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Thursday 12 September 2013 11:13:16 AM
नई दिल्ली। देश में आवाज़ें उठ रही हैं कि दिल्ली गैंगरेप मामले के सारे तर्क सामने आने के बाद उसे 'रेयरेस्ट ऑफ रेयर' में तो नहीं माना जा सकता। फैसला भावनाप्रधान है या न्यायप्रधान? इस पर बहस शुरू हो गई है। इसे तथ्यों और सामाजिक दृष्टि से भी देखें तो यह मामला दिल्ली के संजय-गीता चोपड़ा बलात्कार और हत्याकांड से ज्यादा रेयर बिल्कुल नहीं लगता है। बहरहाल दिल्ली गैंगरेप पर फैसला कई मायनों में बेहद विचारणीय होगा और युवा पीढ़ी के लिए और भी ज्यादा महत्वपूर्ण क्योंकि इससे सारे देश की दिलचस्पी जुड़ी है जिनमें वो भी हैं जो इसमें मृत्युदंड के विरुद्ध हैं और वो भी हैं जो चारों आरोपियों को हर कीमत पर मृत्युदंड दिलाने के लिए सड़कों पर उतरे हैं।
यह घटना सभ्य समाज में बहुत दुखद है और कड़ी सजा की गुहार भी लगाती है, मगर अब यह मीडिया का बेहद उकसाया हुआ रेयर या ऐतिहासिक मामला जरूर बन गया है। यह इसलिए भी रेयर है कि इस मामले में जंतर-मंतर तक गए लोगों की भावनाओं में बहते हुए भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश अल्तमस कबीर ने भी कहा था कि इस घटना से उनका मन भी कई बार जंतर-मंतर पर जाने को किया था मगर उनकी यह टिप्पणी घटनाक्रम के चरम पर पहुंचने के बाद की है। जाहिर है कि इस टिप्पणी ने भी मामले की सुनवाई कर रहे जज पर भारी मनोवैज्ञानिक दबाव बढ़ाया है। मीडिया में लगातार बहस ही बहस और महाभियान का असर भी फैसले पर साफ दिखाई देता है।
जिस देश के राष्ट्रपति से लेकर गृहमंत्री तक और राजनेताओं से लेकर महिला संगठनों के नेताओं के टीवी शो और उनके विभिन्न सार्वजनिक कार्यक्रमों तक में कानूनी प्रक्रिया और प्रावधानों के बाहर जाकर सार्वजनिक रूप से चर्चा की जाती रही हो तो इसका मामले की सुनवाई पर भावनात्मक रूप से दबाव बढ़ना स्वाभाविक है। देश में शीर्ष पदों पर विराजमान महानुभावों से यह उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि वे भी ऐसे मामलों में जो न्यायालयों में विचाराधीन हों, पर कोई सार्वजनिक टिप्पणियां करेंगे। यह इस मामले में जरूर दुर्लभ मामला है कि इसमें विभिन्न कारणों से मीडिया से लेकर नेताओं तब ने अपने विचार प्रकट किए हैं। काश यह मामला प्राकृतिक रूप से दबावरहित सुनवाई से गुजरता। फैसला सुनाए जाने के दौरान अदालत परिसर के बाहर और इलेक्ट्रानिक मीडिया में जिस प्रकार दोषियों को फांसी की सजा के लिए भारी दबाव बनाया गया, उससे यह मामला भावनाओं से ज्यादा ही घिर गया है, इसलिए इस मामले में कानून के रक्षक जज के फैसले की एक कड़ी परीक्षा भी होगी कि उनका फैसला भावनाप्रधान है या न्यायप्रधान।
शुक्रवार को यदि इन चारों दोषियों को फांसी की सजा सुनाई जाती है तो यह फैसला निश्चित रूप से भारी दबाव में लिया गया फैसला भी माना जाएगा और समाज में इस पर प्रतिक्रियाओं के कुछ और एवं बदले हुए रूप और परिणाम भी सामने होंगे। इस मामले में बचाव पक्ष के वकीलों के तर्क भी इसलिए हवा में नहीं उड़ाए जा सकते क्योंकि देश में आरोपियों के खिलाफ आवाज़ें उठ रही हैं। इसके कई और भी पक्ष हैं, जिनमें देश के 65 प्रतिशत युवाओं की मार्मिक और दिशाहीन मनोदशा को भी देखना होगा, क्योंकि फांसी अपराधी को तो खत्म कर सकती है, अपराध को नहीं। फांसी जरूरी भी है, लेकिन प्रावधान के बावजूद हर मामले में जरूरी नहीं। दिल्ली के ही संजय-गीता चोपड़ा बलात्कार और हत्याकांड में बिल्ला-रंगा को भी तो फांसी दी गई थी? उसके बाद क्या ऐसे अपराध रुक गए?
नए आपराधिक कानून में कड़े दंड के प्रावधानों के बावजूद इस प्रकार की घटनाएं रूक नहीं रही हैं, बढ़ रही हैं, जिससे लगता है कि कड़े कानून के अलावा इसमें जागरूकता और मनोविज्ञान की भी परम आवश्यकता है। देश की युवा पीढ़ी एक गंभीर संक्रमणकाल से गुजर रही है। आज उसके आदर्शों का स्थान स्वामी विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस जैसे अनेक दार्शनिकों के बजाय जिन्होंने लिया हुआ है, उनके बारे में सभी जानते हैं हमें यहां क्या कहना? इसलिए इस मामले के फैसले में अनेक सावधानियों की जरूरत समझी जा रही है। ऐसे मामलों में यह भी जरूरी है कि सजा ऐसी हो कि अपराधियों को उनके किए का जीवनभर पछतावा होता रहे, जो कम से कम फांसी दे देने से तो संभव नहीं ही लगता।
दिल्ली गैंगरेप में सजा पर बहस के दौरान सरकारी वकील ने कोर्ट से दोषियों पर रहम न करने की अपील की है, जबकि बचाव पक्ष का तर्क है कि अगर उन्होंने कोई जुर्म किया भी है तो उन्हें एक मौका दिया जाना चाहिए और ऐसे मामलों में उम्रकैद की सजा ही दी जाती है। बहरहाल राजधानी की साकेत अदालत में सजा पर बहस पूरी हो गई है, जिसके बाद फैसला इस शुक्रवार तक सुरक्षित रख लिया गया है। इस पर सबकी नज़र है।