देवेन्द्र प्रकाश मिश्र
लखीमपुर-खीरी। एक सदी पूर्व विलुप्त हो चुके एक सींग वाले भारतीय गैंडे को 25 साल पहले इस तराई क्षेत्र की उनकी जन्मभूमि पर बसाया गया था। किसी वन्यजीव को पुनर्वासित करने का यह गौरवशाली इतिहास विश्व में केवल दुधवा नेशनल पार्क ने बनाया है। भारत सरकार ने पहले आसाम के पावितारा वन्यजीव विहार से दो नर और तीन मादा गैंडे लाकर दुधवा में गैंडा पुनर्वास परियोजना शुरू कराई थी। इसमें से दो मादा गैडों की मौत 'शिफ्टिंग स्टेस' के कारण हो गई थी तब परियोजना को आगे बढ़ाने के लिए सन् 1985 में नेपाल के चितवन नेशनल पार्क से सोलह हाथियों के बदले चार मादा गैंडों को लाया गया। विश्व की यह एकमात्र ऐसी परियोजना है जिसमें 106 साल बाद गैडों को उनके पूर्वजों की धरती पर पुनर्वासित कराया गया है। गंगा के तराई क्षेत्र में सन् 1900 में गैंडे का आखिरी शिकार इतिहास में दर्ज है, इसके बाद गंगा के मैदानों से एक सींग वाला भारतीय गैंडा विलुप्त हो गया था।
दुधवा नेशनल पार्क में चल रही विश्व की अद्वितीय गैंडा पुनर्वास परियोजना संबंधित अफसरों की लापरवाही कुप्रबंधन एवं उपेक्षा का शिकार हो गयी है। उर्जाबाड़ से संरक्षित वनक्षेत्र में रहने वाले तीस सदस्यीय गैंडा परिवार के पांच सदस्य करंटयुक्त फैंसिंग तोड़कर बाहर घूम रहे हैं। पार्क प्रशासन के अफसर गैंडों की सुरक्षा की कोई पुख्ता दीर्घकालिक व्यवस्था नहीं कर रहे हैं। इससे मानव के आक्रोश से उनका जीवन भी संकट में है। इसके अतिरिक्त एक ही नर गैंडा की संतानों का परिवार होने से उनके ऊपर अनुवांशिक प्रदूषण यानी अन्तःप्रजनन के खतरे की तलवार भी लटक रही है। दुधवा नेशनल पार्क की दक्षिण सोनारीपुर रेंज के 27 वर्ग किलोमीटर के जंगल को उर्जाबाड़ से घेरकर अप्रैल 1984 में गैंडा पुनर्वास परियोजना शुरू की गई थी। तमाम उतार-चढ़ाव एवं साधनों और संसाधनों की कमी के बाद भी यह परियोजना काफी हद तक सफल रही है। स्वच्छंद विचरण करने वाले तीस सदस्यीय गैंडा परिवार का जीवन अब हमेशा खतरों से घिरा रहता है, क्योंकि इनकी रखवाली और सुरक्षा में तैनात पार्क कर्मियों को निगरानी करना तो सिखाया जाता है किंतु बाहर भागे गैंडा को पकड़कर वापस लाने का तरीका ये नहीं जानते हैं।
इन अव्यवस्थाओं के कारण इस एक दशक से तीन नर एवं दो मादा गैंडा उर्जाबाड़ के बाहर दुधवा नेशनल पार्क क्षेत्र की गेरुई नदी के किनारे और गुलरा क्षेत्र के खुले जंगल समेत निकटस्थ खेतों में विचरण करके किसानों की फसलों को भारी नुकसान पहुंचा रहे हैं। दुधवा रेंज कार्यालय से करीब चार किलोमीटर दूर चौखंभा वनक्षेत्र में गौरीफंटा रोड पर पहली बार एक गैंडा विचरण करते देखा गया। अब यह गैंडा सोठियाना रेंज के जंगल में असुरक्षित घूम रहा है। यह वनक्षेत्र दक्षिण सोनारीपुर के उर्जाबाड़ वाले इलाके से 15-20 किमी दूर है। गैंडा वहां तक कैसे पहुंचा? यह बात अपने आप में वन विभाग की कार्यप्रणाली पर प्रश्नचिन्ह है। इस गैंडा की घर वापसी के कोई प्रयास पार्क प्रशासन ने नहीं किए हैं।
दुधवा के जंगल के चारों तरफ किनारे पर तमाम गांव आबाद हैं और वन क्षेत्र से सटे खेतों में फैंस तोड़कर बाहर विचरण करने वाले गैंडे लगातार फसलों को भारी क्षति पहुंचा रहे हैं। बीते दशक में मलिनियां गांव के पास गैंडा एक किसान को मार चुका है और अलग-अलग गैंडों के हमलों में पौन दर्जन लोग घायल हो चुके हैं। वन पशुओं से की जाने वाली फसल क्षति और जनहानि की मुआवजा सूची में यूपी सरकार ने 25 साल व्यतीत हो जाने के बाद भी गैंडा को शामिल नहीं किया है। इससे वन विभाग किसान को गैंडे से फसल क्षति का मुआवजा नहीं देता है। फसलों का नुकसान और जनहानि होने के बाद भी उसकी भरपाई ना मिलने से आक्रोशित ग्रामीण खुले जंगल और खेतों के आसपास घूमने वाले गैंडों को कभी भी जानी नुकसान पहुंचा सकते हैं। दुधवा पार्क प्रशासन ने गैडों की मानीटरिंग और उनकी सुरक्षा के लिए अलग से चार हाथी और कर्मचारियों का भारी अमला लगाया गया है लेकिन रेंज और वन चौकियों पर मूलभूत सुविधाएं उपलव्ध न होने से कर्मचारी अपनी इस तैनाती को कालापानी की सजा मानते हैं। विषम परिस्थितियों में वे ड्यूटी को पूरी क्षमता के बजाय बेगार के रूप में करते हैं जिससे गैंडों के जीवन पर भारतीय ही नहीं वरन नेपाली शिकारियों की भी कुदृष्टि का हर वक्त खतरा मंडराता रहा है।
गैंडा परिक्षेत्र में बाघ के हमलों और गंभीर बीमारियों की चपेट में आने से अब तक गैंडा परिवार के आधा दर्जन बच्चे मौत की भेंट चढ़ चुके हैं। आए दिन नर गैंडो के बीच होने वाले प्रणय द्वन्द-युद्ध में गैंडों के घायल होने की घटनाएं होती रहती हैं। नर गैडों की ‘मीयटिंग फाइट’ में घायल हुई एक मादा गैंडा की उपचार के अभाव में असमय मौत हो चुकी है जबकि दुधवा प्रोजेक्ट टाइगर क्षेत्र में होने वाली मार्ग दुर्घनाओं में अक्सर वन्यजीव घायल होते रहते हैं, इसके बाद भी अभी तक ना दुधवा नेशनल पार्क में विशेषज्ञ पशु चिकित्सक है और ना ही आज तक किसी पशु चिकित्सक की नियुक्ति की गई है।
दुधवा में अपने पूर्वजों की धरती पर पुनर्वासित बांके नाम के पितामह गैंडा से हुई वंश वृद्धि से यहां तीस सदस्यीय गैंडा परिवार स्वच्छंद विचरण कर रहा है। एक ही पिता से हुई संतानें चार पीढ़ी तक पहुंच गई हैं। जिनके ऊपर विशेषज्ञों के अनुसार अनुवांशिक प्रदूषण यानी अन्तःप्रजनन-इनब्रीडिंग- का खतरा मंडरा रहा है। उनका मानना है कि अन्तःप्रजनन की विकट समस्या से निपटने के लिए यहां बाहर से गैंडे का लाया जाना जरूरी है। गौरतलब है कि दुधवा प्रोजेक्ट टाइगर में शामिल किशनपुर वनपशु बिहार और नार्थ-खीरी वन प्रभाग की संपूर्णानगर वनरेंज के जंगल और उससे सटे खेतों में पिछले करीब एक साल से मादा गैंडा अपने एक बच्चे के साथ घूम रही है। वन विभाग एवं पार्क प्रशासन इसकी सुरक्षा एवं निगरानी करने के बजाय यह कहकर अपना पल्लू झाड़ रहा है कि यह गैंडा मादा नेपाल की शुक्लाफांटा सेंक्चुरी की है, जो पीलीभीत के लग्गा-भग्गा जंगल से होकर आई है और घूम-फिर कर वापस चली जाएगी।
पूर्व में जब यह परियोजना शुरू की गई थी तब सोलह हाथियों के बदले चार मादा गैंडे नेपाल से लाई गई थी, अब एक नेपाली मादा गैंडा अपने बच्चे के साथ घूम रही है तो फ्री में मिल रही इस मादा गैंडा को यहां के गैंडा परिवार में क्यों नहीं शामिल कराया जा रहा है? वन्यजीव विशेषज्ञों का मानना है कि प्रयास करके पार्क प्रशासन अगर इस मादा गैंडा को दुधवा के गैंडा परिवार में शामिल कर ले तो यहां के गैंडों के ऊपर मंडरा रहा इनब्रीडिंग यानी अंतःप्रजनन का खतरा आंशिक रूप से काफी हद तक टल सकता है। लेकिन पार्क के अफसर इस दिशा में कोई भी प्रयास करते नहीं दिख रहे हैं। इससे लगता है कि पार्क प्रशासन गैंडा पुनर्वास परियोजना के प्रति कतई गंभीर नहीं है।
गैंडा पुनर्वास परियोजना के योजनाकारों ने तय किया था कि यहां की समष्टि में तीस गैंडा को लाकर बसाया जाएगा। उसके बाद फैंस हटाकर उनको खुले जंगल में छोड़ दिया जाएगा। उनका यह सपना तो पूरा नहीं हुआ। गैंडों की बढ़ती संख्या को देखकर समष्टि के वृहद फैलाव, आवागमन की सुविधा, अंतःप्रजनन रोकने एवं संक्रामक संहारक तत्वों के विरुद्ध प्रतिरोधक क्षमता विकसित करने के उद्देश्य से दक्षिण सोनारीपुर में इस समष्टि के निकट नई फैंस बनाने का प्रस्ताव शासन को भेजा गया था। वहां से स्वीकृति मिलने के बाद पांच साल पहले शुरू किया गया कार्य आज भी अधूरा पड़ा है और बजट आने का इंतजार कर रहा है।
जर्जर हो चुकी 25 साल पुरानी उर्जाबाड अनुपयोगी हो गई है, लकड़ीचोर और शिकारी फैंस के तारों को काट देते हैं इससे भी गैंडो को बाहर निकलने में आसानी रहती है। वैसे भी गैंडों की बढ़ रही संख्या के अनुपात में अब उनके रहने वाले जंगल का भी क्षेत्रफल कम हो गया है। इसका क्षेत्रफल समय रहते बढ़ाया जाना आवश्यक हो गया है साथ ही गैंडों की मानीटरिंग के लिए अत्याधुनिक साधन और सुरक्षा के लिए संसाधन उपलब्ध कराने की बात भी पार्क अधिकारी कहते हैं। यहां की समस्याओं का समाधान करने में न केंद्र सरकार गंभीर दिखाई देती है और न ही प्रदेश की सरकार कोई दिलचस्पी ले रही है। इससे व्याप्त तमाम अव्यवस्थाओं के कारण क्षेत्र में गैंडा और मानव के मध्य एक नया संघर्ष जरूर शुरू हो गया है। इसके बाद भी दुधवा पार्क प्रशासन के संरक्षित क्षेत्र के बाहर घूम रहे गैंडों की सुरक्षा एवं उनको फैंस के भीतर लाने के कतई कोई प्रयास नहीं किए जा रहे हैं। इनके साथ कभी भी कोई अनहोनी हो सकती है, इस बात से कतई इंकार नहीं किया जा सकता है।