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यहां राहत नहीं, बल्कि आफत शिविर हैं

धारचूला जाकर देखें राहत और बचाव की असली तस्वीर

स्वतंत्र आवाज़ डॉट कॉम

Wednesday 10 July 2013 12:18:50 PM

dharchula flood relief camp

पिथौरागढ़। धारचूला में घर-बार बर्बाद हो गए है, आंखों में आँसू हैं और सामने अंधेरा ही अंधेरा। यह कहानी हर उस आदमी की है, जो तबाही के मंजर से रू-ब-रू हैं और उसकी आंखे मदद को तरस रही हैं। यहां रोज कोई नेता आता है, सपने दिखाने के लिए और खिसक जाता है। यहां बारिश से रात को नींद भी नहीं आ रही है, 15 जून के बाद की रातों की याद ने नींद छीन ली है। अब तो बारिश की हर बूंद खौफनाक हो गई हैं। सोबला, न्यू, कंच्यौती, खिम के 175 से अधिक परिवारों की जान बच जाने से वहां थोड़ा सा सब्र हैं। कंच्यौती में भी दो लोगों की जान इस आपदा में चली गई। अपना जीवन बच जाने के बीच इन परिवारों के चेहरों पर यह परेशानी साफ तौर पर देखी जा रही है कि अब आगे कैसे उनका कुनबा बसेगा।
धारचूला व मुनस्यारी क्षेत्र में आपदा में आए चार गांव हैं, जो अब इतिहास में दफन हो चुके हैं। इन गांवों की वो खुशहाली अब बीते दिनों की याद बनकर रह गयी है। राजकीय इंटर कॉलेज धारचूला के उन कक्षों में जहां कभी बच्चे पढ़ते थे, आज इनकी शरण स्थली है। इन लोगों को इस बात का डर है कि डीडीहाट के हुड़की, धारचूला के बरम तथा मुनस्यारी के ला, झेकला, सैणराँथी के आपदा पीड़ितों के साथ सरकार ने जो अन्याय किया है, कहीं उनके साथ भी ऐसा न हो। आज उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि कैसे सितंबर तक का समय गुजरे? धारचूला के सामाजिक कार्यकर्ता केशर सिंह धामी के साथ जैसे ही राजकीय इंटर कॉलेज में हम पहुंचे तो वहां ठहरे आपदा पीड़ित एक-एक करके बाहर निकलने लगे। राहत की उम्मीद में उनकी आँखें अब थक चुकी हैं। पैरों में अब खड़े होने की ताकत भी नहीं बची है।
एक सप्ताह से इस शरण स्थल में रहने वाले इन 175 परिवारों के सैकड़ों आपदा पीड़ित 15 दिनों से कपड़े तक नहीं बदल पाए हैं, इन गाँवों से इन्हें हैलीकाप्टर में यहां लाया गया था। घर के साथ ही इनके तन के कपड़े भी धौलीगंगा में समा चुके हैं। मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने इन परिवारों को इनके गाँवों से यहां आमंत्रण देकर बुला तो लिया, लेकिन इन्हें किस बात की आवश्यकता होगी, इसका कोई ध्यान नहीं दिया गया। किसान महासभा के नेता सुरेंद्र बृजवाल, पिथौरागढ़ छात्र संघ के अध्यक्ष हेमंत खाती और भाकपा (माले) के जिला सचिव जगत मर्तोलिया ने इन परिवारों से अलग-अलग वार्ताएं कीं। बात करते-करते इनकी आवाज़ रूक जा रही है, गला भर आ रहा है। आँखों में आँसुओं की बूँदें और आँसू से चपचपाती पलकें इनके दर्दों को स्वयं ही बता दे रही हैं। धारचूला क्षेत्र में कीड़ा जड़ी को जमा करना भी एवरेस्ट पर चढ़ने से अधिक चुनौती भरा है। अपनी जान पर खेल कर इन्होंने धन इकट्ठा किया और उससे घर बनाया जो अब धौली का निवाला बन गया है।
इनके घर अब दुबारा बिछड़े गाँव में नहीं बन सकते। अब इन्हें एक नया गाँव और नया आशियाना चाहिए। तन में केवल एक कपड़ा लेकर धारचूला पहुंचने के बाद अब इस शहर में पहुंच गए हैं। शहर वालों के साथ चलने की हिम्मत इनके पास नहीं है। जिनके पास खाने के लिए अपने बर्तन न हों, चटाई में लेटने के लिए इन्हें यहां छोड़ दिया गया है। इनके बचे कुचे जानवर अभी गाँव में हैं, जो इन्हें देखने और चारे के लिए ढूँढ रहे होंगे। उनकी यह चिंता भी इनकी जुबाँ पर है। धारचूला की गर्मी और मच्छरों का प्रकोप इन्हें धौलीगंगा के द्वारा दिए गए गम की तरह सता रहा है। अभी तक तो ये मात्र एक चटाई के सहारे सीलन भरे कमरे में लेटे हुए थे। बाहर हो रही बारिश की बूँदें छतों से टपक कर इनके कमरों में इनकी हालत खराबकर रही है। एक सप्ताह बाद भाकपा (माले) के हस्तक्षेप के चलते तहसील प्रशासन ने 50 गद्दे यहां बांटे हैं। प्रशासन की ओर से बताया गया कि 150 गद्दे और बन रहे हैं। इससे इनके बिस्तरों की समस्या तो पूरी नहीं होगी, लेकिन कुछ आराम तो मिलेगा।
धारचूला राजकीय इंटर कॉलेज के कमरे 15 दिनों से बंद थे। कमरों में सीलन की बदबू अलग है और पानी रिसने के कारण पूरा कमरा निमोनिया और टाइफाइड जैसी कई बीमारियों को न्यौता दे रहा है। खिड़कियों में जालियां नहीं हैं। मच्छरों के अलावा कई प्रकार के कीट कमरों में घुस कर इन परिवारों को परेशान कर रहे हैं। पहले से ही घर और गाँव खोने से परेशान इन परिवारों को कीट मच्छर तो नहीं पहचानते, लेकिन सरकार तो जानती है, उसके बाद भी उसने अबतक इनका ‌जीवन जीनेभर का बंदोबस्त क्यों नहीं किया? आपदा राहत शिविर का इसे नाम दिया गया है और यहां की हालत नरक है। सीधे तौर पर कह सकते हैं कि यह राहत नहीं आफत शिविर है। एक आफत से बचकर यहां पहुंचे इन पीड़ितों को सरकारी आफतों से गुजरना पड़ रहा है। एक कमरे में चार से छ: परिवारों को जानवरों की तरह ठूंसा गया है। स्कूल के कुर्सी व टेबल ही इनके सहारे हैं। धारचूला के कई स्कूली बच्चों ने इस सवाल को भी उठाना शुरू कर दिया है कि अब वे कहां पढ़ेंगे?
आपदा ग्रस्त गांवों के नेता और प्रशासनिक अधिकारी आपदा पीड़ितों के जख्मों पर मरहम लगाने की जगह उनको डांटते भी फिर रहे हैं। वो कहते हैं कि अरे हमने कमरा दे तो दिया, अब हम क्या करें? इतना बहुत है। इन बातों से नाराज़ आपदा पीड़ित परिवारों के सदस्यों का इनसे सवाल है कि हमें हमारे गाँवों से क्यों यहां लाया गया? स्कूल जाने वाले बच्चे इस स्कूल के आंगन में खेल रहे हैं, उनका बस्ता धौली गंगा में बह गया है। उन्हें आज भी पहाड़े व गिनती और कुछ कविताएं याद हैं। गणित के सवाल भी उनके दिमाग में हैं, लेकिन उनको उकेरने के लिए उनके पास कॉपी पेंसिल नहीं है। बच्चों का कहना था कि हमारा स्कूल भी तो बह गया है, अब हम कहां पढ़ने को जायेंगे? इन बच्चों की तोतली आवाज़ से दिल को चीरने वाली पुकार निकल रही है। उसे यहां बार-बार आने वाले विधायक, सांसद, मंत्री और प्रशासनिक अमले के अधिकारी सुन नहीं पा रहे हैं।
कन्च्यौती के मोहन सिंह का कहना है कि तीन महीने कैसे गुजरेंगे, यह हमारी पहली समस्या है। स्कूल में ज्यादा समय नहीं रह सकते। आपदा मंत्री टीन शैड बनाने की बात कह गए हैं। इसे बनने में तो महीने बीत जायेंगे, जब गद्दे व कंबल देने में इतने दिन बीत गए। खिम की सरस्वती बिष्ट का कहना है कि हमारे खेत बह गए, जानवर भी साथ में धौली में बह गए, हम हम क्या करें, कैसे अपनी जिंदगी गुजारें, इस जिंदगी को गुजारने के लिए कौन हमारी मदद करेगा? न्यू ग्राम की नीरू देवी तो काफी दु:खी है, वह कहती है कि कभी नहीं सोचा था कि इस तरह अपना गांव छोड़ेंगे, अब हमें कैसे एक गाँव मिलेगा, जहां हम सब महिलायें इस त्रासदी को आपस में एक दूसरे में बांटकर त्रासदी का दर्द भुलाने की कोशिश करतीं। बला के नेत्र सिंह का कहना है कि गांव तो गया, अब नहीं लगता है कि दुबारा हमारा कोई गांव होगा, सरकार तो झूंठ बोलती है, झूंठ से कुछ दिनों तक संतोष मिल सकता है, लेकिन आगे नहीं। यह बात तो केवल चार उन गांवों की है, जो अपना सब कुछ धौलीगंगा को सौंपकर खाली हाथ इस इंटर कॉलेज की शरण में बैठकर टकटकी लगाए बैठे हैं कि अब कोई आए और आगे क्या होगा?

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