Friday 12 July 2013 12:35:01 PM
हृदयनारायण दीक्षित
सृष्टि अनंत रहस्यमयी है। ऋग्वेद के ऋषियों से लेकर आधुनिक वैज्ञानिक तक सृष्टि रहस्यों की खोज में संलग्न हैं। स्टीफेन हाकिंस विरल आधुनिक भौतिक विज्ञानी हैं। वे शत प्रतिशत विकलांग हैं, बोल नहीं पाते, चल नहीं पाते तो भी सृष्टि रहस्यों पर उनका श्रम और प्रयास अनूठा है। उनके वैज्ञानिक अब तक के निष्कर्ष ऋग्वेद के सूक्तों से मिलते हैं। 'कासमोस' भारतीय भाषा का ब्रह्म है। यह भारतीय चिंतन वाले ब्रह्म का पर्यायवाची है। ब्रह्म/कासमोस के रहस्यों पर काम कर रहे आधुनिक भौतिकविदों के निष्कर्ष बड़े प्यारे हैं। उनका मत है कि लाखों बरस पहले इस संपूर्ण सृष्टि या कासमोस की समस्त ऊर्जा और पदार्थ एक छोटे से बिंदु में समाहित थे। विश्व की सारी धरती, चंद्र, सूर्य, शनि, बृहस्पति आदि का सारा पदार्थ और समस्त ऊर्जा एक बिंदु में एक जगह पर थी। उस बिंदु को अमेरिकी वैज्ञानिक कार्ल सागन ने 'कास्मिक एग' कहा है। कासमोस ब्रह्म है तो कास्मिक एग ब्रह्म अंड हुआ। वैज्ञानिकों का कहना है कि इसी अंड का विस्फोट हुआ। इसीसे निकले सृष्टि के सारे कण गतिशील हुए। यह जगत कासमोस-ब्रह्मांड का ही विस्तार है।
सागन की किताब 'कासमोस' का एक वाक्य बारंबार पठनीय है अब तक जो हुआ है, वह यही कासमोस है और जो आगे होगा, वह भी यही कासमोस होगा। उपनिषद् की भाषा प्रेमपूर्ण है और विज्ञान की भाषा निमर्म। निर्मम का अर्थ अश्लील या असभ्य नहीं होता। निर्मम का अर्थ है-यह मेरा नहीं। ममत्वहीनता ही निर्ममता है। उपनिषदों में कासमोस का नाम ब्रह्म है। ब्रह्म से ही हमारा, कीटपतिंग, प्राणिजगत, वनस्पति जगत आदि का उद्भव हुआ। यह ब्रह्म सतत् विस्तारमान है। हम ब्रह्म के हैं, ब्रह्म हममें है, हम ब्रह्म में हैं। नौवीं सदी के विश्वविख्यात दार्शनिक शंकराचार्य ने वैज्ञानिकों की ही तर्ज पर कहा, ब्रह्म सत्य है, जगत् मिथ्या। शंकराचार्य की दृष्टि में संसार की क्रियाएं आभासी हैं, अनित्य हैं, समय के साथ परिवर्तनीय हैं। प्रतिपल बदलती हैं। इसलिए मिथ्या हैं। ब्रह्म सदा से है। वही अंड में सारी ऊर्जा और पदार्थ को लेकर सिकुड़ जाता है। वही फूटकर विश्व हो जाता है। इस सृजन में जो कुछ हो गया, वह ब्रह्म और जो आगे होगा वह भी ब्रह्म। ऋग्वेद में ब्रह्म की ही तरह एक देवी हैं-अदिति। उनका वर्णन 'कासमोस' जैसा। ऋषि कहते हैं-अदिति अंतरिक्ष हैं, अदिति पृथ्वी हैं। अदिति विश्वदेवा हैं। प्रकृति की सारी शक्तियां अदिति हैं। अदिति माता हैं, पिता हैं, वही हमारे पुत्र हैं। अब तक जो हो गया वह अदिति हैं और आगे जो होगा वह भी अदिति।
भारतीय ऋषियों की भाषा में ममत्व है। हम अदिति हैं। अदिति से हैं। हमारे माता पिता अदिति हैं। कोई कह सकता है कि यहां भाववादी आदर है, लेकिन ऋषि अपने पुत्रों को भी अदिति देव बताते हैं। ऋग्वेद का 'पुरूष' प्रतीक भी ऐसा ही है। इसकी स्तुति में भी वही धारणा है अब तक जो हो गया और जो होगा वह सब पुरूष ही है-पुरूष एवेदं सर्वं यद् भूतं भव्यं च। आधुनिक विज्ञान भी यही कहता है-जो हो गया और जो होगा वह सब 'कासमोस' है, लेकिन ऋषि दृष्टि और वैज्ञानिक दृष्टि में अंतर है। ऋषि अनुभूति आत्मीय है, वैज्ञानिक दृष्टि विषयी है। वैज्ञानिक की दृष्टि का आधार अन्यता है, ऋषि दृष्टि में अनन्यता है। खोजी दोनो हैं। एक विनम्रतापूर्वक स्तुति करते हुए सत्य का दर्शनाभिलाषी है, दूसरा आक्रामक होते हुए विवेचन विश्लेषण की पद्धति अपनाता है, लेकिन दोनों का लक्ष्य सत्य का दर्शन है। विज्ञान और दर्शन में कोई टकराव नहीं है। विज्ञान ज्ञात का विश्वासी है और अज्ञात का खोजी। भारतीय दर्शन ज्ञात को अपना मानता है और अज्ञात के प्रति आस्तिक है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण अज्ञात को विषयमात्र देखता है, भारतीय दर्शन अज्ञात के प्रति आदर भाव रखता है। ज्ञात हमारी बौद्धिक पूंजी है और अज्ञात हमारी अनंत संभावना है।
स्टीफेन हाकिंग्स को प्रणाम करने का मन होता है। उन्होंने 'ब्रीफ हिस्ट्री और टाइम' ग्रंथ में समय का इतिहास खोजने का प्रयास किया है। इतिहास समय का पुत्र है। जब समय नहीं था तब इतिहास कैसे होगा? समय का जन्म गति से हुआ। जब गति नहीं थी तो समय भी नहीं था। समय नहीं था तो न रात थे और न दिन। प्रकृति की शक्तियां भी तब नहीं थीं। ऋग्वेदद में उन्हें देव कहा गया है। ऋषि की घोषणा है कि एक समय ऐसा था, जब देवता भी नहीं थे, लेकिन 'वह एक' था। वह एक कौन? आधुनिक वैज्ञानिकों वाला 'कास्मिक-एग'। उपनिषदों वाला ब्रह्मांड। ऋग्वेद का 'वह एक'। सब एक ही हैं, लेकिन इन निष्कर्षो में एक आश्चर्यजनक तत्व भी है। वैज्ञानिक तमाम आधुनिक उपकरणों और संसाधनों से लैस हैं। वैदिक ऋषि साधन हीन थे। ऋषि ऐसे निष्कर्षो पर कैसे पहुंचे होंगे? वामपंथी मित्रों द्वारा वैदिक दर्शन पर भाववाद के आरोप लगाए जाते हैं। सृष्टि रहस्यों पर एंगिल्स ने भी काफी सोचा था। ऋग्वेद और मार्क्स एंगिल्स के बीच समय का लंबा फासला है। वैज्ञानिक भौतिकवादी सृष्टि विकास के सूत्रों के लिए प्राय: डारविन पर निर्भर थे, लेकिन आधुनिक भौतिक विज्ञान ऋग्वेद के करीब है, वैज्ञानिक भौतिकवाद आधुनिक भौतिक विज्ञान से दूर है।
स्टीफेन हाकिंग्स के ताजे वक्तव्य से निराशा हुई है। उन्होंने गूगल में बताया कि भौतिक विज्ञान की उन्नति के कारण दर्शन बेमतलब हो गया है। भौतिक विज्ञान ने निस्संदेह बड़ी प्रगति की है। विज्ञान ने पंथिक आस्थाओं को धराशाई किया है। विश्व के बड़े वर्ग में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास हुआ है, लेकिन दर्शन का महत्व तो भी ज्यों का त्यों बना हुआ है। वैज्ञानिक शोध ने भारतीय दर्शन के बोध को मजबूत किया है। सृष्टि संरचना की व्याख्या में हाकिंग्स और ऋग्वेद के विचार लगभग एक जैसे हैं। भारतीय दर्शन ने इंद्रियबोध से प्राप्त ज्ञान को अंतिम नहीं माना और अनुभूति के उपकरण से इंद्रियबोध के पार छलांग लगाई। विज्ञान ने भी सामान्य आंखों, कानों आदि से देखे सुने, सूंघे से आगे की यात्रा यांत्रिक उपकरणों से की। विज्ञान ने यंत्र तकनीकी का विशाल तंत्र बनाया और ज्ञानराशि का संवर्द्धन किया। ठीक किया। भारतीय दर्शन ने उपलब्ध यंत्र तंत्र के साथ मंत्र अनुभूति का अद्भुत प्रयास किया। विज्ञान खड़ा है, यंत्र और तंत्र उपकरणों के दम पर। भारतीय दर्शन ने इसके साथ मंत्र शक्ति का उपयोग किया है। मंत्र जादू टोना नहीं है। 'मंत्र फूंका-तिल का ताड़ हो गया' जैसी बातें बकवास हैं। गहन अनुभूति से उगे सूत्र ही मंत्र हैं। इनकी काया ध्वनि से बनी। ध्वनि ऊर्जा है। भौतिक द्रव्य से बने उपकरण यंत्र-तंत्र हैं। इनकी काया पदार्थ से बनी। यूनानी दर्शन आकाश को नथिंग, खाली, शून्य कहता था। भारत ने उसे पदार्थ कहा। यह दर्शन की पद्धति का ही कमाल था।
दर्शन की भूमिका समाप्त नहीं हुई। अच्छा तो यह होगा कि आधुनिक विज्ञान दर्शन का पीछा करे। दर्शन की निष्पत्तियों को अपनी खोज का विषय बनाएं। आस्थाएं ईश्वर या ऐसी ही असिद्ध सत्ता की बात करती हैं। विज्ञान इसकी तह तक जाता। उपनिषदों वाला ब्रह्म अन्य आस्थाओं वाला ईश्वर नहीं है। दुनिया की अधिकांश आबादी ईश्वर मानती है। आधुनिक भौतिक विज्ञान को इस धारणा को भी जांचना चाहिए। विज्ञान और दर्शन दोनों में कार्य कारण की महत्ता है। विज्ञान को चुनौती स्वीकार करनी चाहिए कि क्या यह सृष्टि अकारण है? सकारण है तो कारण क्या है? सृष्टि के कारण का भी कोई कारण होगा। कोई भी कारण निरपेक्ष नहीं होता। हरेक कारण का भी कोई कारण होता है। याज्ञवल्क्य से गार्गी ने यही पूछा था। अंतिम उत्तर था-ब्रह्म। ब्रह्म ही मूल कारण है। गार्गी ने पूछा ब्रह्म का कारण क्या है? याज्ञवल्क्य ने इसे अतिप्रश्न कहा था। विज्ञान इसे अतिप्रश्न न माने। ब्रह्म के भी कारण का पता करे। कौन रोकता है? भारत में ईश्वर या ब्रह्म की खोज ईश निंदा नहीं मानी जाती। विज्ञान और दर्शन सत्य शोध की ही प्रणालियां हैं। दोनों की उपयोगिता है। दोनों से जुड़े विद्वानों को दोनों के निष्कर्षो से लाभ उठाना चाहिए।