Sunday 11 August 2013 08:32:51 AM
हृदयनारायण दीक्षित
मर्यादा सुंदरतम उपलब्धि है। तुलसीदास ने गाया था-सुंदरता मरजाद भवानी। मर्यादा सौंदर्य है। भारत ने श्रीराम को मर्यादा पुरूषोत्तम कहा। राम परिपूर्ण सुंदर हैं-मर्यादा के कारण। मर्यादा की पौध पर ही शील के सुंदर फूल खिलते हैं। शील की गंध ने बुद्ध को भी खींचा था। 'धम्म पद' में उनके कथन हैं, चंदनं तगरं वापि उप्पलं अथ वास्सिझी/एतेसं गंध जातानं सील गंधो अनुत्तरो-चंदन, तगर, उत्पल या बेला, चमेली सुगंधित हैं, लेकिन इनकी गंध से बढ़कर शील गंध है। फूलों की गंध का कारण पृथ्वी है। पृथ्वी का गुण गंध है। पृथ्वी सगंधा है। मनुष्य में भी गंध होती है-मानुष गंध, लेकिन इसका स्रोत पृथ्वी है। शील पदार्थ नहीं है। यह मर्यादा के पेड़ पर खिला लौकिक अनुभूति वाला अलौकिक पुष्प है। मर्यादा व्यक्तिगत आचरण दिखाई पड़ती है, लेकिन मर्यादा में अस्तित्व का सहज स्वीकार है। हमारी काया की सीमा है। हमारे होने की मर्यादा है। हमें इसी मर्यादा में रहना चाहिए, ताकि दूसरे भी अपनी मर्यादा में आनंदमगन रह सकें। मर्यादित व्यक्ति केवल अपने बारे में ही नहीं सोच सकता। अपने बारे में सोचना आसक्ति है और अस्तित्व की अंगभूति अनुभूति आस्तिकता। इसी से शील खिलता है और शीलगंध हहराकर समूचा वातायन सुगंधित से भर देती है।
बसंत में दिक्काल गंध आपूरित होता है। मरूद्गण हरेक पुष्प की गंध लेते हैं, स्वयं प्रयोग नहीं करते। सारी गंध उड़ेल देते हैं। प्राणि जगत मदनगंध से भर जाता है। ग्रीष्म तपता है, मरूद्गण खौलती हवाएं उड़ेलते हैं। जगत का ताप ढोते हैं, इधर से उधर ले जाते हैं। वर्षा के देव पर्जन्य, इंद्र आदि बादल लाते हैं। जल कुंभ का मुंह नीचे करते हैं। प्यासी धरती को रस देते हैं। पृथ्वी गंध बिखेरती हैं। त्यंबक देव सुगंधिं पुष्टिवर्द्धनं हैं। वे पके फल को शाखा से अलग देते हैं। पके फल महकते हैं, रसवंत होकर। फूलगंध तीखी होती है, बेला, चमेली, रातरानी की गंध सीधे जाती है प्राणो में, लेकिन फल गंध तीखी नहीं होती। आम महकते हैं, अमरूद भी महकते हैं। उनकी डाले महकती हैं, लेकिन भीनी-भीनी गंध में। फलगंध का मज़ा ही और है। नवजात शिशु, तत्क्षण जन्मा बच्चा भी महकता है। समूचा प्राणिजगत गंध सिक्त है। मादा पक्षी को नर पक्षी की महक खींचती है और नरपक्षी को मादा की गंध। मनुष्य के साथ भी ऐसा ही होता है। नाक बड़ी मजेदार इंद्रिय है। इसे मन बुद्धि के सहयोग की जरूरत नहीं होती। अपने आप सक्रिय रहती है। सारी गंधों के लिए नासिका ही एकमात्र उपकरण है, लेकिन शील गंध की बात दूसरी है।
शील गंध दिव्य है। इसे सूंघने का काम आंखे भी कर लेती हैं। हम आंख से फूल नहीं सूंघ सकते। हम कान से सूंघने का काम नहीं ले सकते, लेकिन शीलगंध आंख और कान से भी सूंघी जा सकती है। सूंघी ही क्यों सुनी भी जा सकती है। बेशक गंध का सुनाई पड़ना आश्चर्य है, लेकिन ओम् ध्वनि सुनाई पड़ने के साथ सुगंध से भी भरपूर होती है। शीलगंध चमत्कारिक है, लेकिन चमत्कार नहीं। हमारे लोकजीवन के आदर्श प्राकृतिक हैं। प्रकृति की सारी शक्तियां नियम आबद्ध हैं। पृथ्वी अपनी मर्यादा में है, सूर्य, चंद्र और जल-समुद्र अपनी मर्यादा में। मंगल, बुध, गुरू, शुक्र और शनि, राहुल, केतु भी मर्यादा उल्लंघन नहीं करते। सब स्वछंद में हैं, लेकिन अस्तित्व का पूरा ताना बाना एक छंद में है। स्वच्छंद कोई नहीं। जब प्रकृति की सभी शक्तियां मर्यादा में हैं, शीलगंध से युक्त हैं तो मनुष्य को भी वैसी ही मर्यादा में रहते हुए शील की लब्धि करनी चाहिए। वैदिक ऋषियों ने प्रकृति के ऋतु संविधान की देखा देखी ही अपने लिए व्रत, धर्म आदि गढ़े थे। व्रत का अर्थ संकल्प है, उपवास भी है। संकल्प के कारण हम सुनिश्चित विचार या कर्म से जुड़ते हैं। जुड़ने का संकल्प व्रत है। संकल्प की प्रगाढ़ निकटता उप-वास है। उपवास का अर्थ है-निकट रहना। भूखे रहना उपवास का अर्थ नहीं है। शील हमारे उदात्त कर्मफल का दिव्य प्रसाद है और शील है भारत के आदर्शबोध का पर्याय।
काव्य सहित सभी सृजन कर्मो की मुख्यभूमि सौंदर्यबोध है। सौंदर्यबोध में आनंदबोध की आकांक्षा होती है। सारी दुनिया के कवि, लेखक और सर्जक सौंदर्यबोध से प्रेरित होते रहे हैं, लेकिन सौंदर्य के लिए रूप चाहिए। जहां तक रूप की सत्ता है, वहीं तक सौंदर्य की सीमा है। भारतीय चिंतन में रूप सौंदर्य से अरूप सौंदर्य की यात्रा है। श्रीराम, श्रीकृष्ण सुंदर रूपवान हैं। प्रेम भक्ति में उनके रूप के गुणगान हैं, लेकिन भक्ति के चरम पर रूप सौंदर्य मिट जाता है। इसी यात्रा में अंतत: प्राप्ति होती है अद्वैत की। भारतीय सौंदर्य बोध स्थूल से सूक्ष्मतम की यात्रा है, इसीलिए यहां आदर्शबोध और सौंदर्यबोध में कोई टकराव नहीं। जो आदर्श है, वही कल्याणकारी है और वही शिव है। जो शिव है, वही सुंदर भी है और जो शिव और सुंदर है वही सत्य भी है। यहां सौंदर्य ही पर्याप्त नहीं है। सौंदर्य को आदर्श से जोड़ना चाहिए, उसे शिवत्व लोकमंगल से भी जुड़ना चाहिए और उसे सत्य भी होना चाहिए। इसी के लिए जरूरी है, शील की उड़ान। शील मुक्ति का द्वार है। पंथ, मजहब की आस्थाएं बांधती हैं, लेकिन शील आत्मानुशासन का स्वातंत्रय है।
शीलहीन सौंदर्य में आकर्षण नहीं होता। सुंदर युवती या पुरूष आकर्षित करते हैं, उनमें शील की मर्यादा न हो, आचरण में गड़बड़ी हो तो सौंदर्य के प्रतिमान धराशायी हो जाते हैं। हम उन्हें सुंदर कहने में हिचकते हैं, लेकिन सौंदर्य और शील मिलकर नया आकर्षण गढ़ते हैं। सुंदरता के आकर्षण से शील का आकर्षण बड़ा है। शीलरहित सुंदरता रम्य है, शीलसहित सुंदरता दिव्य है। विद्वता भी ऐसी ही होती है। हमारे वांग्मय में रावण की विद्वता शीलरहित है, इसलिए आकर्षित नहीं करती। श्रीराम के ज्ञान में शील की महत्ता है। वे भारत के मन के पुरूषोत्तम हैं। सौंदर्य ललित है, लेकिन शील के बिना फलित नहीं होता। भारतीय संत परंपरा अनूठी है। संत शील आभा से युक्त होते हैं। लंका विजय के बाद श्रीराम अयोध्या लौटे। हनुमान ने उनसे कहा कि भरत कुछ जानना चाहते हैं। संकोचवश नहीं कह पा रहे हैं। भरत का शील आदरसूचक संकोच बना। राम ने अनुमति दी। भरत ने संतगुण पूछे। श्रीराम ने कुल्हाड़ी और चंदन का उदाहरण दिया। कुल्हाड़ी चंदन को काटती है, लेकिन चंदन गंध बिखेर देता है। चंदन अपनी शील गंध के कारण देवों के सिर चढ़ता है और कुल्हाड़ी के मुख को आग में जलाकर लोहे के घन से पिटने का दंड मिलता है। संत का मुख्य गुण शील और विषय अलिप्तता है। तुलसीदास ने इसी प्रसंग को गाया है-विषय अलंपट सील गुनाकर/पर दुख दुख सुख सुख देखे पर।
शील भारतीय संस्कृति का केंद्रीय तत्व है। विश्व के अन्य देशों में विद्वता, युद्ध कुशलता आदि के कारण अनेक लोग महान कहे गए। सिंकदर अलेक्जेंडर दि ग्रेट कहा गया, युद्धप्रियता के कारण, लेकिन भारत में शीलरहित कोई भी अतिविशेष प्रतिभा वाला व्यक्ति या राजनेता भी महापुरूष नहीं जाना गया। विवेकानंद अपनी अंतर्राष्ट्रीय प्रतिभा के साथ शीलवान थे। स्वामी रामकृष्ण में राम का शील था, कृष्ण की अनुभूति थी। गांधी के सारे संघर्षो में सत्य आग्रह के पीछे शील की शक्ति थी। राम ने विभीषण को 'सत्य व शील' की महत्ता बताई थी। विभीषण ने राम से पूछा रावण रथी है, आप बिना रथ के हैं? कैसे विजय पाएंगे? राम ने विजय रथ बताया-सौरज धीरज तेहित रथ चाका/सत्य शील दृढ़ ध्वज पताका। शौर्य और धैर्य विजय रथ के पहिए हैं और सत्य शील का ध्वज या झंडा है। ध्वज विचार विशेष के प्रतीक होते हैं। श्रीराम का ध्वज सत्य शील ही है। सृष्टि के साथ संगति करते हुए संगीत पैदा करने का नाम ही जीवन है। जीवन शीलहीन संघर्ष नहीं। मर्यादा की बांसुरी से ही शील के सुर सरगम निकलते हैं। लोकजीवन की लयबद्धता और सुरबद्धता है शील। भारत का मन उपवन शील गंध में हहराता है।