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दुधवा नेशनल पार्क का स्वर्णकाल अब एक कहानी

देवेंद्र प्रकाश मिश्र

दुधवा नेशनल पार्क/dudhwa national park

दुधवा। जिन उद्देश्यों के लिए फरवरी 1977 में दुधवा नेशनल पार्क की स्थापना की गई थी, उनमें वन प्रबंधन, वन्यजीवों के संरक्षण एवं संवर्द्धन प्रमुख उद्देश्य थे। दुधवा पार्क को स्थापित हुए पैंतीस साल हो गए हैं। इनमे से अब तक किस उद्देश्य की सही मायनो में पूर्ति हो पाई है ? आज यह सवाल हर उस व्यक्ति का है जो वन प्रबंधन, वन्यजीवों के संरक्षण एवं संवर्द्धन को देखने के लिए दुधवा नेशनल पार्क में दाखिल होता है और उसे इन तीनों में से अब कुछ भी ठीक ठाक नहीं लगता है। उसे यहां की व्यवस्‍था के लिए बनाए गए नियम-कानून कहीं नहीं नज़र आते। शायद इसीलिए सन् 2000-01 से यहां लागू दस वर्षीय मैनेजमेंट प्लान आशातीत सफलता प्राप्त नहीं कर सका, वन्यजीवों की संख्या लगातार घटती ही जा रही है। तमाम वन्यजीवों के साथ ही दुधवा को प्रकृति से मिले बफर वन जैसे शानदार उत्तरदान में अपने परिवार और साम्राज्य को बढ़ाने वाले बाघ के दर्शन भी अब धीरे-धीरे दुर्लभ हो चले हैं।
दुधवा का यह आकलन प्रकृतिऔर वन्य जाति प्रेमियों के लिए निराशा पैदा करता है कि वन्यजीवों तथा बाघों से समृद्धशाली दुधवा नेशनल पार्क का लगभग दो दशकपूर्ववाला स्वर्णकाल भविष्य में एक याद बनकर रह जायेगा। उसका यादगार स्वरूप नष्ट हो रहा है, दुधवा के घने जंगल के समीपवर्ती गांवोंके नागरिक जो वन एवं वन्यजीवोंके संरक्षण और सुरक्षा में आगे रहकर सहभागिता की भूमिका निभाते थे, वही अब दुधवा पार्क के कानून के कारण उसके दुश्मन बन गए हैं।प्रकृति एवं वन्यजीव विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसी स्थिति में आवश्यक हो गया है कि नागरिकों के हितों को अनदेखी किएबगैर वन्यजीवन तथा मानव संबंधों को नया कानून दिया जाए तभी इस पार्क के संरक्षण एवं संवर्द्धन के सार्थक और दूरगामी परिणाम निकल सकतेहैं।
उल्लेखनीय है कि सन्1861 में अंग्रेजी हुकूमत में काष्ठ उत्पादन के लिये खैरीगढ़ परगना क्षेत्र के 303 वर्ग किलोमीटर जंगल को संरक्षित कियागया था। तत्पश्चात सन 1886 में मिस्टर ब्राउन के बनाए वैज्ञानिक प्लान के अनुसार यहांवन प्रबंधन की शुरूआत कीगई। सन् 1905 में उस पर वन विभागका नियंत्रण हो जाने के बाद विलुप्त प्रजाति बारहसिंघा के संरक्षण के लिये 15.7 वर्गकिलोमीटर वनक्षेत्र को सोनारीपुर सेंचुरी के नाम से संरक्षित किया गया। वन्यजीवों के संरक्षणको ध्यान में रखकर कालांतर में सरकार ने इस क्षेत्रफल को बढ़ाकर 212 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल कर दुधवा सेंचुरी के रूप में संरक्षित कर दिया। दो फरवरी सन्1977 को सरकार ने वन, वन्यजीवों के साथ ही जैव-विविधताको संरक्षण देने के लिये दुधवा राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना कर दी। कुल 634 वर्ग किलोमीटर दुधवा के वन क्षेत्रफल में किशनपुर वन्यजीव बिहार का 204वर्ग किलोमीटर वनक्षेत्र शामिल करके 1987 में दुधवा टाइगर रिज़र्व की स्थापना की गई। सन् 1994 में66 वर्ग किलोमीटर आरक्षित वनक्षेत्र दक्षिणी बफर के रूप में जोड़ने के साथ ही कतर्नियाघाट वन्यजीव प्रभाग को भी इसमें शामिलकर दिए जाने के बाद आज कुल 1000वर्ग किलोमीटर वनक्षेत्रफल दुधवा टाइगररिज़र्व के तहत संरक्षित है।
वन तथा वन्यजीवों को संरक्षणऔर सुरक्षा देने के उद्देश्यसे वनपक्षी एवं पशु संरक्षण अधिनियम 1912, भारतीय वन अधिनियम 1927 के बाद वन्यजीव-जंतु संरक्षण अधिनियम1972 बनाया गया। सन् 1991 एवं 2000 और इससे पूर्व भी, वन अधिनियम में तमाम महत्वपूर्ण संशोधनों के बाद भी उत्तर प्रदेश में वनमाफियाओं, वन्यजीवोंके तस्करों औरहत्यारों की कारगुजारियां बेखौफ जारी हैं। वन्यजीवों, वन की सुरक्षा एवं संरक्षणके लिये दुधवा राष्ट्रीय उद्यान के भी अपने नियम कानून हैं, जो बदलतेपरिवेश में अब बेमानी हो गए हैं औरवे दुधवा राष्ट्रीयउद्यान की प्रगति में बड़ी बाधा बन गए हैं। राष्ट्रीयउद्यान के कानून एवं नियमों में वन्यजीवों का जीवनचक्र प्रभावित न हो, इसलिए उनके वासस्थल क्षेत्रमें मानव प्रवेश निषिद्ध करके उनको प्राकृतिक वातावरण उपलब्ध कराने की इसमें परिकल्पना की गई है, साथ ही जैव विविधता को संरक्षणदेने के उद्देश्य से जंगल में जो जैसा है, वैसा ही रहेगा, उसमें परिवर्तनन किए जाने का कानून भी बनाया गया है। अनुभव में आय है कि यह कानून अच्छा तो है, लेकिन व्यवहार में उतनाव्यवहारिक नहीं है।
इस क्षेत्र की भौगोलिकस्थितियां बेहद विषम हैं।दुधवा राष्ट्रीयउद्यान बनने से पूर्व आस-पास के ग्रामीण, जंगल से वन उपज का लाभलेते रहे, जिस पर अबपूर्णतया प्रतिबंध है। इस कारण वन तथा वन्यजीवों के संरक्षण में संवेदनशील एवं भावनात्मक रूप से जुड़े ग्रामीणों का स्वभाव इनके प्रति क्रूर हो गयाहै, वन उपज कीचोरी को भी बढ़ावा भीमिला है। वनाधिकार कानून 2007 लागू हो जाने के बाद, वन उपज पर अपना अधिकार हासिल करने कीमांग भी तेज हो रही है। इस मांग को ढाल बनाकर ग्रामीण, जंगल से जबरनजलौनी लकड़ी, खागर, घास-फूस लाने में जुटगए हैं, इससे वन विभागऔर ग्रामीणों के बीच टकराव के नए मोर्चे खुल गए हैं। यह संघर्ष न वन्यजीवों के हित में है औरन ही वहां रहने वालों के हित में है जिनका वन एवं वन्य प्राणियों से चौबीस घंटे का‌रिश्ता है। जरूरी हो गया है कि कुछ ऐसे रास्ते निकाले जाएं जिनसे वन विभाग और ग्रामीणों के बीच चौड़ीहो चुकी खाई भी पटजाए और वन्यजीवभी शांति से जंगल में रह सकें।
दुधवा नेशनल पार्क में सफलता पूर्वक चल रहीगैंडा पुनर्वास परियोजनाके तहत विचरण करने वाले 28 सदस्यीयगैंडा परिवार के सदस्य, हाथी और तमाम वनपशु अक्सर जंगल के बाहर आकर कृषि संपदा को भारी क्षति पहुंचातेहैं, लेकिन विडंबनायह है कि उत्तर प्रदेश सरकारने गैंडों सहित अन्य वनपशुओं से होने वाली फसल क्षति का पर्याप्त मुआवजा निर्धारण नही किया है। वनपशुओं से होने वाली जानमाल की क्षति की वाजिबभरपाई न होने से ग्रामीण हमेशा वन्यजीवों को दुश्मन की निगाह से देखते हैं। दुधवा नेशनल पार्क कीस्थापना हो जाने के बाद सन् 1983 से 1993 तक वन विशेषज्ञ विश्वभूषण गौड़ की बनाई वन प्रबंधन कार्य योजना पर यहां कार्य किया गया। इसमें वन एवं वन्यजीव संरक्षण, जैव विविधताकी सुरक्षा केसाथ ही काष्ठ उत्पादन को भी प्रमुखता दी गई थी। तत्पश्चात सन् 1993-94 से 2000-01 तकडॉ राम लखन सिंह की कार्ययोजना के तहत वन प्रंबधन किया गया। दुधवा में तैनात रह चुके फील्ड निदेशक और अब राज्य के प्रमुख वनसंरक्षक रूपक डे की कार्ययोजनापर वैज्ञानिकढंग से प्रबंधन किया जा रहा है। इस प्लान में वन्यजीवों की प्रगति आधारित अनुश्रवण, आद्र क्षेत्रों का विकास, फायर कंट्रोल एवं प्राकृतिकवास पर प्रतिकूलकारकों को चिन्हित कर उनके नियंत्रण पर विशेष जोर दिया गया है।
इस कार्ययोजना को भी दस साल व्यतीत हो गए हैं, लेकिन इसकेभी अनुकूल परिणाम नही निकले हैं। अलबत्ता अति संरक्षण के चलते मानव एवं वन्यजीवों के बीचटकराव बढ़ता ही जा रहा है, स्वाभाविकरूप से वन्यजीवोंपर मानव भारी पड़ रहा है और इसके परिणामस्वरूपजंगल में वन्यजीवोंकी संख्या में भी गिरावट दर्ज हो रही है। दुधवा वन प्रबंधन और वन विभाग अपने कागजोंमें वन्यजीवों की संख्या को बढ़ा-चढ़ा कर प्रदर्शितकरता आ रहा है। वन एवं वन्यजीवोंके संरक्षण और सुरक्षा केलिये विश्व प्रकृति निधि भारत की ओर से नई कार्ययोजना का प्रारूप तैयार किया जा रहा है, लेकिन पहले यह जरूरी है कि अब तकजिन कार्ययोजनाओं पर काम किया है उनके क्या परिणाम आए और वे कार्ययोजनाएं सफल क्योंनहीं हो सकीं? योजनाओं मेंदोष रहा या उन्हें लागू करने वाली एजेंसियों की विफलता रही जिसका कारण भ्रष्टाचार औरकुप्रबंधन भी हो सकता है।नई कार्ययोजनाको तैयार करने वालों ने अगर जंगल, वन्यजीवों के साथ में मानव के हितों को भी ध्यान में नहीं रखा तो इस कार्ययोजनाका भी वही हस्र होगा।
वन विभाग और आम जनता के बीच बढ़ी दूरियां वन प्रबंधन केलिये हितकर नहीं कही जा सकती हैं। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है-पिछले पांच साल में वन्यजीवोंकी लगातार घटती संख्या। दुधवा पार्क की स्थापना सेपूर्व जब जंगल में मानव प्रवेश निषेध नहीं था, तब घास-फूस, जलौनी लकड़ी आदि वन उपजका लाभ ग्रामीणों को दिया जाता था, अब इसे ग्रासलैंडमैनेजमेंट के तहत जलाया जाता है। इससे जमीन पर रेंगने वाले दुर्लभ जीव-जंतु जलकर मर जातेहैं तथा कीमती लकड़ी, जिसे बेचकर राजस्व प्राप्त किया जा सकता है वह भीकोयला बन जाती है। वन विभाग जिस प्रकार संरक्षित वन क्षेत्र को पूर्णतया निषिद्ध बनाने के प्रयास में लगाहुआ है उससे प्राकृतिक स्थितियां और ज्यादा भयानक हो जाएंगी। इसलिए यह आवश्यक हो गया है किअब वन एवं वन्यजीवों तथा मानव के हितों को ध्यानमें रखकर ही किसी कार्ययोजना की सफलता की आशा की जा सकती है।
दुधवा राष्ट्रीय उद्यान को स्थापित हुए पैंतीस साल हो गए हैं। मोटे तौर पर इसके लाभ-हानि का यदि आकलन किया जाए तो यहां काफी कुछ नष्ट हो चुकाहै। सच कहा जाए तो भारतीय वन प्रबंधन इसके लिए सीधे जिम्मेदार है। शीर्ष अधिकारियोंकी पदलोलुप महत्वाकांक्षाएं, भ्रष्टाचारजनितकृत्य और अकर्मण्यता से वन और वन्यजीवनकी सुरक्षा एवं संरक्षण आज एक गंभीर संकटबन चुका है। विफलहुई कार्ययोजनाएंइन्हीं अधिकारियों की दोषपूर्ण कार्यप्रणाली का स्पष्ट प्रमाण हैं। ये अधिका‌री भलेही एक दूसरे पर दोषारोपण करें और इसके लिए राजनीतिज्ञों को भी दोषी ठहराएं, लेकिन वे वनों के सर्वनाश, दुर्लभ वन्य जातियों, प्रजातियोंकी बेरहम हत्याऔर उनके विनाश के दोष से मुक्त नहीं हो सकते।

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