लिमटी खरे
नई दिल्ली। खुले आसमान में गोदामों के नाम पर खंडहरों में हर साल लाखों टन अनाज सड़ता और नालियों में बहता रहता है, हर साल करोड़ों लोग दो वक्त की रोटी की जद्दोजहद में घुटते-मरते रहते हैं। ये दो तस्वीरें हैं भारत में भ्रष्टाचार और अव्यवस्था की। ब्रितानियों की गुलामी से मुक्ति मिले हुए छह दशक से ज्यादा का समय बीत चुका है। भारत का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि स्थितियां सुधरने के बजाय और ज्यादा बिगड़ ही रही हैं। सरकार की छत्रछाया में अन्न की बरबादी हो और सुप्रीम कोर्ट को इसमें आदेश देने पड़ें तो समझा जा सकता है कि सरकार अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा रही है। भूख-गरीबी से आम आदमी की मौत सरकार में बैठे भ्रष्टाचारियों की मौज बन गई हैं। सुप्रीम कोर्ट को धन्यवाद जिसने अन्न की बरबादी के जिम्मेदार गिरोह पर लाठी चलाई है जिनमें अब भगदड़ मची है। इन्हें शुरू में कोर्ट की भाषा समझ में नहीं आ रही थी जब सुप्रीम कोर्ट ने इन्हें आइना दिखाया तो अब ये कह रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन किया जाएगा। सुप्रीम कोर्ट का खाद्य मंत्रालय के लिए आदेश था कि सरकारी गोदामों में सड़ रहा अनाज गरीबों को मुफ्त में बांट दिया जाए और खाद्य मंत्रालय इस आदेश को सुझाव और आदेश की बीच की लड़ाई में फंसाए हुए था।
हर साल देश में लाखों टन अनाज प्रबंधन की लापरवाहियों से सड़ने पर सुप्रीम कोर्ट ने अपनी तल्ख नाराजगी जाहिर की थी और कहा था कि अगर सरकार अनाज को ठीक तरीके से संरक्षित नहीं कर सकती है तो वह उसे गरीब और भुखमरी के शिकार लोगों के बीच बटवा दे। कृषि प्रधान भारत देश में वैसे भी अनाज सड़ने या खराब होकर फेंके जाने को सबसे बड़ी बुराई के तौर पर देखा जाता है। अनाज के सड़ने की खबर से देश की सबसे बड़ी अदालत का आक्रोश लोगों को तो दिखा मगर सियासती केंद्रीय कृषि मंत्री और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार ने इसे हवा में उड़ा दिया और मीडिया को दोषी बताकर कह दिया कि खाद्यान्न सड़ने की खबरों को बढ़ा चढ़ा कर पेश किया जा रहा है। शरद पवार के कथन और राज्य सभा में कृषि राज्य मंत्री प्रोफेसर केवी थामस के वक्तव्य में भारी असमानता दिख रही है। केंद्रीय कृषि मंत्री का कहना था कि अनाज भले ही बर्बाद हो जाए पर उसे गरीबों में मुफ्त में नहीं बांटा जा सकता है। खुद कृषि मंत्री शरद पवार ने पिछले महीने ही लोकसभा को जानकारी दी थी कि 6 करोड़ 86 लाख रूपए मूल्य का 11 हजार 700 टन अनाज बर्बाद हो गया है।
कृषि मंत्रालय निर्दलीय सदस्य पी राजीव और केएन बालगोपाल के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहता है कि देश में एफसीआई के गोदामों में कुल 11 लाख 708 टन अनाज खराब हुआ है। एक जुलाई 2010 की स्थिति के अनुसार भारतीय खाद्य निगम के विभिन्न गोदामों में 11,708 टन गेंहू और चावल खराब हो गया है। पिछले साल 2010 टन गेहूं और 3680 टन चावल खराब हुआ था। सन् 2008 - 2009 में 947 टन गेंहू और 19,163 टन चावल बरबाद हुआ था। वर्ष 2007 - 2008 में 924 टन गेंहू और 32 हजार 615 टन चावल खराब हुआ था। इस तरह देखा जाए तो तीन सालों में देश के एफसीआई के गोदाम कुल 3881 टन गेंहू और 55 हजार 458 टन चावल खराब हुआ था। इस तरह इस साल 1 जुलाई तक खराब हुए अनाज को अगर मिला लिया जाए तो चार साल में देश में सरकारी स्तर पर कुल 71 हजार 47 टन अनाज यूं ही बरबाद हो गया है।
सुप्रीम कोर्ट के 12 अगस्त के आदेश को कृषि मंत्री शरद पवार ने कोर्ट की सलाह मानकर इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया। इससे नाराज शीर्ष अदालत ने साफ कर दिया है कि उसने अनाज के बारे में सरकार को सलाह नहीं दी है, यह कोर्ट का आदेश है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सरकार बीपीएल, एपीएल, एएवाई लाभार्थियों को 2010 के लिए उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर नया सर्वेक्षण कराए और उतनी ही मात्रा में अनाज खरीदे जितना वह बचाकर रखने में सक्षम है। कोर्ट ने अपने ताजा आदेश में यह भी स्पष्ट कर दिया है कि गरीबी रेखा से ऊपर के लोग सब्सिडी पर अनाज लेने के पात्र नहीं होंगे और यदि सरकार इन्हें लाभ पहुंचाना चाहती ही है तो यह लाभ उन परिवारों को दिया जाना चाहिए जिनकी सालाना आय दो लाख रूपये तक है। केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार को अब यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत में न्यायपालिका को सर्वोच्च स्थान दिया गया है, हर देशवासी का यह नैतिक दायित्व है कि वह अदालत के हर फैसले का पूरा पूरा सम्मान करे।
संसद में इस मामले को लेकर गर्मा गरम बहस भी छेड़ दी गई थी। विपक्ष ने सरकार को आड़े हाथों लेकर स्पष्टीकरण तक मांग डाला। शरद पवार का यह वक्तव्य भी बचकाना ही माना जाएगा कि सरकार सुप्रीम कोर्ट के आदेश की कॉपी हासिल करने का प्रयास कर रही है, इसके बाद कोर्ट की मंशा के अनुरूप ही सरकार कदम उठाएगी। सुप्रीम कोर्ट ने अतिरिक्त सालीसिटर जनरल की उपस्थिति में ही सरकार की ख़बर ली थी, एडीशनल सालीसिटर जनरल चाहते तो तत्काल ही उन्हें कोर्ट के आदेश की प्रति उपलब्ध हो जाती। देखा जाए तो आजाद भारत में जनता की आवाज, संसद या विधानसभा को बनना चाहिए, किन्तु विडम्बना यह है कि ये दोनों ही अपने दायित्वों के निर्वहन में अक्षम प्रतीत हो रहे हैं, इसका कारण जनता के प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर चुने गए नुमाईंदों की बदलती प्राथमिकताएं हैं।
जनता अपना अमूल्य वोट देकर जिन्हें चुनती है, जनता को चुनाव के वक्त लोक लुभावने वायदों से पाट देने वाले नुमाईंदे जीतने के बाद जनता के जनादेश ही सबसे पहले धज्जियां उड़ाकर अपने निहित स्वार्थों को प्राथमिकता देते हैं। सत्तर के दशक तक जनता के दुख दर्द के लिए इन सदनों में देश्ा की जनता की समस्याओं के प्रति हमदर्दी और संवेदनशीलता दिखाई पड़ती थी, तब देश में पर्याप्त संसाधन भी नहीं थे, किन्तु अब तो सदन में बैठे जनता के नुमाईंदे करोड़पति और अरबपति हैं एवं देश में संसाधन भी हैं लेकिन सरकार के अधिकांश मंत्री और जनप्रतिनिधि निष्ठुर और बेईमान होते जा रहे हैं। देश की शीर्ष अदालत के फैसले को केंद्रीय मंत्री शरद पवार ने जिस तरह हवा में उड़ाया और बाकी सांसद चुप्पी साधे बैठे रहे उससे लगता है कि इसके पीछे भी कोई गठजोड़ है जिसकी नीयत कुछ और है। चुने हुए नुमाईंदों को शरद पवार के केंद्रीय कृषि मंत्री रहते हुए सड़े अनाज का ब्योरा मांगना चाहिए था।
दरअसल शरद पवार की प्राथमिकता क्रिकेट हो चुकी है। पिछले कई सालों से पवार ने अपना पूरा पूरा ध्यान देश की बजाए क्रिकेट में लगाया हुआ है। उनके पास जन समस्याओं और जनता से जुड़े अन्न की बरबादी देखने और उसे रोकने के लिए समय नहीं है बल्कि बरबाद अन्न पर टकटकी लगाए बैठे दलालों से मिलने और इसमें उनके मुनाफे की तरफ ज्यादा दिखाई देता है। शरद पवार अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट परिषद जैसी मलाईदार संस्था के अध्यक्ष भी हैं, किन्तु लाल बत्ती का रूतबा और मोह उनसे छोड़ा नहीं जा रहा है। कृषि विभाग भी देश का अत्यंत महत्वपूर्ण विभाग है जिसमें वे बने रहना चाहते हैं उनका अनाज के संबंध में आया बयान उनका मंतव्य समझने के लिए काफी है। शरद पवार एक तरफ प्रधानमंत्री से अपना मंत्रालय बदलने की बात कहते हैं और मंत्रालय न बदल पाने की स्थिति में शीर्ष अदालत के फैसले को सलाह का रूप देने पर तुले हुए हैं आखिर यह क्या माजरा है?
कहा जा रहा है कि अब पवार जैसे राजनेता को मंत्रिमण्डल से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाना चाहिए और अनाज के सड़ने के पीछे की असली कहानी की भी जांच होनी चाहिए ताकि ऐसे चेहरे बेनकाब हों जो किसी न किसी कारण से अन्न को ठिकाने लगाने का धंधा कर रहे हैं। शरद पवार के गृह राज्य में गरीब किसान एक के बाद एक आत्महत्या करते रहे हैं।, महाराष्ट्र में उनकी और कांग्रेस की जुगल बंदी की सरकार है और केंद्र में वे खुद कृषि मंत्री हैं ही। इसके बावजूद सब कुछ होता रहे यह बात किसी के गले नहीं उतरती। ये सब हालात देखकर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि गरीब गुरबे, आत्महत्या करते किसान, आधे पेट सोते आम भारतीय पवार के लिए चिंता का विषय कभी नहीं रहे हैं।
केंद्रीय स्तर पर अनाज के भंडारण के लिए वेयर हाउस बनाने के लिए न जाने कितनी सुविधा, सब्सिडी केंद्र सरकार ने दी है। अनेक स्थानों पर वेयर हाउस आज भी कागजों पर ही बने दिखाई दे रहे हैं। नेताओं और ऊंचे संपर्क के दलालों ने सरकारी इमदाद का बंदरबांट तबियत से किया है। क्या कभी सरकारी मदद से बने वेयर हाउसों का मौका मुआयना कर दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की गई। हर जिले में तैनात जिला कलेक्टर अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी ही होते हैं, जो सीधे सीधे कार्मिक मंत्रालय (डीओपीटी) के अधीन आते हैं। केंद्र सरकार अगर चाहे तो दो माह की निश्चित समयावधि देकर जिलों के कलेक्टर्स को आदेशित कर वस्तुस्थिति का पता लगवाकर गफलत करने वालों के खिलाफ कार्रवाई करवाए तो दूध का दूध पानी का पानी हो सकता है।