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कोसीबाई से फिरंगी लेखक का यह फरेब!

सोमदत्त शास्त्री

डिंडौरी, (मध्य प्रदेश-छत्तीसगढ़ की सीमा) काया के पिंजरे में कैद हंसा-सी फड़फड़ाती वह पवित्र आत्मा, जो जीवन भर एक फिरंगी लेखक की बेवफाई और जमाने भर की रूसवाई का दंश सहती रही, अंतत: अनंत में विलीन हो गई। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के सीमांत डिंडौरी जिले के धुर जंगलों में बसे गुमनाम गांव रैतवार की कोसीबाई को उसका प्रारब्ध डॉ हैरी वारियर एल्विन जैसे महान शोधकर्ता लेखक तक खींच ले गया था, जो बाद में उसके लिए परम छलिया सिद्ध हुए। कैशोर्य काल के उस अत्यल्प साहचर्य के रिश्ते को कोसीबाई ने 22 दिसंबर 2010 को पंचतत्व में विलीन होने तक पूरी शिद्दत से सिर-माथे ढोया।

विश्व प्रसिद्ध इस अंग्रेज लेखक पति का छल-प्रपंच, दो जवान बेटों के असमय विछोह की पीड़ा और इस सबसे बढ़कर गुरबत और जहालत भरी पहाड़ सी जिंदगी। काले कोस की तरह गुजरे सौ बरस में कोसीबाई ने हर्ष-विषाद, यश-अपयश, उद्वाम प्रेम और अकूत घृणा के ढेरों रंग देखे, उन्हें भोगा और सहा। आए दिन मीडिया उस पर रोचक समाचार कथाएं रचा करता था, पर वह उन्हें पढ़ना नहीं जानती थी। खुद पर बनी डाक्यूमेंट्री फिल्में भी वह इसलिए नहीं देख सकती थी, क्योंकि उसने लंबे जीवन में न छोटा पर्दा देखा था, न बड़ा पर्दा। बावजूद इसके वह अपने आसपास के गांवों में पूजित थी, मगर उसकी शवयात्रा में चंद आदिवासी ही आए। उसे हर कोई जानता है मगर प्रशासन का भी कोई अधिकारी उसके मरने में नहीं आया।

कोसीबाई की पृष्ठभूमि यहां ही नहीं बल्कि मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में किसे नहीं मालूम है? एक विदेशी के संपर्क में आना ही उसकी पहचान के लिए काफी है। डिंडौरी जिले के करंजिया विकासखंड के रैतवार गांव की आदिवासी महिला कोसीबाई, सुप्रसिद्ध लेखक डॉ हैरी वारियर के संपर्क में तब आई थी, जब वे देश की आदिम जातियों के रहन-सहन, रीति-रिवाज को बिल्कुल नजदीक से देखने और अध्ययन करने इस इलाके में पहुंचे थे। उस वक्त कोई तेरह बरस की अनपढ़ भोली-भाली आदिवासी बाला से उन्होंने आदिवासी रीति-रिवाजों के साथ विवाह किया और पास के ग्राम पाटनगढ़ में अपना अध्ययन एवं शोधकेंद्र स्थापित कर शोध में जुट गए। समझा जाता है कि 1940 के अप्रैल महीने में कोसीबाई से वारियर एल्विन ने शादी की थी। वारियर एल्विन कोई बारह साल तक महाकौशल अंचल के वनग्रामों में रहे थे। सन् 1964 में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें शिलांग भेजा था और बाद में यहीं उनकी मृत्यु भी हो गई थी, लेकिन वारियर एल्विन की मृत्यु की खबर भी दो बच्चों के साथ मुफलिसी में बसर कर रही कोसीबाई को पंद्रह साल बाद जंगलात के अफसरों के जरिए मिली थी।

आदिवासियों के रहन-सहन, उनके अंधविश्वासों, परंपराओं और दैनिक क्रियाकलापों पर आधारित कुल 26 पुस्तकों का सृजन वारियर एल्विन ने किया था। ये पुस्तकें विश्व में प्रसिद्ध हुईं। उनके शोध कार्यों के प्रशंसकों में पंडित जवाहर लाल नेहरू, महात्मा गांधी, आचार्य कृपलानी और जमनालाल बजाज जैसी विभूतियां शामिल थीं। पाटनगढ़ में उन्होंने एक झोपड़ी में अपना निवास बनाया और लालटेन की रोशनी में पुस्तकों का लेखन कार्य किया, कुष्ठ रोगियों के इलाज के लिए अस्पताल और शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए स्कूल खोले। डॉ एल्विन शीघ्र बड़े भैया के नाम से आदिवासियों के बीच में प्रख्यात हो गए।

इस एपिसोड की सबसे दुखद बात तो यह है कि इतना सब करने के बाद अनपढ़, अज्ञानी कोसीबाई से शादी रचाने वाले वारियर एल्विन अपना शोध कार्य पूर्ण कर दिल्ली चले गए तो फिर लौटे ही नहीं। खेलने-खाने की उम्र में फरेबपूर्वक सुहागन बना दी गई। अनपढ़ कोसीबाई को कानून-कायदे का भी इल्म नहीं था इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि तब कोलकाता हाईकोर्ट ने कोसीबाई को सुने बगैर वारियर एल्विन के पक्ष में तलाकनामा दे दिया और 25 रूपए महीना गुजारा भत्ता मंजूर कर दिया, जो कोसीबाई को लंबे समय तक नहीं मिला। पहले से ही मान-सम्मान से लदे वारियर एल्विन को भारत सरकार ने नागालैंड का राज्यपाल भी नियुक्त किया। अपनी आदिवासी पत्नी को छोड़कर जाने के बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर देखा नहीं और न ही उसकी कोई मदद की।

कोसीबाई ने उस वक्त सरकार को अपनी ओर से इस दुखद घटना की जानकारी दी जिसके बाद केंद्र सरकार ने उसे प्रतिमाह पांच सौ रूपये और उसके बाद सात सौ, फिर आठ सौ रूपये और वर्तमान समय में एक हजार रूपए की आर्थिक सहायता पेंशन प्रदान कर दी। कोसीबाई से शादी के बाद डॉ एल्विन के दो पुत्र हुए। इनमें से एक का नाम जवाहर लाल और दूसरे का नाम विजय एल्विन रखा गया। इन दोनों पुत्रों की मृत्यु भी असमय ही हो गई। दोनों पुत्रवधुएं 55 वर्षीय फूलमती एवं 45 वर्षीय शांतिबाई, कोसीबाई पर आश्रित रहीं। विधवा शांतिबाई के दो पुत्र 25 वर्षीय प्रमोद, 21 वर्षीय अरूण और एक 26 वर्षीय पुत्री आकृति हैं।

कोसी की पार्थिव देह को उनके पोते प्रमोद ने ही मुखाग्नि देकर उसका दाह संस्कार किया। बताते हैं कि कोसीबाई को छोड़कर डॉ एल्विन ने दो अन्य आदिवासी महिलाओं से भी शादी रचाई थी और बाद में वे कोसी की तरह उन्हें भी बेसहारा छोड़कर चले गए थे। उन सभी आदिवासी महिलाओं ने अपने जीवन के शेष दिन गरीबी, बदहाली में व्यतीत किए। साक्षात्कारों के दौरान कोसीबाई ने अपनी अंतर्व्यथा प्रकट करते हुए कहा था कि डॉ एल्विन ने उनके एवं उनके परिवार के साथ एक क्रूर मजाक और धोखा किया है। आदिवासी समाज की संस्कृति पर शोध कार्य पूर्ण करने के बाद उन्होंने तो देश और विदेश में नाम कमाया, परंतु कोसीबाई जिंदगी को नर्क बना दिया।

पाटनगढ़ के शोध संस्थान केंद्र में आज भी डॉ एल्विन की आदिवासी पुरूष एवं महिलाओं की मिट्टी से निर्मित अधिकांशत: नग्न अवस्था की कलाकृतियां संग्रहालय में संजोकर रखी गई हैं। मुंबई एवं जबलपुर से जाने-माने मीडियाकर्मी नागरथ ने कोसीबाई के जीवन वृत्तांत पर एक डाक्यूमेंट्री फिल्म का निर्माण भी किया था। अब कोसीबाई वारियर एल्विन के किताबों की पात्र बनकर भले रह गई हों, लेकिन रैतवार के अतराफ के गांव वालों के दिलों में वे हमेशा जिंदा रहेंगी।

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