दिनेश शर्मा
धर्मशाला/ ल्हासा। तिब्बतियों के निर्वासित धर्मगुरु और तिब्बत आंदोलन के शिखर नेता दलाई लामा के तिब्बत के आंदोलनकारियों को कुचलने के लिए चीन सरकार सड़क पर उतर आई है। तिब्बतियों को चीन की सेना अपने बूटों से रौंद रही है और उनपर टैंकों से हमले किए जा रहे हैं। तिब्बत की अद्भुत सांस्कृतिक विरासत पर चीन का उस तरह से हमला हो रहा है जिस प्रकार अफगानिस्तान के बामियान में तालिबान ने भगवान बुद्ध की हजारों साल पुरानी प्रतिमा पर मोटार्र और तोपों से गोले बरसाए थे। चीन के तिब्बत आंदोलन को चीन सरकार पूरी तरह से कुचल देना चाहती है, इसलिए उसने तिब्बतियों को चीन के विघटनकारी कहकर उनके सारे मौलिक अधिकारों को अघोषित रूपसे रद्द कर रखा है। चीन सरकार से मान्यता प्राप्त तिब्बतियों के बौद्ध नेता पंचेन लामा जहां बीजिंग के पक्ष में खड़े किए गए हैं, वहीं दलाई लामा के अनुयायी अलग तिब्बत पर विश्व समुदाय का समर्थन जुटाने के लिए दुनियाभर में फैले हुए हैं और चीन के दमन के खिलाफ जबरदस्त आंदोलन छेड़े हुए हैं। अमरीका दलाई लामा के आंदोलनकारियों का पूर्ण समर्थन करता है, इसलिए वह चीन को बार-बार नसीहत देता है कि वह तिब्बतियों पर बल प्रयोग करने में संयम बरते और इस समस्या का स्थायी समाधान खोजे।
चीन की सेना इस समय तिब्बत में टैंकों पर सवार है और उसे जो भी तिब्बती आंदोलनकारी मिल रहा है, उसे वह ठिकाने लगाने में लगी हुई है। ल्हासा में जबरदस्त तनाव है। तिब्बती धर्मगुरू दलाई लामा का कहना है कि चीन में तिब्बतियों का कत्लेआम हो रहा है। वह कह रहे हैं कि यह तिब्बत का सांस्कृतिक नरसंहार है, जिसकी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जांच कराई जानी चाहिए। चीन की सेना इस समय आपरेशन तिब्बत में लगी हुई है। वहां की सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी ने तिब्बत आंदोलनकारियों के खिलाफ मैदान में उतरने की घोषणा की है। इससे चीनी सेना को कम्युनिस्ट पार्टी कार्यकर्ताओं की ऐसी मदद मिल जाएगी, जिसमें कि चीनी सेना खुद तिब्बतियों पर जुर्म करने के आरोप से बची रहेगी। एक लंबे समय से ल्हासा में हालात काबू में नहीं हैं और तिब्बत आंदोलन पहले से भी ज्यादा जोर पकड़ता जा रहा है। हाल ही में तिब्बतियों ने भारत, नेपाल और दूसरे देशों में तिब्बत राष्ट्र के लिए जबरदस्त सभाएं कीं और चीन के दमन के खिलाफ प्रदर्शन किए।
तिब्बत का मामला चीन के गले की हड्डी है। विश्वसमुदाय के सामने चीन इसे अपना अभिन्न अंग कहकर तिब्बत आंदोलन को खारिज करता रहा है, लेकिन विश्वसमुदाय यह मानता है कि तिब्बतियों की धार्मिक, सांस्कृतिक और शैक्षणिक विरासत चूंकि बिल्कुल अलग है, इसलिए उनकी मांग में दम है। चीन शुरू से तिब्बत को अपने से अलग करने का विरोध करता आ रहा है। तिब्बतियों के धर्मगुरुओं में भी चीन ने विभाजन के प्रयास किए हैं, इसलिए जो बौद्ध गुरु चीन के कब्जे वाले तिब्बत में रहते हैं, वह चीन के डर से चीन का समर्थन करते हैं और जो तिब्बत के बाहर हैं, वह पूरी तरह से चीन के खिलाफ हैं। भारत के हिमाचल प्रदेश राज्य में धर्मशाला में तिब्बतियों की सरकार चलती है, परमपावन दलाई लामा उसके सर्वेसर्वा हैं। नेपाल और दूसरे बौद्ध मान्यता वाले देशों में दलाई लामा का भारी मान-सम्मान है। संयुक्तराष्ट्र और उसके सदस्य देश भी दलाई लामा को मान्यता देते हैं और उन्हें समय-समय पर अपने सम्मान से भी नवाजते हैं। चीन की यही सबसे बड़ी बौखलाहट और कमजोरी है कि वह चाहकर भी दलाई लामा के खिलाफ सीधे कोई कार्रवाई नहीं कर पाता, बल्कि उनके कार्यकर्ताओं और समर्थकों पर अपनी सेना के बूट चलवाता है, जिससे तिब्बत की मांग खत्म हो जाए। दलाई लामा तिब्बत आंदोलन के ऐसे नेता हैं, जिन्होंने दुनिया में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए अपना पूरा मिशन चला रखा है।
चीन उन देशों से असहज रहता है जो कि अलग तिब्बत या दलाई लामा का समर्थन करते हैं, दलाई लामा को संरक्षण देते हैं। भारत भी दलाई लामा के पक्ष में रहता है, लेकिन उसकी विदेश नीति में अलग राष्ट्र तिब्बत का समर्थन करना शामिल नहीं है, शायद इसके बदले में चीन कश्मीर के मुद्दे पर मुंह नहीं खोलता है। यही नहीं वह भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में चल रहे आंदोलनों पर भी खुलकर नहीं बोलता है। चीन की सबसे बड़ी चिंता यह भी है कि भारत को विश्व की महाशक्तियों से हर प्रकार का समर्थन बढ़ रहा है। भारत के साथ युद्ध के बाद से भारत की आंतरिक और बाह्य सुरक्षा में लगातार इजाफा हो रहा है और चीन समझता है कि अब भारत उतना कमजोर नहीं रहा है, जितना कि पहले था। भारत में तिब्बतियों की सक्रियता पर उसका रुख हमेशा आक्रामक ही दिखता है। चीन ने तिब्बत आंदोलन को कुचलने के लिए विश्वसमुदाय के सामने और दृढ़ता से अपना तर्क रखना शुरू कर दिया है। चीन चाहता है कि दलाई लामा उसको सौंप दिए जाएं, जोकि किसी भी देश के लिए रणनीति के हिसाब से संभव नहीं है। वैसे भी तिब्बत का आंदोलन और दूसरे देशों में चल रहे ऐसे आंदोलनों से अलग माना जाता है, क्योंकि तिब्बत की अपनी सांस्कृतिक विरासत है।
चीन ने इस समय तिब्बत के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष छेड़ रखा है और ल्हासा की सड़कों पर उसके टैंकों ने मोर्चा ले रखा है। दलाई लामा ने आशंका जताई है कि तिब्बत में चीन की सेना कई नरसंहार कर सकती है, क्योंकि सेना वहां पर शुरू से मानवाधिकारों का उल्लंघन करती आ रही है। वह कह रहे हैं कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय की यह जिम्मेदारी है कि वह चीन को मानवाधिकारों की याद दिलाए। उन्हें आशंका है कि तिब्बत में हिंसात्मक प्रदर्शन चीन की साजिश का हिस्सा हो सकते हैं, ताकि चीन को तिब्बतियों के खिलाफ सैनिक कार्रवाई करने का बहाना मिलता रहे। तिब्बती धर्मगुरू इस बात से इनकार करते हैं कि तिब्बतियों का आंदोलन हिंसात्मक है। ल्हासा की दमनकारी घटनाएं इन दिनों विश्वसमुदाय का ध्यान अपनी ओर खींचे हुए हैं, जबकि चीन सरकार तिब्बत में किसी भी प्रकार के मानवाधिकार उल्लंघन से साफ इनकार करती है। चीन के तिब्बत का इतिहास उठाकर देखें तो चीन ने तिब्बत में शुरू से ही दमनकारी नीतियों को लागू किया है और अंतरराष्ट्रीय दबाव पड़ने पर चीन कहने लगता है कि वह केवल कानून व्यवस्था को सुदृढ़ कर रहा है। हाल की घटनाओं से तिब्बत के हालात और ज्यादा खराब हो गए हैं। तिब्बत की नई पीढ़ी भी चीन से आजादी चाहती है न कि तिब्बत की स्वायत्ता।
अमरीका ने तिब्बतियों के हालात को विश्व की अंतरआत्मा की आवाज़ से जोड़ते हुए दुनिया से कहा है कि वह तिब्बत में चीनी सेना के अत्याचारों और दमन के खिलाफ आवाज़ उठाए। तिब्बत में चीनी सेना नरसंहार कर रही है और आजादी चाहने वालों को कुचल रही है। भारत में हिमाचल प्रदेश में धर्मशाला शहर में तिब्बतियों के बौद्घ मंदिरों आध्यात्म और विचार केंद्रों में पहुंची अमरीका की प्रतिनिधि सभा की स्पीकर नेंसी पेलोसी ने साफ-साफ कहा है कि तिब्बत दुनिया के देशों से कह रहा है कि वह तिब्बत में चीनी सेना के दमन और अत्याचार के खिलाफ बोलें, नहीं तो वे मानवाधिकारों के लिए बोलने का अपना नैतिक अधिकार खो देंगे। अमरीकी प्रतिनिधि नेंसी पेलोसी के बयान के जवाब में चीनी दूतावास से प्रतिक्रिया भी आ गई है, जिसमें भारत में चीन के राजदूत झांग यान ने धर्मशाला में अमरीकी स्पीकर नेंसी पेलोसी की दलाई लामा से भेंट और उनके बयान को अपने देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप बताते हुए कहा है कि किसी भी देश एवं संगठन का चीन को संकट में डालने का कोई भी प्रयास असफल कर दिया जाएगा। उन्होंने दोहराया कि तिब्बत समस्या चीन का अंदरूनी मामला है।
भारत में धर्मशाला चीन से निर्वासित तिब्बतियों का शहर और घर है। यहां तिब्बती बौद्ध भिक्षु धर्मशाला के चौराहे, मुख्य बौद्ध भिक्षु मंदिर तक चीन विरोध के पोस्टर-बैनर अटे पड़े हैं। बौद्ध भिक्षु दिन में कई बार चीन सरकार के दमन के विरोध में भूख हड़ताल, रैलियां करते हैं और सूर्यास्त के बाद मोमबत्ती जुलूस निकालते हैं। चीन की जेलों में बंद तिब्बतियों पर अत्याचार की तस्वीरें जहां-तहां यहां की दीवारों पर लगी हैं, जिनपर लिखा है फ्री तिब्बत-फ्री तिब्बत। दुनियाभर में तिब्बत को लेकर जो प्रतिक्रियाएं आ रही हैं, उनसे अब नहीं लगता कि चीन तिब्बत को ज्यादा समय तक अपने कब्जे में रख सकेगा, क्योंकि इसकी आजादी के पक्ष में समर्थन की आवाजें तेज ही होती जा रही हैं, जिनको चीन शांत नहीं कर सकता। अंतर्राष्ट्रीय प्रेक्षक मानते हैं कि वह जमाना लद रहा है, जब किसी देश में वहां के आंदोलनों की स्थिति का उस देश के बाहर पता ही नहीं चलता था। आज सुईं गिरने की आवाज़ भी पलभर में दुनिया को पता होती है। इसी तरह किसी भी देश में अलगाववादी या स्वतंत्रता आंदोलन की वास्तविकता भी अब नहीं छिपाई जा सकती है। उदाहरण के लिए तिब्बत का मामला आज पूरी दुनिया के सामने है और ड्रेगन के लिए बड़ी मुसीबत एवं कमजोरी है।