ओम थानवी
कोई रश्क करे न करे, मुझे इस बात का फख्र होता है कि मैंने सत्यजित राय को देखा था। वह भी फिल्म बनाते हुए। तब बीकानेर के सिटी स्कूल में पढ़ता था। आठवीं या नौवीं में। पैदल का रास्ता था। बीच रास्ते रियासत के दौर का सरोवर सूरसागर पड़ता था, जिसमें अब शहर का गंदा पानी भरा जाने लगा था। सामने भव्य जूनागढ़ था। आगे पब्लिक पार्क।
तो तड़के स्कूल जाते वक्त सूरसागर की मुंडेर पर मैं सहसा ठिठका। रेलगाड़ी जैसी छोटी पटरी पर रखी एक ट्राली पर कैमरे के साथ सत्यजित राय बैठे थे। घर में आने वाले अखबारों में उनकी तस्वीर देखी होगी। पहचानने में कोई भूल नहीं की और स्कूल का रास्ता छोड़ ‘सोनार केल्ला’ (सोने का किला) की शूटिंग देखने लगा। वे सभी दृश्य राय ने स्वयं फिल्माए। दिन निकल आया और राहगीर जमा होने लगे, पर तब तक राय अपना काम पूरा कर चुके थे।
मैं अब स्कूल नहीं जा सकता था। न घर। सो बगीचे में चला गया। स्कूल की छुट्टी के वक्त तक वहीं डोलता रहा, ताकि घर लौटूं तो लगे कि स्कूल से आया हूं।
बीकानेर में फिल्म वालों के लश्कर डेरा डाले रहते थे। शूटिंग देखने हम लोग दूरियां नाप कर भी गए, पर यह अचानक सामने आया मौका निराला था। न भीड़, न शोर, न फिल्म वालों की रंगीनी। मुट्ठी भर दस्ते के साथ अपने काम में दत्तचित्त एक आदमकद। वह अनुभव मेरे दिलो-दिमाग पर छा गया। अब भी उस घड़ी की याद ताजा है।
कह नहीं सकता कि उस गैर-मामूली सुबह का मेरी सिनेमा रुचि के ढलने में कोई काम रहा। एक महान फिल्मकार को घड़ी भर के लिए औचक देखने का भला क्या असर हो सकता है? तब तक सही मायने में सत्यजित राय के बारे में कुछ मालूम भी न था। न यह कि ‘सोनार केल्ला’ जैसलमेर के किले को राय की दी उपमा है और पश्चिम बंगाल सरकार के खर्च पर बनी वह फिल्म राजस्थान को दुनिया के नक्शे पर चमकाने वाली है। खासकर जैसलमेर को। तब यह भी कहां खयाल था कि फिल्म बनने के बाद सत्यजित राय के उसी नाम वाले उपन्यास का हिंदी अनुवाद हमारे घर में होगा!
पर, यह सचाई अपनी जगह है कि बड़े होने पर गंभीर यानी सार्थक सिनेमा ने अपनी ओर बेतरह खींचा। भारतीय फिल्मकारों में ऋत्विक घटक और सत्यजित राय का ऐसा मुरीद हुआ कि घटक की फिल्म ‘तितास एकटि नदीर नाम’ (तितास नाम एक नदी का) ढाका जाकर ढूंढी (उसके अधिकार वहीं थे, अब फिल्म भारत में सुलभ) और राय की मूक फिल्म ‘टू’ (दो) का घिसा-पिटा रूप कहीं इंटरनेट से ढूंढकर उतारा। धीरे-धीरे दोनों कालजयी फिल्मकारों की लगभग सारी फिल्में जमा हो गईं। रामकिंकर बैज पर घटक का एक आधा-अधूरा वृत्तचित्र, बल्कि उसका कच्चा रूप-चित्रकार जतीन दास के सौजन्य से हासिल हुआ।
मगर, सत्यजित राय का एक वृत्तचित्र मुझे कहीं नहीं मिला। देखने को भी नहीं। सुनते हैं, वह फिल्म खुद राय के पास नहीं रही थी, न कभी उसका सार्वजनिक प्रदर्शन हुआ। चालीस साल पहले फिल्म बनी और जल्दी ही हमारी सरकार ने उस पर प्रतिबंध लगा दिया। जिन्होंने बनवाई वे भी फिल्म से बहुत संतुष्ट न थे, बाद में कहीं दिखाते, उससे पहले खुद काल कवलित हो गए।
अचानक उस खोए और लगभग भुलाए जा चुके वृत्तचित्र ‘सिक्किम’ के नेगेटिव तो नहीं, दो प्रिंट कुछ वर्ष पहले नमूदार हुए। फिल्म के अधिकार गंगटोक स्थित आर्ट एंड कल्चर ट्रस्ट ऑफ सिक्किम के पास हैं। एक प्रिंट खराब निकला। दूसरा बेहतर था, जो लंदन की फिल्म एकेडमी के पास था। उस प्रिंट को ऑस्कर एवार्ड वाली अमेरिकी संस्था (एकेडमी ऑफ मोशन पिक्चर, आर्टस एंड साइंसेज) ने भारी राशि खर्च कर सुधरवाया। नांत (फ्रांस) और लंदन के समारोहों में फिल्म दिखाई गई। अंतत: भारत सरकार का विवेक जागा।
सूचना और प्रसारण मंत्रालय की राय लेकर विदेश मंत्रालय ने दो वर्ष पहले प्रतिबंध उठा लिया। कोलकाता फिल्म समारोह में फिल्म दिखाई गई। सत्यजित राय के बेटे संदीप राय की कोशिशों के वशीभूत कोलकाता की एक कंपनी ने बावन मिनट की वह फिल्म हाल में बाजार में जारी की है।
बड़े फिल्मकार आमतौर पर वृत्तचित्र नहीं बनाते, पर सत्यजित राय ने पांच वृत्तचित्र बनाए। रबींद्रनाथ ठाकुर, चित्रकार विनोद बिहारी मुखर्जी (द इनर आइ), भरतनाट्यम नृत्यांगना बालासरस्वती (बाला) और कथाकार-चित्रकार पिता सुकुमार राय पर। भारत-चीन युद्ध के वक्त जवाहरलाल नेहरू पर और बाद में बांग्लादेश मुक्ति संघर्ष पर भी फिल्म बनाने की उनकी ख़वाहिश रही।
‘सिक्किम’ 1971 में तब बनी जब सिक्किम भारत गणराज्य का प्रदेश नहीं हुआ था; वह भारत और (चीन के कब्जे वाले) तिब्बत के बीच कायम एक रजवाड़ा था। वहां के तत्कालीन शासक (चोग्याल) पाल्डेन थोंडुप नामग्याल से सत्यजित राय के चचेरे भाई का मिलना-जुलना था। भाई दार्जीलिंग में रहते थे। राय की पहली रंगीन फिल्म ‘कंचनजंघा’ वहीं पर फिल्माई गई, जिसमें भाई ने मामूली भूमिका भी निभाई थी। उन्होंने चोग्याल की तरफ से राय को सिक्किम पर फिल्म बनाने का न्योता दिया। वृत्तचित्र के नाम पर राय के खाते में तब रबींद्रनाथ ठाकुर पर बनाई फिल्म ही थी।
संदीप राय का कहना है कि चोग्याल की अमेरिकी पत्नी होप कुक, राय के काम से बखूबी परिचित थी। हो सकता है ‘कंचनजंघा’ भी उन्होंने देखी हो। वह सत्यजित राय की पहली रंगीन फिल्म थी। उसके बाद राय ने जो ग्यारह फिल्में बनाई, वे सब श्वेत-श्याम थीं। ‘कंचनजंघा’ के बाद बनी ‘अरण्येर दिन-रात्रि’ या ‘चारुलता’ जैसी फिल्में सत्यजित राय की शुरुआती ‘पथेर पांचाली’ शृंखला (अपू-त्रयी) की तरह श्वेत-श्याम में ही जानदार लगती हैं।
लेकिन, ‘सिक्किम’ के साथ सत्यजित राय स्थायी रूप से रंगीन दौर में प्रवेश कर गए। यह अहम बदलाव चोग्याल के बजट और होप कुक के दखल की वजह से संभव हुआ या राय की अपनी मंशा से, कहना मुश्किल है। परदे की रंगीनी बरसों पहले शुरू हो चुकी थी, जिसे साठ का दशक शुरू होते-न-होते ‘कंचनजंघा’ में आजमा कर वे छोड़ चुके थे।
बहरहाल, उनकी और फिल्मों के बारे में तो मैंने सोचा नहीं, पर ‘सिक्किम’ अपने रंगों में ही खिलती है। अमेरिकी अकादमी ने महज प्रिंट के बलबूते उसे दुरुस्त तो किया, पर कितना यह कहा नहीं जा सकता। कहने का भाव यह कि फिल्म के मूल रूप का स्तर निश्चय ही इस उद्धार वाले रूप से ऊंचा रहा होगा।
सिक्किम बावन मिनट और तेईस सेकंड की फिल्म है। संभव है, मूल फिल्म थोड़ी बड़ी रही हो। इस अनुमान की दो वजहें हैं। सत्यजित राय की बेहतरीन जीवनी ‘द इनर आइ’ लिखने वाली एंड्रयू रॉबिनसन को राय बताते हैं कि ‘सिक्किम’ के शुरू में सात मिनट तक उन्होंने कोई कमेंट्री नहीं की (अमूमन वृत्तचित्र में राय खुद कमेंट्री करते थे)। यह बात फिल्म की शुरुआत में हर कोई लक्ष्य करेगा कि देर तक दूर-दूर कोई शब्द सुनाई नहीं पड़ता। केवल सौंदर्य की अपूर्व दृश्यावली के साथ परदे पर तैरती पर्वत-घाटियों की आवाज़ें, पक्षियों की चहचहाहट, मवेशियों की रुन-झुन, पुष्प लदी डालियों की सरसराहट, नदी की कल-कल, झरने की छुल-छुल, बारिश की टप-टप और लोकसंगीत।
पर उपलब्ध हुई फिल्म में यह नि:शब्द सिलसिला तीन मिनट बाद थम जाता है। सत्यजित राय सिक्किम के भूगोल का भाष्य शुरू करते हैं। जाहिर है, लगभग चार मिनट का दृश्यांकन यहां गायब है। ऐसे ही, बताया जाता है, महल के भोज के साथ गरीबों का जूठन खाना, अमेरिकी मूल की रानी को नहीं जमा था। वह दृश्य फिल्म में नहीं है। रॉबिनसन को राय बताते हैं कि फिल्म के कच्चे रूप में एक जगह नूडल खाते वरिष्ठ नौकरशाह का दृश्य देखकर रानी बोली कि यह (दृश्य) शरारतन लगता है! राय कहते हैं, वे समझ गए कि फिल्म का यह हिस्सा नहीं बचेगा।
रानी के इस बरताव से सत्यजित राय आहत हुए होंगे। उन्होंने कई फिल्में सरकारी खर्च और सांस्थानिक आग्रह पर बनाईं, पर इस तरह की बंदिश और बाद में सरकारी रोक, उन्हें कहीं और झेलने को मिली हो, इसका हवाला नहीं मिलता। शायद इसीलिए वे ‘सिक्किम’ की चर्चा कहीं खुद करते नहीं मिलते, जबकि फिल्म पर उन्होंने काफी वक्त लगाया। खुद आलेख लिखा, पढ़ा, फिल्म का संगीत तैयार किया। निर्देशन तो था ही। संदीप कहते हैं कि उन्हें याद है बाबा (राय) यूनिट को ऐसी दुर्गम ऊंचाइयों पर ले गए जहां आबादी तो थी, पर न बिजली थी न पहुंचने के सीधे रास्ते और यह परिश्रम उन्होंने चोग्याल राज के तथाकथित सुशासन, विकास, राजा-रानी की लोकप्रियता और जनोन्मुख व्यवहार के छद्म चित्रण के लिए किया।
दार्जीलिंग में उनके भाई ने ‘संपादकीय आज़ादी’ का जो भरोसा दिया था, वह गंगटोक में हवा हो गया, हालांकि फिल्म बनाने के दो साल बाद ही चोग्याल की अलोकप्रियता जनता के रोष में बदल गई। यों सिक्किम थोड़ा-बहुत (रक्षा, कूटनीति और संचार में) भारत के अधिराज में था, पर रजवाड़े का राजपाट स्वायत्त था। चोग्याल के महल के सामने 1973 में हिंसक विरोध हुआ। सिक्किम के प्रधानमंत्री ने रजवाड़े को भारत में शामिल करने की अपील की। भारतीय सेना गंगटोक पहुंची और चोग्याल बेदखल हो गए।
एक जनमत-संग्रह किया गया, जिसमें लगभग सभी लोग (97.5 प्रतिशत) भारत में विलय के हक में सामने आए। भारत के संविधान में पैंतीसवां संशोधन कर मई, 1975 में सिक्किम को ‘सहायक राज्य’ का दर्जा दे दिया गया। बाद में एक और संशोधन के बाद वह संविधान की पहली सूची का राज्य बन गया। कहते हैं, चोग्याल ने सत्यजित राय से फिल्म इसलिए बनवाई थी, ताकि भारत या चीन के सामने अंतरराष्ट्रीय दबाव बन सके। राय की कीर्ति तब तक सारे संसार में फैल चुकी थी।
सत्यजित राय ने फिल्म भले ही चोग्याल के लिए बनाई, पर उन्हें यह अहसास था कि फिल्म को निष्पक्ष नहीं रख पाए हैं। उनसे हुई बातचीत के हवाले से रॉबिनसन कहते हैं कि चालीस प्रतिशत फिल्म सरकारी आंकड़ों-जानकारियों पर बनानी पड़ी। दूसरे, उसमें नेपाली समुदाय का समुचित प्रतिनिधित्व नहीं हुआ। फिल्म देखते हुए यह महसूस होता भी है कि वृत्तचित्र में सत्यजित राय, नेपाल से आई आबादी को ज्यादा बताते हैं, पर उनका जीवन, रहन-सहन और रीति-रिवाज़ आदि फिल्म में सिरे से ग़ायब हैं। नेपाली वहां की बोलचाल की भाषा है, वह भी फिल्म में कहीं सुनाई नहीं पड़ती, जबकि स्थानीय बौद्ध समुदाय के चेहरे, वेश, शृंगार, मठ, मंत्रोच्चार, प्रार्थनाएं और त्योहार फिल्म में छाए रहते हैं।
इतना ही नहीं, फिल्म का अंतिम हिस्सा सिक्किम के पारंपरिक वर्षांत पर राजमहल परिसर में हर साल होने वाले कारगेट समारोह पर केंद्रित है। सत्रह मिनट इस उत्सव पर व्यतीत होते हैं, यानी फिल्म का एक तिहाई भाग। समारोह में आम और खास लोग भी खूब हैं, पर केंद्र में सजा-धजा राजमहल और नामग्याल परिवार है। नज़राना स्वीकार करते चोग्याल, दंडवत करती प्रजा, शाही बैंड, शाही भोज, धार्मिक रस्म-ओ-रिवाज़।
क्या सत्यजित राय के मन में बाद में इस फिल्म को लेकर कुछ ग्लानि का भाव रहा? कौन जान सकता है? हो सकता है, सिर्फ असंतोष रहा हो। अपने जीवनीकार के समक्ष वे इतना ही ‘संतोष’ प्रकट करते हैं कि फिल्म के शुरू के ‘काव्यात्मक सात मिनट’ वे अपनी मरजी के रख सके या फिल्म का ‘जीवंत और आशावादी’ अंत, पर इसे राय का बड़प्पन ही समझिए! वरना फिल्म पर उनकी छाप हर जगह नुमायां है।
तथ्यों और राजाशाही को छोड़ दें, जो वक्त के थपेड़ों में खुद अप्रासंगिक हो जाते हैं, तो ‘सिक्किम’ साधारण वृत्तचित्र नहीं। वह प्रकृति का उत्सव है। सौंदर्य का नाद है। सुखद रंगों की बरसात है। और कोमल ध्वनियों का इंद्रधनुष।
विकास की गाथा में भी सत्यजित राय अपनी बात रखने का अवकाश ढूंढ़ लेते हैं। वे बताते हैं कि सिक्किम शासन की ओर से शिक्षा मुफ्त है, पूरे बजट का एक चौथाई शिक्षा पर खर्च होता है, फिर इकलौते पब्लिक स्कूल के दृश्य और दीवार पर चोग्याल दंपति की तस्वीरें दिखाकर वे दूसरी सरकारी स्कूलों का हाल दिखाते हैं। बगैर कहे ग़रीब और अमीर की खाई की ओर इशारा करते हुए।
इसी तरह राजमहल परिसर के मेलेनुमा उत्सव में वे शाही मेहमानों की नीरस शिरकत और रानी की ठंडी मेजबानी के दृश्यों के बीच ग़रीब लोगों की चहल-पहल भरी पंगत, नाच-गान, खेल-कूद के दृश्य दिखाकर अपना मंतव्य साफ कर देते हैं। उत्सव में कदम-कदम पर नाचते-कूदते मुखौटा-धारी मसखरों की उपस्थिति बड़ी प्रतीकात्मक है। चोग्याल के प्रवेश पर वे अपनी अदा में जिस तरह ‘दंडवत’ करते हैं, वह उपहास का सा दृश्य बन जाता है। फिल्म में राय की सधी हुई कमेंट्री है, लेकिन कई जगह चुप्पी है। या संगीत। ऋत्विक घटक से उलट राय की फिल्मों में आमतौर पर शब्दों की बहुतायत मिलती है, पर ‘सिक्किम’ वृत्तचित्र होते हुए भी अपवाद है। उनके दूसरे वृत्तचित्रों में जो इंटरव्यू और नाट्य-रूपी अभिनीत दृश्य मिलते हैं, वे भी इसमें नहीं हैं। संपादन चुस्त है, पर संपादक का नाम फिल्म में नहीं है।
‘सिक्किम’ कंचनजंघा की स्वर्णिम धवल छवि से शुरू होती है, कंचनजंघा पर ही खत्म। ‘कंचनजंघा’ फिल्म से ठीक हटकर, जिसमें वे इस पर्वत-शृंखला का दृश्य सिर्फ अंत में दिखाते हैं। राय बताते हैं कि दुनिया की तीसरी सबसे ऊंची चोटी कंचनजंघा सिक्किम में पड़ती है और सिक्किमवासी उसे दैवीय रूप समझते हैं। (वैसे 1852 तक तो कंचनजंघा को ही दुनिया की सबसे ऊंची चोटी समझा जाता था, बाद में अनेक माप-नाप और गणनाएं हुईं, तब सगरमाथा यानी एवरेस्ट चोटी ऊपर निकली, कंचनजंघा तीसरे नंबर पर ठहरी।)
फिल्म ज्यों-ज्यों आगे बढ़ती है, राय इलाके की वनस्पतियों के करीब जाते हैं, घास और बांस दिखाते हुए तीस्ता नदी के इर्द-गिर्द की आबादी बताते हैं और ऊपर की ओर जाते हैं। पगडंडियां। जंगल। कोहरे में सहमे पेड़। तरह-तरह के जंगली फल। झाड़ियां। ढलवां खेत। किसान। गांव। लोग। बच्चे और औरतें। पनचक्की। लकड़ी के घर। उनके कलारूप। सब बेहद करीब से। पीछे इकतारे जैसा कोई पहाड़ी वाद्य बजता चलता है।
फिर नीचे उतर आते हैं। जातीय और सांस्कृतिक विविधता का ब्योरा। नाम्ची का बाज़ार। रविवार की सुबह गंगटोक का लाल बाज़ार। श्रमरत लोग। बुनकर। हाथकरघा। लुहार। घोड़े को काबू करता युवक। सड़क पर हाट सजाए स्त्रियां। पारंपरिक पोशाक। गहने। इन सबके ऊपर उनकी चिर-मुसकान। कैमरा चेहरा-दर-चेहरा डोलता है। थोड़ा काबू, थोड़ा स्वच्छंद। कैमरामैन सोमेंदु रॉय-सुब्रत राय के बाद जो राय के प्रिय छविकार रहे, को किसी पीठ पर बच्चा दिख जाता है। कैमरा सब छोड़कर उसके पीछे चलता है, मुड़-मुड़ कर कैमरे को निहारता बच्चा थक जाता है, पर कैमरा नहीं।
यानी फिल्म, फिल्म है। राजा-रानी की कहानी होगी अपनी जगह। बड़ा कलाकार अकाल और महामारी में भी जीवन ढूंढ़ लेगा। सत्यजित राय सिक्किम की आबोहवा, रंगों और ध्वनियों के साथ जन-जीवन को जिस तरह हमारे करीब लाते हैं, यकीन मानिए! किसी भी किस्म का बौद्धिक रंज देर तक टिका नहीं रह सकता। न बाबा राय का अपना, न दर्शक माई-बाप का।
पर सरकार का रंज शायद कभी खत्म न होता, अगर यह वृत्तचित्र सत्यजित राय जैसी हस्ती का बनाया हुआ न होता। विदेश मंत्रालय के बाबू ‘पथेर पांचाली’ को विदेश जाने से रोक रहे थे, तो नेहरू ने छुड़ाया। सिक्किम के विलय के बाद देश में इमरजेंसी लागू हो गई थी। शायद उसी दौर में ‘सिक्किम’ फिल्म पर प्रतिबंध लागू हुआ।
जैसा कि राय ने कहा, प्रतिबंध का कोई औचित्य न था, क्योंकि उस दौर में वही वास्तविकता थी। शायद सरकार में किसी बड़े बाबू ने कान भरे होंगे कि फिल्म में स्वतंत्र राजाशाही है, तिब्बती श्रद्धालु हैं, करमापा, उनका मठ, मंडराते भारतीय सैनिक और अधिकारी हैं और लोग बहुत ख़ुश नज़र आते हैं, फिल्म देख ली तो चीन सिक्किम को कभी मान्यता नहीं देगा।
चीन ने सिक्किम की मान्यता वैसे भी टाले रखी। कोई तीस साल। 2003 में झुका, तब, जब भारत ने चीन के कब्जे वाले तिब्बत प्रदेश को चीन का हिस्सा मान लिया और इस झुका-झुकी के सात साल बाद वृत्तचित्र ‘सिक्किम’ को विदेश मंत्रालय ने भारत की जनता के लिए आज़ाद किया। फिल्म बनने के पूरे चालीस साल बाद, शायद यह सोचकर कि पुनरुद्धार के बाद फिल्म अगर विदेश में बिकने लगी तो आज के दौर में उसे यहां पहुंचने में कितनी देर लगेगी? पर बाबू लोग ऐसे ही सोचते हैं। उनके पास अपनी अक्ल है और अक्ल लाल बाज़ार में तो नहीं बिकती? जनसत्ता से साभार।