साफ कह चुका है कि भारत को इस करार पर हस्ताक्षर करने के अलावा कोई भीरास्ता नहीं है। वह इसका स्वरूप भी नहीं बदल सकता क्योंकि अमरीका ने इस समझौते कोकरने के लिए अपने मित्र देशों से भी सहमति ली है।
यदि भारत इस समझौते को नहींमानता है तो उसके सामने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने उन दावों के बारे में फिर सेसोचना होगा जिनके लिए भारत संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता चाहता है और कश्मीर एवं देशके बाकी हिस्सों में फैले आतंकवाद के विरुद्ध अंतरराष्ट्रीय समुदाय से सहयोग चाहताहै। अभी तक यह समझौता लागू न होने से भारत और अमरीका के बीच में विभिन्नअंततरराष्ट्रीय मुद्दों पर एक गतिरोध आया हुआ है। भारत सरकार इस मामले में अपनेसहयोगी दलों को मनाने में विफल रही है और वामदलों ने जो दबाव बनाया हुआ है उससे यहसमझौता अधर में है।
यूपीए सरकार ने एक सोची समझीरणनीति के तहत देश के वार्षिक बजट में जिस प्रकार की बातें कहीं है और देश की जनताको राहत दी हैं उससे वह किसी भी दबाव से बाहर निकलते दिख रही है और उसने चुनाव केलिए भी पूरी तरह से मन बना लिया है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अटल बिहारीवाजपेयी की तरफ देखने से यह लग रहा है कि भाजपा इस मुद्दे पर अपने रुख में बदलावलाएगी। ऐसी स्थिति में वामदलों का दबाव प्रभावहीन हो जाएगा जिससे भारत और अमरीकाके बीच परमाणु समझौते को लागू करने का रास्ता प्रशस्त हो सकता है। यूपीए के नेताओंने इस पर चर्चा शुरू कर दी है और अमरीका के अधिकारी सक्रिय हो गए हैं। अमरीकीविदेश उप मंत्री का कूटनीतिक बयान आ गया है जो कि भारत के उन राजनीतिक दलों केबारे में है जो कल तक परमाणु करार का समर्थन कर रहे थे और आज विरोध कर रहे हैं।
वामदलो से सहयोग की टूटी आसके बाद यूपीए सरकार की मजबूरी साफ झलकती है। विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी वामपंथियोको समझाने में यूं तो बड़े ही बेबस नजर आते हैं लेकिन वह अब इस करार के लिएआश्वस्त दिखते हैं। प्रणव मुखर्जी कह चुके हैं कि यह एटमी करार केवल 123 समझौतों के तहत ही होगा न कि हाईड कानून के अनुसार, किन्तुवह अपनी यह बात समझाने में अभी तक तो विफल रहे हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कीभी कमावेश यही हालत है। भारत की प्राथमिकता इस समझौते को करने में है। भारत सरकारके लिए यह देर ज्यादा ही परेशानी वाली और नुकसानदेह होती जा रही है क्योंकि भारतको फिलहाल जितनी देश के वामपंथियों की जरूरत है उससे कहीं ज्यादा जरूरत उसे विश्व समुदायके उन देशों की है जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत के आर्थिक सुरक्षा और कूटनीतिक मामलोंमें अपना पूरा दखल रखते हैं जिन्हें नजरअंदाज करना भारत के लिए उतना आसान नहीं है।