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तीसरा मोर्चा अब फिर तीसरा मोर्चा-है कहाँ?

दिनेश सिंह

नई दिल्ली। तीसरा मोर्चा और फिर तीसरा मोर्चा। यह मोर्चा पिछले तीन दशक में कई बार चर्चा में आया,सत्ता में भी आया और विलुप्त हो गया। देश और प्रदेश में जब बड़ी राजनीतिक गतिविधयां होती हैं तो इंदिरा गांधी और राजीव गांधी का शासन काल जरूर सामने आताहै। इंदिरा गांधी देश में आपातकाल के खिलाफ दुष्प्रचार का शिकार हुईं तब उनको सत्ता से बेदखल करने के लिए एक मोर्चा बना था जो सत्ता में आया और बाद में इतनी बुरी तरह से विफल हुआ कि देश की जनता ने न केवल इंदिरा गांधी को फिर से देश की सत्ता सौंप दी बल्कि आपातकाल में उनके फैसलों को बिलकुल सही ठहराया।
इंदिरा गांधी ने देश को बीस सूत्रीय विकास का शानदार कार्यक्रम दिया जिसके अन्तर्गत आम आदमी से उद्योगपतियों तक के लिए कार्यक्रम थे। बदमाशी करने वालों के खिलाफ इंदिरा गांधी ने इसी कार्यक्रम को लागू करने में जो सख्त से सख्त कार्रवाई की थी उसे अन्याय का नाम दिया गया। आपातकाल में आम आदमी को कोई कष्ट नहीं था। अगर दुखी थे, परेशान थे, तो वो लोग थे जो चौबीस घंटे केवल घटिया राजनीति में या भ्रष्टाचार में लिप्त थे। यह मानना होगा कि इंदिरा गांधी के विकास के बीस सूत्रीय कार्यक्रम के मुकाबले आज तक कोई भी सरकार ऐसा कार्यक्रम देश के सामने पेश नहीं कर पाई है। अब तक जो भी सरकारें आई हैं उनके अधिकांश कार्यक्रमों को देश की जनता ने सिरे से खारिज किया है। यही कारण है कि आज देश गठबंधन सरकारों का सामना कर रहा है। जिससे देश को सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक विषमताओं का सामना करना पड़ रहा है।
सत्ता से बेदखल करने के बाद कितने कमीशन बैठाए गए लेकिन कोई भी कमीशन इंदिरा गांधी के शासन और उनके फैसलों पर उंगली नहीं उठा सका। आज बहुत से तीसरे मोर्चे के नेता आरोपों ही आरोपों से घिरे बैठे हैं। पश्चिम बंगाल की सरकार नंदीग्राम में उलझी हुई है और उसके नेता गंभीर आरोपों का सामना कर रहे हैं। यही नेता एक तरफ नंदीग्राम मामले में अपनी सरकार बचा रहे हैं दूसरी तरफ भारत के लिए अमरीका से होने वाले परमाणु समझौते का केवल इसलिए विरोध कर रहे हैं कि वह विदेशनीति पर अपना अधिकार और नियंत्रण समझते हैं। उनके पास इस समझौते का विरोध करने का जो तर्क है वह देशवासियों के गले नहीं उतर रहे हैं। इस गतिरोध के कारण केंद्र सरकार को जहां विदेशों में अपनी विश्वसनीयता पर उठ रहे सवालों का सामना करना पड़ रहा है वहीं यह आंतरिक मामलों में भी भारी दबाव में चल रही है। यही कारण हैं कि देश के सामाजिक. राजनीतिक आर्थिक और सुरक्षा से जुड़े मामलों में केंद्र सरकार अपने सहयोगियों के असहयोग के कारण बैकफुट पर खड़ी रहती है।
बात इंदिरा गांधी के शासन और तीसरे मोर्चे की हो रही थी। बहुत सारे ऐसे विपक्षी नेता हैं जो आपातकाल के खिलाफ तो थे पर बाद में उन्होंने आपातकाल को सही और आवश्यक ठहराया। देश की सार्वजनिक वितरण प्रणाली को दुरुस्त करने के लिए अगर जमाखोरों और कालाबाजारी करने वालों के खिलाफ डीआईआर जैसे कानून का प्रयोग किया गया तो क्या बुरा था? आज देश में आम जनता को क्या चाहिए? रोटी-कपड़ा, मकान, नमक, दाल? इन जनोपयोगी वस्तुओं की उपलब्धता की आज क्या स्थिति है? बच्चों के स्वास्थ्य के लिए इंदिरा गांधी ने बहुत योजनाएं शुरू की थीं आज उन्हें बांटे जाने वाले पुष्टाहार तक में कुपोषण फैलाने वाले तत्व पाए गए हैं। यानि इसमें भी घालमेल है। जमाखोर और मुनाफाखोर इनकी सप्लाई आर्डर प्राप्त करने के लिए एक दूसरे का खून खराबा करने को उतारू रहते हैं। ऐसों के खिलाफ कार्रवाई करना क्या बुरा था? आज आपातकाल की याद की जाती है तो इसलिए नहीं कि उसमें बुरा हुआ था?
सही पूछिये तो आज हम इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के शासन के कारण ही विश्व के शक्तिशाली देशों की कतार में खड़े हैं और अपनी बात को विश्व मंच पर उठा रहे हैं। विभिन्न मुद्दों पर दुनिया भारत की ओर देख रही है और भारत को तमाम देशों का समर्थन भी मिल रहा है। इंदिरा गांधी की तुलना ब्रितानिया की शक्तिशाली प्रधानमंत्री व तत्कालीन विश्वनेता कही जाने वाली मार्ग्रेट थैचर से की जाती थी। आज भी की जाती है। यह दर्जा इंदिरा गांधी को यूं ही हासिल नहीं हुआ। इसके पीछे उनके दूरदृष्टि, पक्का इरादा, दृढ़ता और अनुशासन’ की महत्वपूर्ण भूमिका रही।
इस सिद्धान्त के बल पर इंदिरा गांधी ने भारत को एक दिशा दी और भारत को विश्व मंच पर खड़ेहोना और बोलना सिखाया। विश्व में सर्वाधिक चर्चित और किसी भी बड़े राजनीतिक दल के लिए सबसे खतरनाक समझे जाने वाले ‘आपरेशन ब्ल्यू स्टार’ का फैसला इंदिरा गांधी के अलावा और कौन ले सकता था? इनके और राजीव गांधी बाद कौन ऐसा राजनेता है जिसने ऐसे महत्वपूर्ण फैसले लिये हों? देश में करगिल और संसद पर हमले का दुस्साहस इनके शासन में कोई नहीं कर पाया। ऐसे एक नहीं बल्कि सैकड़ों उदाहरण हैं जिनमें एक प्रचण्ड शासनकर्ता के रूप में कांग्रेस और इंदिरा गांधी ने या राजीव गांधी ने अपने को देश में स्थापित किया। इंदिरा गांधी ने अगर अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को सबक सिखाया तो उसमें भी उन्होंने राजनीतिक मान-मार्यादाओं को नहीं छोड़ा। यही कारण था कि आपातकाल के कारण सत्ता से बेदखल होने के बाद और देश में जनता पार्टी की सरकार के विफल होने के बाद देश की जनता ने फिर से इंदिरा गांधी को ही पसंद किया। उसके बाद से जितने भी कांग्रेस के खिलाफ मोर्चे बने वे कभी भी कोई शक्तिशाली शक्ल या विकल्प नहीं हो सके।
देश में जब गैर कांग्रेसी सरकारों का आना हुआ तो वे सरकारें भी आपसी कलह और अन्तर्द्वंद के कारण न तो चल सकीं न दोबारा सत्ता में वापस आ सकीं हैं। इस समय भी यही हाल है। केंद्र की यूपीए सरकार ने वामपंथियों के शामिल होने का देश भारी नुकसान उठा रहा है। वामपंथियों की टोली सरकार में रहकर ही विपक्ष की भाषा बोलती है और मनमाफिक निर्णय न होने से तीसरे मोर्चे की बात उछालने लगती है। देश में क्षेत्रीय दलों के बढ़ते प्रभाव के कारण पूर्णबहुमत की सरकारों का गठन मुश्किल होता जा रहा है। इसलिए अब तीसरे मांर्चे का शोर सुनते-सुनते कान पक गए हैं। अब तो यह लगने लगा है कि जब तीसरे मोर्चे का शोर सुनाई दे तो समझिए कि कोई सरकार अपने को परेशानी में समझकर अपनी सीमाएं सुरक्षित करने की कोशिश कर रही है।
सब जानते हैं कि देश के राजनीतिक समीकरण ऐसे हैं कि कोई भी राजनीतिक दल केंद्र सरकार को अस्थिर करने की कोशिश में नहीं पड़ सकता। वामपंथी चाहे जितना चिल्लाएं। वे जानते हैं कि कांग्रेस को अस्थिर करने का मतलब देश में भारतीय जनता पार्टी या प्रदेशों में शिवसेना जैसी सरकारों का मार्ग प्रशस्त करना है। जो लोग तीसरे मोर्चे के लिए बहुत उतावले हैं खुद उन्हें भविष्य में अपने बहुमत का पता नहीं है। कोई उनसे पूछे कि क्या वे स्वयं अपनी सरकारों का कार्यकाल पूरा कर सके? मोर्चे की बात तो बहुत दूर की है। तीसरे मोर्चे की पहल अभी तो सारे वामपंथी नहीं कर रहे हैं क्योंकि वे जानते हैं कि इस पहल में छीछालेदर के अलावा कोई दम नहीं है। मगर उन्हें तीसरे मोर्चे की आवाज उठाने वाले कुछ लोग मिल गए हैं जिससे केंद्र में वामपंथियों का दबाव की राजनीति का कारोबार भी अच्छी तरह से चल रहा है।

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