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पुरुष प्रधान राजनीति में महिलाओं का वर्चस्व बढ़ा

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विधायी विभाग के प्रकाशन का विमोचन

भारत के संविधान निर्माण में महिलाओं का योगदान अनदेखा हुआ था

स्वतंत्र आवाज़ डॉट कॉम

Saturday 8 March 2025 04:49:00 PM

contribution of women in the making of the constitution

नई दिल्ली। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर केंद्रीय विधि और न्याय मंत्रालय के विधायी विभाग के ‘संविधान सभा की महिला सदस्यों का जीवन और योगदान’ विषय पर एक प्रकाशन का विमोचन किया गया। यह विद्वत्तापूर्ण कार्य उन पंद्रह प्रख्‍यात महिलाओं केप्रति भावभीनी श्रद्धांजलि है, जिन्होंने भारत के संविधान का प्रारूप तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, लेकिन जिनके अनुकरणीय योगदान को मुख्यधारा के ऐतिहासिक और विधिक लेख में काफी हदतक अनदेखा कर दिया गया था। प्रकाशन में वकीलों, समाज सुधारकों और स्वतंत्रता सेनानियों सहित इन अग्रणी महिलाओं के योगदान का दस्तावेजीकरण किया गया है, जिन्होंने मुख्य रूपसे पुरुष प्रधान राजनीतिक व्‍यवस्‍था के भीतर गहरी संरचनात्मक बाधाओं को पार किया और संविधान सभा की प्रमुख आवाज़ के रूपमें उभरीं।
भारतीय संविधान सभा की इन महिला सदस्यों ने मौलिक अधिकारों, सामाजिक न्याय, लैंगिक समानता और लोकतांत्रिक शासन पर विचार-विमर्श को अत्‍यधिक प्रभावित किया। प्रकाशन का उद्देश्य उनके भाषणों, बहसों और विधायी हस्तक्षेपों का विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत करके ऐतिहासिक अंतर को पाटना है, जिससे प्रमुख संवैधानिक प्रावधानों पर उनके महत्वपूर्ण प्रभाव के बारेमें बताया जा सके। प्रकाशन में 1917 में महिला भारतीय संघ की स्थापना से लेकर स्वतंत्र भारत में राजनीतिक प्रतिनिधित्व की अंतिम प्राप्ति तक महिलाओं की संवैधानिक आकांक्षाओं के विकास के बारेमें विस्‍तार से बताया गया है। प्रकाशन में स्वतंत्रतापूर्व भारत में सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी की प्रगति और स्वतंत्र राष्‍ट्र केलिए संविधान के निर्माण तथा उसके बादकी यात्रा का अन्वेषण है। यह खंड भारत के संवैधानिक परिदृश्य को आकार देने वाली पंद्रह प्रतिष्ठित महिलाओं के योगदान का गहन विवरण प्रदान करता है। उनमें से अम्मू स्वामीनाथन संवैधानिक प्रावधानों में लैंगिक समानता की मुखर समर्थक थीं। उन्होंने यह सुनिश्चित कियाकि महिलाओं के अधिकारों को विधिवत मान्यता दी जाए।
एनी मस्कारेन ने संघवाद और राज्यों के एकीकरण पर चर्चा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिससे भारत की विविधता में एकता को बल मिला। सभा में एकमात्र मुस्लिम महिला बेगम कुदसिया ऐजाज रसूल धर्मनिरपेक्षता की कट्टर समर्थक थीं। वह समावेशी राष्ट्रीय पहचान की समर्थक थीं। सभा में पहली दलित महिला दक्षायनी वेलायुधन ने निर्भीकता से अस्पृश्यता का विरोध किया और वंचित समुदायों के अधिकारों केलिए लड़ाई लड़ी। दुर्गाबाई देशमुख ने सामाजिक कल्याणकारी नीतियों के निर्माण और महिला शिक्षा को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाकर भारत के सामाजिक न्याय के प्रारंभिक प्रारूप में योगदान दिया। हंसा जीवराज मेहता ने भारत के मौलिक अधिकारों का प्रारूप तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिससे यह सुनिश्चित हुआकि संवैधानिक बहसों में लैंगिक न्याय को महत्ता मिले। राजकुमारी अमृत कौर एक अग्रणी राजनेता, भारत की सार्वजनिक स्वास्थ्य नीतियों की निर्माता थीं और उन्होंने देश में आधुनिक स्वास्थ्य सेवा की नींव रखी। भारत कोकिला सरोजिनी नायडू नागरिक स्वतंत्रता की एक मुखर समर्थक थीं। उन्होंने भारत के लोकतांत्रिक लोकाचार पर एक स्थायी प्रभाव छोड़ा।
सुचेता कृपलानी, जो बादमें भारत की पहली महिला मुख्यमंत्री बनी सभा में एक प्रमुख आवाज़ थी। व‍ह श्रम अधिकारों और शासन सुधारों की समर्थक थी। प्रतिष्ठित राजनयिक विजयलक्ष्मी पंडित ने अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और वैश्विक शासन में भारत की भूमिका का पुरजोर समर्थन किया। पुस्तक में उन महिलाओं के योगदान का भी उल्लेख किया गया है, जिन्होंने भारत के लोकतंत्र और संवैधानिक आदर्शों को आकार देने में एक महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाई। पुस्‍तक में इन महिलाओं के प्रमुख योगदानों का संकलन है। यह समावेशी और समतावादी भारत के लिए उनके दृष्टिकोण को दर्शाता है। राष्ट्रीय और वैश्विक शासन में महिलाओं के नेतृत्व और प्रतिनिधित्व पर चल रहे विमर्श को देखते हुए इस खंड का विमोचन समय पर हुआ है। यह भारत के संवैधानिक इतिहास और इसके निर्माण में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका को समझने के इच्छुक कानूनी विद्वानों, इतिहासकारों, छात्रों और नागरिकों केलिए एक आवश्यक माध्‍यम है।

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