विकास मिश्रा
इटावा, उप्र। मेघों की गर्जना से आत्मविभोर होकर कर्णप्रिय आवाज़ के साथ नृत्य करने वाले मोर प्यास के मारे दम तोड़ रहे हैं। विकास के नाम पर उनके परंपरागत परिवास उजाड़कर प्रशासन ने उनका प्राकृतिक वातावरण नष्ट कर दिया है। वे जिसे अपना घर-आंगन समझते थे वह उन्हें पराया लग रहा है। उन्हें न पानी नसीब है और न वातावरण, इस कारण सारस के बाद राष्ट्रीय पक्षी मोर पर भी इटावा में मौत मंडरा रही है। यहां मोर का जीवन अब सुरक्षित नहीं रहा है और यदि इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो यह पक्षी भी वन्य जीवों की सुंदर प्रजातियों से गायब हो जाएगा। 'विकास' के नाम पर वन्य पक्षियों के प्राकृतिक जीवन में दखल से पहले सारस उजड़े और अब मोरों के प्यास से मरने का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। सौ से भी अधिक मोरों के मरने की ख़बर पूरे इटावा को है लेकिन उनके सुरक्षित जीवन के लिए प्राकृतिक संसाधनों को विकसित करने के लिए जिम्मेदार जिला प्रशासन को अभी तक शर्म नहीं आई है कि वह इस तरफ ध्यान दे।
प्यास से तड़पकर मर रहे मोरों को पीने का पानी नहीं मिल रहा है। जनसामान्य में उनकी दर्दनाक मौत पर प्रतिक्रिया हो रही है। करोड़ों रूपए की लागत से मनरेगा के तहत तालाब तो खोद डाले गए हैं लेकिन उनमें पानी नहीं है। एक फूहड़ तरकीब से जिला प्रशासन चंद मटको को रखवाकर मर रहे मोरों की प्यास बुझाने की कोशिश कर रहा है लेकिन यह पक्षी इतना सयाना है कि वह इन मटकों के पास जाते हुए संकोच करता है, उन्हें कोई जाल समझता है। उनके प्राकृतिक परिवास उनकी जीवन समृद्धि के परंपरागत स्रोत हैं जो विकास के नाम पर नष्ट किए जा चुके हैं। नकली तालाबों तक मोर पहुंच नहीं रहे हैं क्योंकि नए वातावरण में न उनके लिए पानी है और न सुरक्षा। इस भयानक गर्मी में पानी के बिना जब आदमी पागल हुआ जा रहा है तो यह तो वन्य पक्षी हुआ जोकि स्वयं ही अपने परिवास को खोजता है और उसे अनुकूल पाकर अपने परिवार को बढ़ाता है। कुछ ऐसा ही सारस के साथ भी हुआ है। इटावा के लोग अब सारस के जोड़ों की आवाज़ सुनने को तरसते हैं उनकी सामूहिक उड़ान देखने को तरसते हैं और अब लगता है कि मोर को भी देखने को तरस जाएंगे।
इटावा जनपद के ताखा, ऊसराहार, भरथना, बकेवर और जसवंतनगर क्षेत्र में मोरों के मरने का यह अनवरत सिलसिला जारी है। जब सौ से अधिक मोरों के मरने का शोर हुआ तो जिला प्रशासन और वन विभाग की कुम्भकरणी नींद टूटी और मोरों की प्यास बुझाने के लिये मटकों को खेतों मे रख कर खानापूर्ति कर दी गई जबकि जरूरत यह थी कि करोड़ों रुपयों की लागत से मनरेगा के तहत खुदवाये गये तालाबों में पानी का इंतजाम किया जाए, लेकिन पानी के लिए जो पैसा आया था वह जिले के अधिकारी, दलाल और नेता पी गए। कहने वाले कहते हैं कि तालाबों की छोड़िए इन अधिकारियों और इनके पिछलग्गुओं की आंखों तक का पानी सूख चुका है।
इटावा जनपद में एक झील हुआ करती थी सरसईनावर झील, जहां पर पक्षी आकर अपनी प्यास बुझाते थे, उसको भी खत्म करने मे जिला प्रशासन ने बड़ी बेशर्म भूमिका निभाई। पहले तो झील मे मनरेगा के तहत तालाबों की खुदाई करा दी गई और बाद में बाकी बची जमीन पर प्रशासन के अधिकारियों की साठ-गांठ से दबंगो ने अपने खेत बना लिये तब मोरों और सारसों को कहां पनाह मिल पाएगी? यह भारी चिंता का विषय है कि प्रशासन ऐतिहासिक झील को नहीं बचा पाया तो उसके बनाए तालाब कितने दिन के हैं? ऐसी भीषण गर्मी मे मोरों को पानी कहां मिलेगा इसका जवाब इनके पास नहीं है क्योंकि सरकार ने जो धन भेजा था उसका बंदर बाट हो चुका है।
करोड़ों की लागत से मनरेगा के तहत खुदे तालाबों मे पानी का न भरा जाना जिला प्रशासन के भ्रष्टाचार का जीता जागता उदाहरण है। मई और जून माह मे इतने मोरों की मौत इस बात का संकेत देती है कि जिला प्रशासन और वन विभाग की राष्ट्रीय पक्षी मोर मे कोई दिलचस्पी नही है जबकि यह दोनों विभाग जानते हैं कि ये इलाके मोर के प्राकृतिक परिवास हैं और इनकी संख्या सारस से भी कई गुना ज्यादा पाई गई है। यह भी उल्लेखनीय तथ्य है कि पशु-पक्षियों की जीवन रक्षा और उनके फलने-फूलने पर काम करने वाले एनजीओ भी इतनी बड़ी संख्या मे राष्ट्रीय पक्षी की मौत के बाद खामोश हैं और इनके नाम पर सरकार से मिलने वाली रकम से अपनी जेबें भरने मे लगे हैं।
एक जानकारी के अनुसार पंद्रह मई को 50 मोरों की मौत, 16 मई को 5 मोरों की मौत, 17 मई को 1 मोर की मौत, 18 मई को 1 मोर की मौत, 31 मई को 2 मोरों की मौत, 2 जून को 3 मोरों की मौत, 4 जून को 4 मोरों की मौत, 6 जून को 3 मोरों की मौत,16 जून को 4 मोरों की मौत हुई। इतना ही नही न जाने कितने मरे मोरों को तो कुत्ते ही नोच कर खा गये। इनके मरने का सिलसिला बदस्तूर जारी है। यह भी गौरतलब बात है कि यहां के बीहड़ इलाकों में जहां पर नदियां हैं जंगल हैं वहां इतनी संख्या में मोरों के मरने की कोई सूचना नहीं है जिससे यह पता चलता है कि इटावा के बाकी इलाकों में परंपरागत स्रोतों के तबाह कर देने से न केवल मोरों के जीवन जा रहे हैं अपितु अनेक अज्ञात प्रजातियां भी काल कलवित हो रही हैं।