हृदयनारायण दीक्षित
Thursday 24 October 2013 08:51:21 AM
जिज्ञासा ज्ञान यात्रा की देवी है। उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले का डौड़ियाखेड़ा राष्ट्रीय जिज्ञासा है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण एजेंसी (एएसआई) यहां खोदाई करवा रही है। अतिप्रतिष्ठित संत शोभन सरकार ने पहल की है। यहां भूगर्भ में स्वर्ण भंडार का अनुमान किया गया है। भारतीय भूगर्भ सर्वेक्षण (जीएसआई) ने विधिवत एक रिपोर्ट बनाई है और एएसआई काम पर है। एएसआई अतिप्रतिष्ठित संस्था है। इसका गठन 1904 में किया गया था। इसी संस्था ने हड़प्पा सभ्यता के साक्ष्य दिए थे। पर यह बात 1922 की है। एएसआई की उपलब्धियां बड़ी हैं। प्राचीन सभ्यता और संस्कृति के लिहाज से उसका ढेर सारा काम रिकार्ड पर है। अयोध्या में कुछ बरस पहले श्रीराम मंदिर परिसर में भी एएसआई ने ही खोदाई की और मंदिर से जुड़े अनेक तथ्य मिले। यही एएसआई इस समय डौड़ियाखेड़ा में काम कर रही है। इसके पास जीएसआई की रिपोर्ट है। भारतीय सभ्यता का विकास नदियों के तट पर हुआ। प्राचीन सभ्यता के अनेक स्वर्ण सूत्र नदियों के आसपास भूगर्भ में हैं। सिंधु सरस्वती की महत्वपूर्ण सभ्यता सूत्र खोदाई से ही जानकारी में आए थे। सिंधु सभ्यता के विवेचक जानमार्शल ने लिखा था कि यहां सभ्यता का विकास सिंधु, गंगा, यमुना, राप्ती और नर्मदा नदियों के तट पर हुआ। डौड़ियाखेड़ा गंगा तट पर हैं। अंग्रेजी राज से टक्कर लेने रावरामबख्श सिंह का आवास भी यहीं था। इतिहास के अनेक स्वर्णसूत्र यहां की मिट्टी में होने चाहिए। शोभन सरकार, जीएसआई और एएसआई बधाई के पात्र हैं।
लेकिन डौडियाखेड़ा में जुटी भीड़ की जिज्ञासा सांस्कृतिक पुरातत्व या सभ्यता के स्वर्णसूत्रों में कम स्वर्ण भंडार में ही ज्यादा है। कोई कहता है कि क्या यहां सोना मिलेगा? कुछ लोग कहते हैं कि सोना तो मिलेगा ही। अगला बिना सोचे समझे ही टिप्पणी करता है कि सरकार बेवकूफ है, एक साधू के सपने पर विश्वास करके यहां खोदाई करवा रही है। दूसरा कहता है कि जितना कहा गया है उतना नहीं, लेकिन कुछ सोना तो मिलेगा ही। जितने मुंह उतनी बातें। कुछ पढ़े लिखे लोग अंधविश्वास बनाम विज्ञानवाद के सवाल भी उठा रहे हैं। वे संत-स्वप्न को अंधविश्वास और अपने तर्क को विज्ञानवाद बताते हैं। कायदे से देखा यह जाना चाहिए कि संत शोभन सरकार का इसमें निजी स्वार्थ क्या है? सोना मिलेगा तो देश का होगा, संत को निजी तौर पर कोई मुनाफा लेना नहीं। हमारे जैसे लोग तो पुरातात्विक वस्तुओं और तथ्यों को पाकर ही लहालोट होंगे, पुरातात्विक तथ्य सभ्यता और संस्कृति के 'स्वर्ण सूत्र' होंगे, स्वर्ण धातु से भी ज्यादा मूल्यवान और इतिहासबोध के लिए उपयोगी भी।
मीडिया प्रतिस्पर्धा ने मामले को अखिल भारतीय बनाया है, लेकिन मुख्य चर्चा में सोना ही है। खोदाई से सांस्कृतिक ऐतिहासिक पुरातात्विक सामग्री मिलने की संभावना पर कोई खुशी ही नहीं। सिंधु घाटी की खोदाई सभ्यता की खोज के लिए नहीं हुई थी। एएसआई बाद में आई। रेलवे के कामकाज के लिए हो रही खोदाई में महत्वपूर्ण तथ्य मिले। तब एएसआई ने काम शुरू किया। यहां संत ने सुझाव दिया, भूगर्भ सर्वेक्षण ने प्राथमिक रिपोर्ट दी। अब एएसआई के अध्ययन की प्रतीक्षा की जानी चाहिए। लेकिन सोना ही सारी बहस का केंद्र बन गया है। कुछेक लोगों को बेचैनी है कि संत के अनुमान पर खोदाई क्यों हो रही है? उनकी मानें तो यह सरासर अंधविश्वास है और विज्ञान के नियमों के खिलाफ है। ऐसे मित्र कदाचित नहीं जानते कि विज्ञान के कोई नियम नहीं होते। नियम प्रकृति में ही होते हैं, प्रकृति नियम आबद्ध है, इन नियमों को देखने वाला वैज्ञानिक हो सकता है और भारत में ऋषि या साधू भी। गुरूत्वाकर्षण का नियम प्रकृति में न्यूटन से पहले भी था। न्यूटन ने खोजा, लेकिन अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में ऋषि अथर्वा ने बहुत पहले ही इसका उल्लेख कर दिया था। न्यूटन भी सही। अथर्वा भी सही। सिंगमंड फ्रायड ने अभी आधुनिक काल में स्वप्न को कामभाव से जोड़ा। अथर्वा ने हजारों बरस पहले अथर्ववेद में काम देवता से स्तुति की आप दु:स्वप्न भेजते हैं। न भेजो, आपको नमस्कार है।'' फ्रायड विश्व का प्रतिष्ठित मनोवैज्ञानिक कहलाया और अथर्वा की कोई चर्चा भी नहीं करता।
विज्ञान बोध पदार्थ के विश्लेषण से आता है। स्वागत योग्य है। आत्मबोध स्वयं के विश्लेषण से आता है, स्व भी अतिसूक्ष्म और अदृश्य एक पदार्थ है। मगर गहन साधना से अनुभव में आता है। विज्ञान बोध और आत्मबोध में कोई टकराव नहीं। सभी विश्वविख्यात मनोवैज्ञानिकों का ताजा निष्कर्ष है कि हम जैसा गहन सोंचते हैं वैसे ही हो जाते हैं। यही बात हजारों बरस पहले मुण्डकोपनिषद् के ऋषि ने कही। क्या उपनिषद् की बात विज्ञान विरोधी है और आधुनिक वैज्ञानिकों की बात ही सही। विज्ञान के निष्कर्ष अंतिम नहीं होते। होते तो विज्ञान खत्म हो गया होता। विज्ञान, का लक्ष्य सत्य की खोज है। दर्शन का लक्ष्य सत्य की खोज के साथ दुख समाप्ति भी है। विज्ञान दर्शन से सामग्री लेता है अपने ढंग से जांचता है। यह उचित है। दर्शन वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर आगे बढ़ता है। छलांग लगाता है, विज्ञान बहुत दूर तक साथ नहीं चल पाता।
उम्मीद है कि विज्ञान अभी और विकसित ,लेकिन डौडियाखेड़ा से जुड़ी सारी चर्चा सोने तक सीमित है। यह भी कोई बुरी बात नहीं। स्वर्ण अतिप्राचीन काल से मानव आकर्षण रहा है। ऋषियों ने सृष्टि गर्भ को 'हिरण्यगर्भ' कहा है। ऋग्वेद में हिरण्यगर्भ को प्रथमा बताया गया है। स्वर्ण आकर्षण से मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम भी नहीं बचे। सोने के मृग वनउपवन में नहीं कूदते। श्रीराम स्वर्ण मृग की ओर भागे और सीताहरण हो गया। स्वर्ण लालसा पर संयम जरूरी है। मनुष्य की इसी स्वर्ण लालसा ने देवताओं को भी स्वर्ण आभूषण पहनाए है। देवता सोना पहनते थे या नहीं। यह बात पता नहीं। लेकिन मनुष्य ने अपनी इच्छाएं उन पर लादी हैं। यह बात प्रामाणिक है। यजुर्वेद के 40वें अध्याय के ऋषि को संभवत: यह बात नहीं जंची। उन्होंने लिखा, सत्य का मुख स्वर्ण ढक्कन से ढका हुआ है। हे देवो! स्वर्ण ढक्कन हटाओ, मैं सत्य का दर्शनाभिलाषी हूं।'' डौडियाखेड़ा के बतरस में सबके मुंह पर सोना है। उसका वजन, उसका होना या न होना। चर्चा के केंद्र और परिधि में सोना ही सोना। सत्य तत्व सोने की चर्चा में फिसल गया है।
एएसआई के उत्खनन से ऐतिहासिक तत्व की उम्मीदे हैं। स्वर्ण मिले यह बात शुभ होगी ही। इतिहास बोध के स्वर्णसूत्र मिलें यह बात और भी शुभ होगी। अंग्रेजीराज के दौरान कनिंघम ने भी उन्नाव के इस क्षेत्र को पुरातत्व की दृष्टि से महत्वपूर्ण बताया था। लेकिन गंगा तट के इस विशेष क्षेत्र में खोदाई का काम नहीं हो पाया था। इतिहास जानने और जांचने के काम में पुरातत्व की भूमिका है। वास्तविक इतिहासबोध ही राष्ट्र को शक्तिशाली बनाता है। रावरामबख्श सिंह जैसे पूर्वजों पर हम सब गर्व करते हैं, उनसे जुड़े प्रसंगों पर मिलने वाले साक्ष्य हमारा स्वाभिमान बढ़ाएंगे। संभावना है कि इस खोदाई से प्राचीन सभ्यता और संस्कृति के अन्य सूत्र भी पकड़ में आ सकते हैं। यहां प्रसिद्ध देवी मंदिर है। गंगा की लहरें इस मंदिर की सीढ़ियों को दुलराती रहती है प्रतिपल। कुछ तो खास बात जरूर है इस धरती के अंतस् में। प्रथम स्वाधीनता संग्राम (1857) में यहां के अनेक वीर लड़े, फिर 1940-47 की लड़ाई में भी। निराला जैसे महान सर्जक कवि और डॉ रामविलास शर्मा जैसे चिंतक इसी क्षेत्र के हैं। संविधान निर्माण वाली सभा के सदस्य और स्वाधीनता सग्राम के शिखर राजनेता विश्वंभर दयाल त्रिपाठी भी इसी धरती के। ऐसे ढेर सारे नाम हैं इतिहास के आंचल में। यहां जन्में नायकों ने हमेशा राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय फलक पर ही सोचा। यह निधि किसी भी वजन के स्वर्ण भंडार से ज्यादा है।