अरविंद कुमार सिंह
नई दिल्ली। हाल के सालों में मीडिया में कई बड़े परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं। देश के हर हिस्से में टेलीविजन पहुंच गया है और मनोरंजन के साथ समाचारों का विशाल बाजार उभरा है। कई बड़े घराने मीडिया में प्रवेश कर चुके हैं और तमाम नए गठजोड़ बन रहे हैं। पहले यह आशंका की जा रही थी कि टीवी चैनलों की होड़ भारत में समाचार पत्रों के सामने गंभीर चुनौती खड़ा करेगी,पर ऐसा नहीं हुआ है। उलटे अखबार और ताकतवर हो रहे हैं और उनकी प्रसार संख्या तेजी से बढ़ रही है। बीत एक दशक में कई क्षेत्रीय अखबारों ने बहुसंस्करण निकाले हैं और कई राष्ट्रीय चैनल भी क्षेत्रीय भाषाओं के माध्यम से अपना आधार विस्तारित करने में लगे हैं। संचार क्रांति ने अखबारों, चैनलों तथा उसके पाठकों और दर्शकों के बीच का संवाद तंत्र मजबूत किया है। संचार और सूचना क्रांति ने अखबारों और चैनलों का विस्तार बहुत सस्ता और आसान कर दिया है। यही कारण है कि समाचार चैनल चौबीस घंटे हर तरह की खबरें दे रहे हैं। अखबार भी देर रात तक की घटनाओं को विस्तार से कवरेज दे रहे हैं। अखबारों और चैनलों की यह हैरतअंगेज तेजी एक तरफ है। जमीनी हकीकत यह है कि मीडिया गंभीर संक्रमण और अग्निपरीक्षा के दौर से गुजर रहा है। मीडिया संगठनों में विश्वसनीयता और संचित गुडविल की कीमत पर मुनाफा कमाने की होड़ लगी है। पैसा कमाने के लिए कई तरीके अख्तियार किए जा रहे हैंभारत में प्रिंट मीडिया का व्यवस्थित इतिहास 200 सालों से अधिक का है जबकि टीवी पत्रकारिता अभी 12 साल पुरानी है और प्रयोगों से ही गुजर रही है। फिर भी इस दौरान इसका आश्चर्यजनक गति से विस्तार हुआ है। प्रिंट मीडिया की तुलना में व्यावसायिक प्रतिबद्दता और पेशे की बुनियादी नैतिकता को ताक पर रख कर टीवी पत्रकारिता में सबसे जल्दी खबर दिखाने और ब्रेकिंग न्यूज के नाम पर जो कुछ हो रहा है,वह पत्रकारिता के समग्र भविष्य के लिए अच्छा नहीं है। तमाम पत्रकार टीवी पत्रकारिता में अखबारों से ही गए हैं और अच्छा पैसा कमा रहे हैं,पर वे जो जमीनी हालात देख रहे हैं,उसके आलोक में घर वापसी ही चाहते हैं।पत्रकारिता के पेशे की गरिमा और विश्वसनीयता दोनो का तेजी से क्षरण हो रहा है। देश में विभिन्न श्रेणी में पंजीकृत अखबारों की संख्या 60373 हो गयी है। इनमें से 6529 दैनिक,20814 साप्ताहिक तथा 17818 मासिक और 7959 पाक्षिक पत्र पत्रिकाएं हैं। सर्वाधिक 24000 अखबार और पत्रिका हिंदी में प्रकाशित हो रही है जबकि दूसरा नंबर अंग्रेजी प्रकाशनो का (8778) है। बाकी प्रकाशन असमी, बंगाली, गुजराती, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मलयालम, मराठी, नेपाली, उडिया, पंजाबी, संस्कृत, सिंधी, तमिल, तेलगू तथा उर्दू के हैं। इन अखबारों की पहुंच गली कूचो तक है, उप्र में ही अकेले 2.8 करोड अखबार बिक रहे हैं।भारत के समाचार पंजीयक कार्यालय (आरएनआई) की रिपोर्ट में कहा गया है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया की चुनौती का अखबारो के प्रसार पर कोई असर नही पड़ा और विस्तार से खबरे जानने का साधन आज भी अखबार ही बने हुए है। संचार माध्यमों में हिंदी और भारतीय भाषाऐं बेहद ताकतवर होती जा रही है। टीवी चैनलों का तो असली कारोबार हिंदी पर ही टिका हुआ है। यह सारा विस्तार अपनी जगह है। मीडिया के लिए आज सबसे चिंताजनक बात यह दिख रही है कि अखबार और चैनल दोनो उत्पाद बनते जा रहे हैं। अखबारों में तो अभी भी काफी गनीमत है पर चैनलों में तो अपराध को जिस तरह प्रधानता दी जा रही है और खोजी पत्रकारिता के नाम पर जैसे तरीके अपनाए जा रहे हैं,वे पूरी मीडिया को कटघरे में खड़े कर रहे हैं। अगर यही स्थिति रही तो आनेवाले दिनो में आम पत्रकारों को अपनी पहचान कुछ और बता कर जानकारियां हासिल करनी होगी। खबरों में भी अब केवल नकारात्मक पुट ही नजर आता है और अपराधियों तक को महिमामंडित करने, सफलता की तमाम कहानियां और देहाती तथा गरीब समाज की दिक्कतों को नजरंदाज करना फैशन सा बन गया है।स्टिंग आपरेशन- भारत में चले स्टिंग आपरेशनों पर नजर डालें तो पता चलता है कि यहां ऐसे आपरेशन का शिकार खास तौर पर राजनेता या फिल्म कलाकार ही बने है। कारपोरेट जगत में क्या कुछ नहीं हो रहा है। कितने बड़े घोटाले हाल के सालों में प्रकाश में आए हैं। पर इनमें किसी का परदाफाश चैनलों ने नहीं किया।जिन राजनेताओं की घेराबंदी की गयी उनमें से कोई भी जेल नहीं पहुंचा,पर इससे पत्रकारिता की विश्वसनीयता का जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई नहीं हो सकेगी। इसी तरह उमा भारती, मदनलाल खुराना केस ने भी पत्रकारिता को कलंकित किया और वाराणसी की घटना में चैनल के पत्रकारों ने जो कुछ किया वह अपराध हो सकता है पत्रकारिता नहीं।खोजी पत्रकारिता का इतिहास बहुत पुराना है। सन् 1970 के दशक में अमेरिका में वाटरगेट कांड में अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को अपने पद से त्यागपत्र तक देना पड़ा था। उस समय वाशिंगटन पोस्ट के कार्यकारी संपादक बेन ब्रैडली के दिशानिर्देश में दो नए युवा पत्रकारों कार्ल बर्नस्टीन तथा बाब वुडवर्ड ने इसका भंडाफोड़ किया था। पर यह कोई स्टिंग आपरेशन नहीं था, बल्कि वास्तविक खोजबीन की गयी थी। इसी से इन पत्रकारों की छवि हीरो जैसी बनी थी, पर आज उसी अमेरिका में बढ़ते व्यावसायिक दबाव और मंहगी मुकदमेबाजी (मानहानिकारक लेखन पर) के नाते कई संगठन खोजी पत्रकारिता से पल्ला झाड़ने लगे हैं। खोजी पत्रकारिता में खासा समय, मानव श्रम और वित्तीय संसाधनों की जरूरत होती है। इसके साथ ही खोजी पत्रकारिता का भी अपना नैतिक मापदंड होता है। कानूनी से भी अधिक नैतिक कसौटी अहमियत रखती है। यह देखना भी जरूरी है कि भंडाफोड़ किसका हित संरक्षण कर रहा है, और इससे कौन सा सामाजिक दायित्व पूरा हो रहा है। भारत में भी यह देखने की बात है कि अरूण शौरी तथा पी साईंनाथ को जिस स्टोरी पर मैगसेसे पुरस्कार मिला या अश्विनी सरीन की जिस स्टोरी पर कमला फिल्म बनी या ऐसी सैकडों खोजी खबरें छिपे कैमरे का परिणाम नहीं थी। आखिर किसी खबर के लिए छुपे कैमरे, दलाल और औरतों का उपयोग करते हुए कोई कंपनी बनाने या गलत पहचान बताने की जरूरत क्या है।पिछले साल एक चैनल ने उप्र में जमीन घोटाले का सनसनीखेज कांड उछाला तो सरकार ने उसी चैनल के कई पत्रकारो के नाम सार्वजनिक कर दिए, जिन्होने उसी व्यवस्था से जमीन ली थी जैसे बाकी घोटालेबाजों ने कई पत्रकारों के नाम इसमें और उछले और चैनल को उपकृत करने के मामले के खुलासा करने की जैसे ही बात उठी तो मुहिम बंद कर दी गयी। अगर आपका दामन साफ नहीं है तो आप कोई मुहिम चलाने और उसे निर्णायक मुकाम तक पहुंचाने का काम सोच ही कैसे कर सकते हैं। खाली हाथ गांधी भी अगर अंग्रेजों से लड़ने मैदान में कूदते थे तो उनके पास विराट नैतिक बल और जनसमर्थन था।सितंबर 2004 में खुद राष्ट्रपति ने मीडिया द्वारा समाचार देने के गिरते स्तर पर गंभीर चिंता प्रकट की थी। समाचार देने के तरीकों में बढ़ती खराबी पर राष्ट्रपति के सचिव ने उनकी चिंता को अवगत कराते हुए भारतीय प्रेस परिषद को भी लिखा। इसमें धनंजय चटर्जी की फांसी, कुं बकोणम स्कूल त्रासदी, अश्लील फोटोग्राफ प्रकरण समेत कई मुद्दों को उठाया गया था। परिषद ने इन मुद्दों पर विचार करके पत्रकारों से अपील की कि वे अपने सामाजिक दायित्वों की अनदेखी न करें और अपनी रिपोर्टिंग में आत्मनियमन का अभ्यास करें और सीमा तक उसे बनाएं। अश्लीलता,सनसनी और हिंसक रिपोटिंग के बारे में परिषद ने विशेष तौर इलेक्ट्रानिक मीडिया को आगाह किया। दिल्ली के एक किशोर द्वारा आपत्तिजनक वीडियोक्लिप के एमएमएस से जुड़ा मामला चैनलों के लिए खास दिलचस्पी का विषय रहा और इसे बार-बार दिखा कर बच्चे के स्कूल का नाम और उसकी पहचान को प्रकट करके पूरे मामले को बेहद सनसनीखेज बनाने का प्रयास किया गया। दंडनीय अपराधों से जुड़े मामलों में भी मीडिया द्वारा न्यायालयों के समानांतर जांच की प्रवृत्ति बढ़ती ही जा रही है। एमएमएस प्रकरण में तो अवयस्कों तथा बच्चोंकी रिपोर्टिंग में पत्रकारिता के स्वीकृत मानकों का जानबूझ कर उल्लंघन किया गया।पटियाला के एक व्यापारी नेता गोपाल कृष्ण कश्यप के आत्मदाह की घटना को हाल में चैनलों ने जिस उत्साह से कवर किया,उससे किसी भी मीडिया कर्मी का सिर शर्म से झुक जाता है। मीडिया के लिए यह घटना किसी तमाचे से कम नहीं रही। कई टीवी चैनल धड़ाधड़ उसका आत्मदाह करना शूट करते रहे और वह आदमी जलता मरता रहा। किसी भी पत्रकार ने उसे बचाने का प्रयास नहीं किया। किसी भी चैनल ने उस पीड़ा का बयान नहीं किया जिसके नाते उसे आत्मदाह का ऐलान करना पड़ा था। ऐसा किया गया होता तो गोपाल कृष्ण की समस्या का निदान हो जाता और उसे चिता पर बैठने की जरूरत ही न पड़ती पर इस कांड में मीडिया ने क्रूरता दिखायी और इसी नाते लोगों ने अगर कहा कि इसे टीवी चैनलों ने मार दिया तो गलत कहां था? आत्मदाह का लाइव प्रसारण बड़े उत्साह से चौबीस घंटे किया गया और किसी को शर्म नहीं आयी.कुछ साल पहले दिनो बलिया के एक छात्र सौरभ के मामले को अखबारों और चैनलो दोनो ने खूब तूल दिया 15 साल का एक लड़का खुद को राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम कल्पना चावला से भी बुद्दिमान बता रहा है और उसकी बातें चारो तरफ गूंज रही है। पूरे एक पखवारे तक वह सुर्खियों में रहा। किसी ने राष्ट्रपति भवन में यह जानने की कोशिश नहीं की कि जो दावा राष्ट्रपति से संबंधित है उसकी वास्तविकता क्या है। सौरभ ने खुद को इंटरनेशनल साइंटिफिक डिस्कवरी परीक्षा का टापर घोषित करके ऐसा माहौल बनाया कि जाने कितने संपादक और इलेक्ट्रानिक मीडिया के प्रतिनिधि इस होनहार को कैमरे में कैद करने बलिया पहुंचे। उसे खूब प्रचार दिया गया पर आखिर मे यह पूरी तरह झूठी कहानी ही साबित हुई और बिना जांचे परखे लोगों तक इस खबर को पहुंचानेवाला मीडिया प्रायश्चित भी नहीं कर सका। सहज ही कल्पना की जा सकती है कि इस घटना से मीडिया की विश्वसनीयता किस कदर प्रभावित हुई होगी।