Friday 1 January 2021 12:17:03 AM
सुषमा गौतम
लखनऊ। उत्तर प्रदेश के कानून और विधाई एवं आरईएस विभाग के मंत्री और भाजपा में कद्दावर ब्राह्मण चेहरा बृजेश पाठक सदैव से अपने समृद्धशाली राजनीतिक और सामाजिक सरोकारों, सरकार में शुचितापूर्ण कार्यशैली एवं दूसरी ओर एक संस्कारवान अनुशासित छात्र जीवन, एक आदर्श पारिवारिक और सह्दयी राजनेता के रूपमें लोकप्रिय हैं। इंडिया न्यूज़ समाचार चैनल के 'इंडिया लीडर' कार्यक्रम में वरिष्ठ पत्रकार अरविंद चतुर्वेदी को हाल ही में दिया एक साक्षात्कार काफी चर्चा में है और युवाओं को अनुकरणीय प्रेरणा देता है। इसमें एक राजनेता की व्यस्ततम और चुनौतियों से भरी जीवनशैली के बावजूद जनसामान्य आगंतुकों और परिवार के प्रति जिम्मेदारियों का सहज एवं समर्पण भाव सामने आता है जो उनके व्यक्तित्व को लोकप्रिय बनाता है। इस साक्षात्कार में उनकी पत्नी नम्रता पाठक भी मौजूद थीं। उन्होंने भी अनेक निजी और दूसरे प्रश्नों के खुलकर उत्तर दिए। अक्सर मीडिया और राजनेताओं के खींचतान भरे बहुतेरे साक्षात्कारों से यह साक्षात्कार बिल्कुल अलग लगता है। बृजेश पाठक से यह साक्षात्कार उनके छात्र और राजनीतिक करियर के एक प्रश्न से शुरू हुआ और सामाजिक जीवन मूल्यों एवं एक राजनेता की कार्यशैली पर केंद्रित होता गया।
बृजेश पाठक से उनके निजी जीवन पर पूछे गए सवालों के जवाब तो युवाओं को बहुत उत्कृष्ट प्रेरणा देते हैं। उनसे सवाल हुआ था कि क्या उन्होंने अपनी पत्नी को पहले देखकर शादी की थी और यह शादी किनकी सहमति से हुई थी? यह सवाल किसी भी राजनेता को सामाजिक या राजनीतिक विवाद में उलझा देने के लिए काफी है, किंतु जितना उत्सुकता भरा सवाल था उतना ही उसका उत्तर भी किसी युवा के पारिवारिक संस्कारों और जीवन मूल्यों से समृद्धशाली था, जिसमें उन्होंने भावी जीवनसंगिनी की भावनाओं और उसके सम्मान को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए युवाओं को एक सशक्त संदेश दिया। बृजेश पाठक सेसाक्षात्कार के क्रम में सहजभाव से एक सवाल उनकी पत्नी नम्रता पाठक से हुआ कि पाठकजी से उनकी कब शादी हुई और किसने तय कराई..? इसपर उन्होंने कहा कि 95 में शादी हुई, मेरे बड़े भाई भी उस समय लखनऊ यूनिवर्सिटी में थे, इनके मित्र भी हुआ करते थे, इनके कार्य व्यवहार और जीवनशैली को देखा करते थे, जब मैं बीए सेकंड ईयर में आई तब मेरे भाई इनके पास गए जहां ये रहा करते थे और सीधे न कहकर यह इनसे चर्चा की कि हमारी कज़िन सिस्टर है कहिए तो हम आपके लिए घर पर बात करें, इन्होंने उनसे कहा कि हम शादी के विषय पर तो कोई बात करते नहीं हैं, क्योंकि आजतक हमने की नहीं की है, अगर आपको बात करनी है तो पिताजी के पास जाइए, हमारे पांच भाई हैं तब वह सब लोग इनके पिताजी के पास पहुंच गए, इनके पिताजी जो कहते थे वही घर में होता था, जब शादी पर बातचीत हुई तो उन्होंने कहा कि ठीक है, जब निर्णय लूंगा तब बताऊंगा, हमारे भाई ने फिर इनसे कहा तो इन्होंने कहा कि हमारे पिताजी ही निर्णय लेते हैं, हमारे यहां लड़कियां देखी नहीं जाती हैं, वह निर्णय ले लेंगे तो हम शादी कर लेंगे...बृजेश पाठक से अगला सवाल हुआ कि क्या आपके पिताजी ने इस बारे में आपसे पूछा? बृजेश पाठक ने कहा कि हां! उन्होंने मुझसे पूछा कि तुम्हारी इच्छा क्या है तो मैंने उनसे कहा कि जो आपकी राय है वही मेरी राय है, फिर सहमति बन गई, कुंडली मिलाकर शादी हो गई।
नम्रता पाठक से फिर यह सवाल होता हैकि आपने नहीं कहा कि लड़का तो नेता है...इस पर नम्रता पाठक ने कहा कि इस पर मेरे स्कूल नवयुग में जरूर बवाल हुआ, यूनिवर्सिटी के प्रेसिडेंट थे काफी तेजतर्रार थे, मेरी टीचरों ने तो कुछ नहीं कहा बल्कि मेरी फ्रेंड्स ने कहा कि वह तो यूनिवर्सिटी के दबंग नेता हैं तुम्हारे घर वाले कैसे उनसे शादी कर रहे हैं उन्हें शादी नहीं करनी चाहिए, मगर मेरे घर भी वही निर्णय होता है जो मेरे पापा और बड़े भाई निर्णय लेते हैं...आपने पाठक जी को फोटो में देखा होगा?...नहीं मैंने इन्हें कभी नहीं देखा नम्रता पाठक ने उत्तर दिया। मेरे भाई तो इन्हें जानते ही थे...अच्छे हैं और कुछ उल्टा-सीधा खाते-पीते भी नहीं हैं...फिर परिवार में चाचियों में यह चल पड़ा कि पाठक और त्रिपाठी कैसे शादी करें, लेकिन मेरी मम्मी बड़ी समझदार थीं, उन्होंने संभाला, मेरी मम्मी पापा और भाई सब सहमत थे, इनके घर से कोई देखने नहीं आया था मुझे, इनके मित्रों की पत्नियां मुझे देखने आई थीं...बृजेश पाठक बीच में बोलते हैं कि हमारे तीन-चार फ्रेंड्स थे, उनकी पत्नियां गईं थीं, वो इसलिए कि अगर देखने की परंपरा ही निभानी है तो चले जाओ लेकिन मैं देखने नहीं जाऊंगा, क्योंकि मेरे अंदर यह था कि हम देखकर इंकार नहीं कर सकते थे और जब देखने से इंकार नहीं कर सकते तो शादी से पहले देखने से फायदा क्या? ब्रजेश पाठक कहते हैं कि किसी भी लड़की को देखकर फिर शादी से इंकार नहीं करना चाहिए, मैं इसके विरुद्ध हूं, क्योंकि मेरा यह मानना है कि लड़की कोई वस्तु नहीं है और माना जाता है कि जो सामाजिक संस्कार हैं, वह ईश्वर ने बनाए हैं, मैं सभी नौजवानों से कहना चाहता हूं कि शादी से पहले किसी भी लड़की को देखें नहीं और देखने के बाद इंकार न करें, चाहते हैं तो लड़की देखने की परंपरा निभा लें, फिर उसे मना मत करें, इससे उसके मनोभाव पर गलत असर पड़ता है क्योंकि जो उसके हृदय पर कुप्रभाव पड़ेगा वह उसे जीवनभर मिटा नहीं पाएगी, इसलिए कृपया ऐसा न करें।
साक्षात्कार में व्यक्त विचार और तथ्य यह पुष्टि करते हैं कि यह किसी राजनेता का बेबाकीपूर्ण जीवन दर्शन है जो दूसरों को कहीं ना कहीं उच्च प्रेरणाएं तो देता है। साक्षात्कार के सवालों में भी व्यवहारिक गुणवत्ता थी और किसी बेवजह की उठापटक में नहीं, बल्कि सहजता से बृजेश पाठक के व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों पर सवालों के महत्वपूर्ण उत्तर आए। बृजेश पाठक छात्र जीवन की राजनीति से लेकर कांग्रेस, बसपा के साथ रहकर और अब भाजपा में एक मंझे-मंझाए राजनेता हो गए हैं। आज वह न केवल योगी मंत्रिमंडल के प्रमुख मंत्रियों में एक हैं, बल्कि भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व के भी अत्यंत करीब माने जाते हैं, उन्हें उत्तर प्रदेश में भाजपा का एक अत्यंत प्रभावशाली ब्राह्मण चेहरा भी माना जाता है। इस साक्षात्कार में उन्होंने और उनकी पत्नी नम्रता पाठक ने विभिन्न विषयों पर खुलकर विचार प्रकट किए। उन्होंने बताया कि दोनों किस प्रकार अपनी सामाजिक राजनीतिक जिम्मेदारियों का मिल बैठकर कुशलतापूर्वक निर्वहन करते हैं। नम्रता पाठक उन्नाव जिला पंचायत की अध्यक्ष भी रही हैं। दोनों ने लॉकडाउन कालखंड में जनसामान्य के जरूरतमंद असहायों की बढ़-चढ़कर सहायता की है और एक समय ऐसा आया कि ये दोनों भी कोरोना संक्रमित हो गए। बृजेश पाठक सबसे कम उम्र के लखनऊ विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष चुने गए। यहीं से वे पूर्णकालिक राजनीति में आगे बढ़े और बहुजन समाज पार्टी से पहला लोकसभा चुनाव जीता।
बृजेश पाठक से सवाल हुआ कि आपका छात्र जीवन से राजनीति तक संघर्ष का बड़ा लंबा दौर रहा है, आप राजनीति में ही क्यों आए पिता चाहते हैं कि लड़का पढ़ लिखकर कोई नौकरी करे...पाठक जी ने कहा कि 1980 में हमने इंटर पास करके लखनऊ में विद्यांत हिंदू डिग्री कॉलेज में दाखिला लिया, बीकॉम फर्स्ट ईयर में दिन-रात क्लासेज लगा करती थीं, गांव से आया था, शाम को क्लास लगती थी तो बड़ी असुविधा होती थी, 1982 में हमने कान्यकुब्ज कॉलेज यानी केकेसी में अपना स्थानांतरण करा लिया, यहां से बीकॉम फाइनल किया, मित्रों की राय बनी कि एलएलबी किया जाए तो इससे रोज़गार भी सुनिश्चित हो सकेगा और पिताजी की भी ऐसी इच्छा बनी, यहां से हमने लखनऊ यूनिवर्सिटी में लॉ ज्वाइन किया, हम बड़ी मेहनत से इसकी तैयारी कर रहे थे कि इमरजेंसी के बाद अचानक 1986 में छात्र संघ चुनाव की घोषणा हो गई, 1975 में छात्र संघ चुनाव पर प्रतिबंध लगा था, क्योंकि हम गांव से आए थे, गांव के बच्चों का एक बड़ा समूह हमारे साथ रहता था, हमने चुनाव तो नहीं लड़ा, लेकिन वह चुनाव हमने पास से देखा, अगले वर्ष 1987 में जब चुनाव आया और हमारे मित्रों की इच्छा हुई तो उनमें एक साथी के पिताजी जिला न्यायाधीश थे, उनको चुनाव लड़ने के लिए तैयार किया गया तो उनके पिताजी ने कहाकि हमारे घर में कभी राजनीति नहीं हुई है, हम लोग न्याय परिवार से जुड़े हैं तो हमें चुनाव नहीं लड़ना चाहिए, अंत में छात्रों के ग्रुप में सामूहिक रूपसे तय हुआ कि बृजेश पाठक को चुनाव लड़ना चाहिए...बृजेश पाठक को बीच में रोककर उनसे प्रश्न हुआ कि आपके जीवन का टर्निंग प्वाइंट क्या यही है कि जज साहब का बेटा चुनाव लड़ गया होता तो शायद आप नेता नहीं होते? जी बिल्कुल नहीं होते बृजेश पाठक ने कहा। उन्होंने कहा कि हम लोग तो उन्हीं को चुनाव लड़ा रहे थे, 1987 में हम पहली बार विधि प्रतिनिधि चुने गए।
बृजेश पाठक से सवाल हुआ कि जब पिताजी को पता चला कि हमने पढ़ने भेजा था और नेतागिरी करने लगे तो उन्होंने क्या कहा? बृजेश पाठक ने उत्तर दिया कि जब बाबूजी (पिताजी) को पता चला कि हम चुनाव जीत गए हैं तो लखनऊ आकर उन्होंने हम लोगों को 50 रुपए दिए और बच्चों के बीच इस जीत को सेलिब्रेट कराया, पिताजी ने समझाया भी, लेकिन वह जानते थे कि हम दुर्व्यसनों से प्रारंभकाल से ही दूर रहे हैं, इसलिए उन्हें हमपर भरोसा था कि हम कभी कोई ग़लत काम नहीं करेंगे, उन्हें भरोसा हो गया था कि राजनीति करेंगे तो सुचिता से करेंगे। बृजेश पाठक ने बताया कि 1988 में भी चुनाव लड़े, लेकिन कुछ वोटों से हार गए, हमने मेहनत की और 1989 में उपाध्यक्ष चुन लिए गए, लखनऊ विश्वविद्यालय छात्र संघ का उपाध्यक्ष चुने जाने के कारण मुझे लखनऊ और लखनऊ के आसपास के जनपदों एवं पूर्वांचल के सभी जनपदों में भ्रमण करने और लोगों से मिलने का अवसर मिला,1999 में मैं लखनऊ विश्वविद्यालय छात्र संघ का अध्यक्ष चुन लिया गया, मैं तब सबसे कम उम्र का छात्रसंघ अध्यक्ष था, लिंगदोह कमेटी बाद में आई, उसमें यह था कि 25 वर्ष से अधिक उम्र का छात्र चुनाव नहीं लड़ सकता है, लेकिन उस कमेटी के आने से पहले ही मैं उसकी उम्र सीमा के दायरे में रहकर छात्रसंघ अध्यक्ष चुन लिया गया था, हमारे खिलाफ जो चुनाव लड़ रहे थे वह 35 या 40 की उम्र के प्रत्याशी थे, मेरे साथ जितने भी यंगस्टर्स थे उनमें अधिकांश अंडर ग्रेजुएट ही थे, बच्चों का बड़ा समूह मेरे साथ था, सबकी कृपा से मैं चुनाव जीता, देखिए कि जब तक गुरुओं का आशीर्वाद नहीं होता तब तक सफलता नहीं मिलती।
बृजेश पाठक ने कहा कि छात्र संघ चुनाव के लिए हम 1989 में छात्रों के घर-घर जाकर वोट मांगा करते थे, यानी देवरिया का बच्चा है तो देवरिया उसके घर जाते थे, गोरखपुर का बच्चा है तो उसके घर जाते थे, बस्ती, गोंडा, रायबरेली, महाराजगंज, देवरिया तक जाते थे, उस समय हमारे पास कोई गाड़ी भी नहीं होती थी, हम लोग मोटर साइकिलों से जाते थे, कभी-कभी तो उन मोटर साइकिलों में लाइट भी नहीं होती थी, रात के समय में बगैर लाइट के मोटरसाइकिल चलाना, ईश्वर की कृपा से जीवन का सफर अब तक अच्छा ही कटा है। बृजेश पाठक से सवाल हुआ कि आपका छात्र जीवन से राजनीति तक संघर्ष का बड़ा लंबा दौर रहा है, आप राजनीति में ही क्यों आए पिता तो चाहते हैं कि लड़का पढ़ लिखकर कोई नौकरी करे...बृजेश पाठक ने कहा कि 1980 में हमने इंटर पास करके लखनऊ में विद्यांत हिंदू डिग्री कॉलेज में दाखिला लिया, बीकॉम फर्स्ट ईयर में दिन-रात क्लासेज लगा करती थीं, गांव से आया था, शाम को क्लास लगती थी तो बड़ी असुविधा होती थी, 1982 में हमने कान्यकुब्ज कॉलेज केकेसी में अपना स्थानांतरण करा लिया, यहां से बीकॉम फाइनल किया, मित्रों की राय बनी कि एलएलबी किया जाए, इससे रोजगार सुनिश्चित हो सकेगा और पिताजी की भी ऐसी इच्छा बनी, यहां से हमने लखनऊ यूनिवर्सिटी में लॉ ज्वाइन किया, हम बड़ी मेहनत से इसकी तैयारी कर रहे थे कि अचानक 1986 में इमरजेंसी के बाद छात्र संघ चुनाव की घोषणा हो गई, 1975 में छात्र संघ चुनाव पर प्रतिबंध लगा था, क्योंकि हम गांव से आए थे, गांव के बच्चों का एक बड़ा समूह हमारे साथ रहता था, हमने चुनाव तो नहीं लड़ा, लेकिन वह चुनाव हमने पास से देखा, अगले वर्ष 1987 में जब चुनाव आया तो हमारे मित्रों की इच्छा हुई तो उनमें एक साथी थे जिनके पिताजी जिला न्यायाधीश थे, उनको चुनाव लड़ने के लिए तैयार किया गया तो उनके पिताजी ने कहाकि हमारे घर में कभी राजनीति नहीं हुई है, हम लोग न्याय परिवार से जुड़े हैं तो हमें चुनाव नहीं लड़ना चाहिए, अंत में छात्रों के ग्रुप में सामूहिक रूपसे तय हुआ कि बृजेश पाठक को चुनाव लड़ना चाहिए...
बृजेश पाठक को बीच में रोककर उनसे प्रश्न हुआ कि फिर आपके जीवन का यह टर्निंग प्वाइंट यही है कि जज साहब का बेटा चुनाव लड़ गया होता तो शायद आप नेता नहीं होते? जी बिल्कुल नहीं होता बृजेश पाठक ने कहा। बृजेश पाठक ने कहा कि हम लोग तो उन्हीं को चुनाव लड़ा रहे थे, इसके बाद 1987 में हम विधि प्रतिनिधि चुने गए। उनसे सवाल हुआ कि जब पिताजी को पता चला कि हमने पढ़ने भेजा था और नेतागिरी करने लगे तो उन्होंने क्या कहा? बृजेश पाठक ने उत्तर दिया कि जब बाबूजी (पिताजी) को पता चला कि हम चुनाव जीत गए हैं तो लखनऊ आकर उन्होंने हम लोगों को 50 रुपए दिए और बच्चों के बीच उन्होंने इस जीत को सेलिब्रेट कराया, उन्होंने समझाया भी लेकिन वह जानते थे कि हम दुर्व्यसनों से प्रारंभकाल से ही दूर रहे हैं, इसलिए उन्हें हमपर भरोसा था कि हम कभी कोई गलत काम नहीं करेंगे, उन्हें भरोसा हो गया था कि राजनीति करेंगे तो सुचिता से करेंगे। बृजेश पाठक ने बताया कि 1988 में वे चुनाव लड़े, लेकिन कुछ वोटों से हार गए, हमने मेहनत की और 1989 में उपाध्यक्ष चुन लिए गए, लखनऊ विश्वविद्यालय छात्र संघ का उपाध्यक्ष चुने जाने के कारण मुझे लखनऊ और लखनऊ के आसपास के जनपदों एवं पूर्वांचल के सभी जनपदों में भ्रमण करने का लोगों से मिलने का अवसर मिला, 1999 में मैं लखनऊ विश्वविद्यालय छात्र संघ का अध्यक्ष चुन लिया गया।
बृजेश पाठक कहते हैं कि तब मैं सबसे कम उम्र का छात्रसंघ अध्यक्ष था, लिंगदोह कमेटी बाद में आई, उसमें यह था कि 25 वर्ष से अधिक उम्र का छात्र चुनाव नहीं लड़ सकता है, लेकिन उस कमेटी के आने से पहले ही मैं उस उम्रसीमा के दायरे में रहकर छात्रसंघ अध्यक्ष चुन लिया गया था। वह बताते हैं कि हमारे खिलाफ जो लोग चुनाव लड़ रहे थे, वह 35 या 40 की उम्र के थे। बृजेश पाठक उस समय के चुनाव में एक समर्थक छात्र अरुण तिवारी जोकि आज पत्रकार हो गए हैं, उनकी एक दिलचस्प कविता भी सुनाते हैं और बताते हैं कि वह कविता उन उम्र दराज प्रत्याशी पर एक व्यंग्य थी। वह कहते हैं कि मेरे साथ जितने भी यंगस्टर्स थे, उनमें अधिकांश अंडर ग्रेजुएट ही थे उनका बड़ा समूह मेरे साथ था, सबकी कृपा से मैं वह चुनाव जीता, जब तक गुरुओं का आशीर्वाद नहीं होता तब तक सफलता नहीं मिलती, वह मुझे मिला। वह कहते हैं कि छात्र राजनीति हमेशा विश्वविद्यालय प्रशासन के खिलाफ होती है, वह भी यूनिवर्सिटी के वीसी के खिलाफ होती है, मैं बड़े फक्र से कह सकता हूं कि उस समय प्रोफेसर हरिकृष्ण अवस्थी लखनऊ विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर थे, उनका सानिंध्य मुझे मिला, वह चाहते भी थे कि मैं छात्रसंघ अध्यक्ष चुना जाऊं, उन्होंने मेरे कहने से यूनिवर्सिटी के छात्रों की फीस, छात्रावासों के अनेक कार्य किए। बृजेश पाठक ने उस दौरान प्राक्टर आफिस में पुलिस के एक सीओ से कहासुनी का एक गंभीर दृष्टांत सुनाया, जो वाइस चांसलर के हस्तक्षेप से समाप्त हो गया...
बृजेश पाठक से पूछा गया कि छात्र जीवन का यह संघर्ष राजनीति की मुख्यधारा में कैसे आया कांग्रेस ज्वाइन की और फिर दो अलग-अलग राजनीतिक दलों बसपा और भाजपा की राजनीति..? बृजेश पाठक ने कहा कि हम चाहते थे कि जो वंचित हैं, पीड़ित हैं, जिनको सदियों से समाज में हिस्सेदारी नहीं मिली है, उनको कैसे भी हम मेन स्ट्रीम में लाना चाहते थे, उनकी मदद के लिए हमें पावर चाहिए थी और पावर विधायक सांसद के पास ही होती है, मुझे लगता था कि येन केन प्रकारेण यह गोल अचीव करना है, उस गोल को अचीव करने के साथ-साथ मेरे मन में यह था कि कोई पीड़ित है तो मैं उसकी सहायता करूं, इसमें मैं 1987 से आज तक लगा हुआ हूं और जो भी लोग मेरे पास काम के लिए आते हैं, ये प्रभु के भेजे हुए लोग हैं और मुझे किसी भी प्रकार से उनकी सेवा करनी है। बृजेश पाठक से पूछा गया कि बहुजन समाज पार्टी में आपका बहुत लंबा वक्त रहा, लेकिन ऐसा क्या हुआ जो आपको पार्टी छोड़नी पड़ी? बृजेश पाठक कहते हैं कि बसपा या बहन जी से हमारे रिश्ते कभी खराब नहीं हुए, मुझे लगाकि भारतीय जनता पार्टी ही प्रदेश को बचा सकती है, भारतीय जनता पार्टी में हमारे गृहमंत्री अमित शाहजी जो उस समय भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी थे, उनसे हमारी बात हुई, जब मैंने भाजपा ज्वाइन की थी तो उस समय प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार थी, पूरे प्रदेश में हत्या लूटमार बलात्कार समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं का तांडव मचा हुआ था, भारतीय जनता पार्टी को आदरणीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने रीति-नीति दी, जिन्होंने दुनिया में भारत और भारत माता का नाम रोशन किया, मैंने तय किया कि मैं मनसा वाचा कर्मणा से भारतीय जनता पार्टी के साथ जुडूंगा और कार्यकर्ताओं की मदद से प्रदेश और देश की सेवा करूंगा, सेवा कर रहा हूं।
एक और सवाल हुआ कि वे प्रधानमंत्री के नेतृत्व में किस प्रकार का बदलाव देख पा रहे हैं राजनीति कैसे बदल रही है? बृजेश पाठक का कहना था कि 2004 में जब मैं पहली बार लोकसभा में चुनकर गया, उस समय जो मुद्दे थे, उनपर यदि गंभीरता से नज़र डालें तो प्रधानमंत्री जी ने लगभग सभी विषयों को हल करने का काम किया, मुझे अच्छी तरह याद है कि पाकिस्तान आए दिन भारत में घुसकर हमले करता था, एक बार तो मुंबई में जब हमला हुआ तो हमारे एक साथी बीएसपी के सांसद लालमणि जी उस होटल में थे, बसपा की पूरी स्टैंडिंग कमेटी वहां रुकी हुई थी, लालमणि जी वहां कमरे में थे और बाहर फायरिंग हो रही थी, मैं लगातार उनके संपर्क में था, हमने उनका ढाढस बंधाया। वह कहते हैं कि आज परिस्थितियां बदली हुई हैं, आज किसी भी देश की हैसियत नहीं है कि भारत की तरफ आंख उठाकर देख सके, आज दुनियां में भारत का नाम बड़े सम्मान से लिया जा रहा है, चाहे किसान हों, छात्र हों, नौजवान हों उनका और देश में औद्योगिक आर्थिक विकास बहुत तेजी से हो रहा है। एक और प्रश्न नम्रता पाठक से पूछा गया कि वह भी बृजेश पाठक जी के राजनीतिक और सामाजिक कार्यों में सक्रिय रहती हैं, उनके पास हजारों लोग आते हैं, इनके भी काम निपटाती हैं तो किस प्रकार सामंजस्य बैठाती हैं? नम्रता पाठक का कहना था कि हर चीज में सहयोग इन्हीं का रहता है, यही आगे बढ़ाने और काम करने की प्रेरणा देते हैं, महिलाओं को बाहर के समाज में निकालने से वहां की कठिनाइयों का पता चलता है, उनसे निपटने का अनुभव होता है...
नम्रता पाठक को बीच में रोककर बृजेश पाठक बोलते हैं कि जैसे दिनभर में 50 कार्ड आए तो 25 फैमिली कार्ड यह संभाल लेती हैं और बाकी 25 कार्ड मैं संभाल लेता हूं, समाज में कम्युनिकेशन गैप नहीं रहना चाहिए, समाज से वार्ताक्रम नहीं टूटना चाहिए, सोसाइटी से लगातार जुड़े रहना है। बृजेश पाठक कहते हैं कि वोट कोई साधारण काम नहीं है, लगता है कि बटन दबाने से वोट आ जाएगा, आपके पास 100 रुपए हैं तो पड़ोसी को 100 रुपए तो दे दोगे, लेकिन वोट नहीं दे पाओगे जबतक कि आत्मा नहीं कहेगी, वोट लेना लाखों आत्माओं को एक साथ लाना और एक बटन दबाने को प्रेरित करना इसमें मेरा मानना है कि यह एक ईश्वरीय कृपा है। बृजेश पाठक और नम्रता पाठक दोनों से गोविड में कामकाज और दूसरों की सहायता करने पर प्रश्न हुए, जिनमें उन्होंने बताया कि इस कार्य में घर के सारे सदस्य लगे रहे हैं, लाक डाउन में लोग जरूरी घरेलू वस्तुओं व दवाइयों तक को तरस गए, हम लोगों ने गरीब मरीजों को हॉस्पिटल तक भर्ती कराया...नम्रता पाठक में लीडरशिप का प्रश्न हुआ तो बृजेश पाठक का कहना था कि लीडरशिप कोई लाइसेंस नहीं होता है, जिसे आप बना सकते हैं, यह धीरे-धीरे स्वत ही आ जाती है, जब आप रोज उस काम में रहेंगे तो लोग लीडर मान लेते हैं, मेरा मानना है कि जो भी व्यक्ति हमारे घर आए तो उसको सम्मान मिलना चाहिए, उसका ससम्मान काम होना चाहिए, हमारे पास लोग इतनी बड़ी संख्या में आते हैं, यह सभी प्रभु के बंदे हैं...मैं उनका काम कर पाता हूं तो अपने को धन्य महसूस करता हूं।
बृजेश पाठक से एक और सवाल था कि न्यायालयों में बहुत सारे केसेस पेंडिंग है, इस पर उनका कहना था कि इसके लिए हमारी सरकार ने पहली बार बड़ी संख्या में जजों की नियुक्तियां की हैं, हमने 610 से अधिक पद जूनियर डिविजन सिविल जज के सृजित किए, उनकी परीक्षा कराई और उनको तैनाती भी दे दी गई है, 100 पद सिविल जज सीनियर डिविजन, 100 पद अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश स्तर के, 110 नई पारिवारिक अदालतें, 13 नई कमर्शियल कोर्ट, एनडीपीएस के लिए अलग से कोर्ट, मोटर व्हीकल एक्ट एक्सीडेंट क्लेम के लिए अलग से कोर्ट, इस तरह बड़ी संख्या में हमने जजों की नियुक्तियां की हैं और आप देखेंगे कि केसेज के निपटारे में जल्द ही असर देखने को मिलेगा। यह साक्षात्कार सुनने योग्य है इसे https://www.facebook.com/brajeshpathakup/videos/1059319227920100/ लिंक पर देखा जा सकता है।