लिमटी खरे
नई दिल्ली। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे और राघोगढ़ के राजा दिग्विजय सिंह की ज़ुबान फिसल रही है या वे किसी योजना के तहत ऐसी बयानबाज़ी पर उतर आए हैं जैसी हर एक राजनीतिक दल में कुछ सड़कछाप नेता करते रहते हैं? वे अपने ही दल में किसी उकसाऊ राजनीति के शिकार तो नहीं हो रहे हैं? या वे कांग्रेस में ऊब गए हैं जिसके बाद कोई नेता 'मैं नहीं तो तू नहीं' की रणनीति पर उतर आता है? वे अपने ही दल में मुंह फेरकर हंसी के पात्र तो बन ही चुके हैं साथ ही वह उस हासिये पर भी पहुंच चुके हैं जहां उनकी न हिंदुओं में उपयोगिता बची है और न ही कांग्रेस को उनकी कार्यशैली से मुसलमानों वोटों का कोई लाभ मिलने वाला है। इन दोनों वर्गों में दिग्विजय सिंह की छटपटाहट भरी राजनीतिक चाल को आसानी से पकड़ लिया गया है, इसीलिए उनसे सवाल पूछा जा रहा है कि आखिर राजनीति में वे कहां खड़े हैं और वे जो कर रहे हैं उसमें उनके लिए राजनीतिक संकट आने पर क्या कांग्रेस उनके साथ खड़ी रह पाएगी?
यदि कांग्रेस का इतिहास उठाकर देखा जाए तो इस प्रकार के अनेक नेता गुमनामी में जा चुके हैं। कांग्रेस ने पहले उनका भरपूर इस्तेमाल किया और जब उसकी लपटे कांग्रेस की तरफ आई तो अपने बचाव में कांग्रेस ने सबसे पहले उसी को उन लपटों के हवाले कर दिया यानि न बांस रहा और न बांसुरी। कई दृष्टांत ऐसे हैं जो कांग्रेस की इस राजनीति को सहजता से स्थापित करते हैं। इसके शिकार कांग्रेस के दिग्गज नेता अर्जुन सिंह भी हो चुके हैं किंतु वे एक कदम चलते थे तो बीस कदम आगे की सोच लेते थे। उन्होंने इसी राजनीतिक चतुराई से अपने को लंबे समय तक बचाए रखा और जब उनकी उपयोगिता शून्य की ओर बढ़ी तो अर्जुन सिंह को भी सड़क दिखा दी गई। वैसे भी अर्जुन सिंह की भी उपयोगिता उस समय खतम हो गई थी जब उनको बसपा के एक मामूली कार्यकर्ता ने लोकसभा चुनाव में उन्हें पराजित कर दिया था इसमें यह अलग बात है कि वहीं के कांग्रेसियों ने भी उस बसपाई को जिताने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। दिग्विजय सिंह और अर्जुन सिंह की राजनीति में फर्क इतना है कि काफी समय तक उनके हर बयान के साथ समूची कांग्रेस खड़ी दिखाई देती थी, किंतु दिग्विजय सिंह के साथ ऐसा होता नहीं दिख रहा है। अनेक आशंकाएं दिग्विजय सिंह पर मंडरा रही हैं क्योंकि वे अपने बयानों के बाद अकेले ही नज़र आ रहे हैं। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव बनने के बाद से वे लगातार विवादस्पद बयान देते और फिर उनसे पलटते आ रहे हैं?
मुंबई में ताज होटल के हमलावरों से मोर्चा लेते हुए शहीद हुए एटीएस चीफ हेमंत करकरे का ही मामला लिया जाए। दिग्विजय सिंह का पहले कहना था कि करकरे ने उन्हें फोन किया था, और कॉल रिकार्ड पेश करते वक्त फरमा रहे हैं कि उन्होंने ही करकरे को पहले कॉल लगाई थी। आश्चर्य तो तब होता है जब उनका फोन एटीएस के मुंबई स्थित मुख्यालय में शाम पांच बजकर 44 मिनट पर पहुंचता है, वह भी इंटरनेट पर एटीएस के पीबीएक्स नंबर पर। कॉल रिकार्ड बताता है कि इस नंबर पर 381 सेकेंड बात हुई है। सवाल उठता है कि जब उस दिन दोपहर को ही मुंबई में ताज होटल पर आतंकवादियों ने कब्जा जमा लिया था, तब क्या एटीएस चीफ करकरे के पास आतंकियों से निपटने और रणनीति बनाते हुए इतना समय था कि वे मोबाइल या फोन पर दिग्विजय सिंह से खुद को हिंदूवादियों से मिलने वाली धमकियों का दुखड़ा रोएं? इसके अलावा दिग्विजय सिंह खुद यह भी स्वीकार कर चुके हैं कि वे करकरे से कभी मिले भी नहीं थे, तब करकरे क्या पहली ही बातचीत में उनसे अपने मन की ऐसी बातें कह गए होंगे? दिग्विजय सिंह पहले तो कॉल रिकार्ड नहीं मिलने की बात कर रहे थे? उन्होंने कौन सी जादू की छड़ी से रिकार्ड तलब कर लिया?
इसके बाद उन्होंने महाराष्ट्र के गृह मंत्री आरआर पाटिल से माफी की मांग करने में भी देरी नहीं की। वे भूल गए कि इस मांग का असर कहां तक जाएगा। इसका एनसीपी और कांग्रेस के संबंधों पर तो कोई असर दिखाई नहीं दिया अलबत्ता दिग्विजय सिंह जरूर अलग-थलग पड़ गए हैं। भाजपा के वरिष्ठ नेता वेंकैया नायडू के इस दावे में दम लगता है जिसमें उन्होंने कहा है कि कांग्रेस ने दिग्विजय सिंह को एक मिशन पर लगाया हुआ है जिसका मकसद भ्रष्टाचार से लोगों का ध्यान बांटना है। हिंदू आतंकवादियों वाले बयान से दिग्विजय सिंह क्या हिंदुस्तान के मुस्लिम समाज के हीरो बन गए हैं? देश-विदेश के किसी भी राजनेता ने या पाकिस्तान को छोड़कर किसी भी देश ने ऐसा बयान नहीं दिया। जैसाकि कुछ समय के पूर्व तक दिग्विजय सिंह की छवि कुछ और थी क्योंकि उन जैसे नेताओं के व्यक्तित्व से ऐसे बयान और आरोप बिल्कुल भी मेल नहीं खाते हैं।
उल्लेखनीय है कि मुंबई आतंकी हमले के बाद शिवराज पाटिल को केंद्रीय गृहमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ी थी। महाराष्ट्र में सियासत करने वाले अब्दुल रहमान अंतुले ने भी मुंबई हमले पर विवादस्पद बयान दिया था जिससे कांग्रेस को अंतुले से किनारा करना पड़ा था। यदि आपको याद हो तो देश के बहुचर्चित शाहबानो तलाक मामले में इसी कांग्रेस ने राजीव गांधी मंत्रिमंडल में शामिल केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान से पहले तो तलाक के खिलाफ बयान दिलवा दिया और जब इस पर तूफान उठा तो कांग्रेस ने आरिफ मोहम्मद खान के बयान से अपने को अलग कर लिया। यही नहीं केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान से इस्तीफा ले लिया गया और शाहबानों मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को संसद में संशोधन विधेयक के जरिए प्रभावहीन कर दिया गया। इस घटनाक्रम में आरिफ मोहम्मद खान जैसा दिग्गज और योग्य लीडर निपट गया। वह दिन और आज का दिन है आरिफ मोहम्मद खान देश तो छोड़िए अपने राज्य उत्तर प्रदेश और अपने ही जिले बहराइच के राजनीतिक परिदृश्य से ही ओझल हो चुके हैं। कांग्रेस को इस बात का कोई पछतावा नहीं है कि उसने आरिफ मोहम्मद खान को शाहबानो मामले में बलि का बकरा बनाया। कांग्रेस अब आरिफ मोहम्मद खान का नाम भी लेने से डरती है, उन्हें कांग्रेस में वापस लेने की बात तो बहुत दूर है।
वे यह जानते हुए भी कि यह कांग्रेस है जिसमें डूब जाने वाले या डुबो दिए जाने वाले का पता नहीं चल पाया ऐसी राजनीतिक गलतियां करते जा रहे हैं जिनका कांग्रेस साथ देने वाली नहीं है। अर्जुन सिंह का मध्य प्रदेश की चुरहट लाटरी जांच ने भी हर वक्त पीछा किया है और जब भी अर्जुन सिंह थोड़ा तेज चले तुरंत इस लाटरी की फाइल खोल दी गई। अनेक बार चुरहट लाटरी कांड को अर्जुन सिंह के खिलाफ इस्तेमाल किया गया है। यूं तो जैन हवाला मामले में कांग्रेस के दिग्गज नेताओं को अपनी सरकारी कुर्सियों से हाथ धोना पड़ा था किंतु वह भ्रष्टाचार से संबंधित मामला था जिसमें सामूहिक रूप से नेताओं की बलि हुई थी लेकिन दिग्विजय सिंह और आरिफ मोहम्मद खान का मामला इनसे भिन्न है। इसमें एक नेता मुसलमानों की नज़रों में सदा के लिए गिराया गया और दूसरा नेता हिंदुओं की नज़रों में नाहक ही विलेन बन रहा है जिसे मुसलमान भी गले लगाने को तैयार नहीं हो सकते क्योंकि वे समझते हैं कि दिग्विजय सिंह ने हेमंत करकरे या हिंदू संगठनों को लेकर ज़हरीले बयानों का क्या मकसद है।
इस तरह की राजनीति में पड़ने का खामियाजा कांग्रेस भी बुरी तरह भुगत चुकी है तब भी दिग्विजय सिंह ने सबक नहीं लिया। पूरा देश जानता है कि अयोध्या में राम जन्म स्थान के विवादित स्थल पर पहले तो राजीव गांधी ने शिलान्यास करा दिया जिससे देश का हिंदु रातों-रात हिंदू समाज भाजपा से किनारा कर कांग्रेस की तरफ जा खड़ा हुआ और मुसलमानों में इसे लेकर हुए विवाद से डरकर शिलान्यास रूकवा दिया गया। इसका नतीजा यह हुआ कि शिलान्यास कराने से मुसलमान कांग्रेस से भाग गए और शिलान्यास रूकवाने से जो हिंदू समाज कांग्रेस की ओर झुका था वह भी भाग गया। कांग्रेस को दोनों में कोई नहीं मिला। कांग्रेस ने इसका असर अपने लोकसभा चुनाव पर भी देखा इसके बाद कांग्रेस अब दूसरे दलों की मोहताज बनकर रह गई है। आज भी मुसलमान अयोध्या मामले के लिए शिलान्यास को ही जिम्मेदार मानते हैं जोकि राजीव गांधी ने कराया था। कांग्रेस के ये वो फैसले हैं जिनसे कांग्रेस ने अपना ही बंटाधार किया है। राजनीतिक विशलेषणकर्ता कह रहे हैं कि दिग्विजय सिंह, आरिफ मोहम्मद खान की तरह ही कांग्रेस की एक प्रयोगशाला बन रहे हैं जो आने वाले समय में न घर के होंगे और न घाट के।भारतीय जनता पार्टी ने भी कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह के बयानों की तीखी निंदा करते हुए उन्हें देशद्रोही ताकतों के हाथों की कठपुतली बताया है। भाजपा ने कहा कि हिंदू, हिंदुत्व, भगवा और संघ परिवार को बदनाम कर कांग्रेस महासचिव एक वर्ग विशेष को खुश करना चाहते हैं, वे आगामी चुनावों में वोटों की तुष्टिकरण की नीति के चलते ही अर्नगल बयान दे रहे हैं। भाजपा ने दिग्विजय सिंह को एक चुका हुआ नेता बताते हुए कहा है कि गुजरात, विकास के मामले में केवल कांग्रेस शासित राज्यों से ही नहीं अपितु विदेशों में ही प्रतिष्ठा हासिल कर चुका है। गुजरात को बदनाम करने के लिए दिग्विजय सिंह की बेतुकी बात नजरअंदाज करने की बात कहते हुए भाजपा प्रवक्ता ने कहा कि उन्होंने बटाला हाउस कांड पर भी संदेह जाहिर कर सुरक्षा बलों के मनोबल को तोड़ने का काम किया है।