हृदयनारायण दीक्षित
Saturday 16 November 2013 07:17:26 AM
आधुनिक काल का नया रोग है तनाव। तनाव निंदित हो रहा है, लेकिन जीवन में इसकी खास भूमिका है। यह मन की साधारण कार्रवाई है तो भी असाधारण उथल-पुथल पैदा करती है। हरेक सफल व्यक्ति तनावग्रस्त है, सफलता के लिए किए गए अनथक श्रम ने उसे तनावग्रस्त बनाया है। असफल व्यक्ति भी तनावग्रस्त हैं, वे जो चाहते हैं, वैसा नहीं पा सके हैं। जगत् प्रतिपल परिवर्तनशील है। दिक्काल इस परिवर्तन का नेतृत्व करता है। परिवर्तन की गति अतितीव्र है। हम तद्नुसार स्वयं को बदल नहीं पाते, इसलिए तनाव में फंसते हैं। तनाव हमारे लिए शुभ सूचना है कि हमको अपनी जीवनशैली, दृष्टिकोण और निर्णय करने वाली बुद्धि को नए सिरे से अनुकूलित करना है। तनावमुक्ति के दो ही उपाय हैं, पहला कि हम प्रकृति के परिवर्तन चक्र से स्वयं को बाहर कर लें, जो हो रहा है, जैसा हो रहा है, उसका स्वागत करें। दूसरा उपाय है कि हम स्वयं परिवर्तन चक्र की गति के अनुसार स्वयं को अनुकूलन करें और दिक् और काल के अनुसार जिएं। पहला उपाय बहुत कठिन है। इसके लिए ज्ञान और भक्ति ही दो मार्ग हैं। परिपूर्ण ज्ञानी अस्तित्व की हरेक घटना को जस का तस स्वीकार करता है और परिपूर्ण भक्त अस्तित्व के साथ एकात्म होकर नृत्यमगन रहता है।
तनाव मुक्ति का दूसरा मार्ग कर्म है। गीताकार और पतंजलि ने उसे योग कहा है। आधुनिक ज्ञान की शैली में उसे प्रबंधन कह सकते हैं। मनोवैज्ञानिक इसे 'वर्क मैनेजमेंट' कह सकते हैं। वस्तुत: यह दिक्-काल का ही अनुसरण होगा। वैज्ञानिक युक्ति में इसके भी दो भाग कर सकते हैं। पहला परिस्थिति का अध्ययन, विश्लेषण और प्रबंधन तथा दूसरा अपनी कार्ययोजना के अनुसार समय का प्रबंधन। कहना आसान है, लेकिन करना कठिन। हम रेल यात्रा के लिए कई दिन पहले तैयारी करते हैं। निर्धारित दिन आता है, समय निकट होता है, हम होते घर में हैं, मन रेलवे स्टेशन पर पहुंच जाता है। यही तनाव की भूमिका है। घर से चलते हुए कोई मित्र आ गए, प्रबंधन असफल हो गया, तब ट्रेन छाती से गुजर रही होती है। तनाव अपने वीभत्स रूप में प्रकट होता है। मित्रगण समय की कमी का रोना रोते हैं। यह भी तनाव का खेल है। हमारी अपनी राजनैतिक व्यस्तताएं हैं तो भी हमारे हर माह अनेक आलेख छपते हैं। मित्र कहते हैं कि समय कैसे निकालते हैं? समयाभाव का रोना आधुनिक काल का मुख्य तनाव है।
क्या वास्तव में समयाभाव जैसा कोई भाव अस्तित्व में है? सृष्टि कब बनी? पता नहीं? सुनता आया हूं कि सूर्य आदिकाल से ऐसे ही उग रहे हैं, सूर्योदय का नियत और निश्चित समय पंचांग में लिखा रहता है। संभव है कि सूर्य के सामने समय की कोई समस्या न हो। वे ही संवत्सर, मास और दिवस जेसी समय इकाईयों के निर्माता हैं, लेकिन प्रकृति के सभी जीवों के लिए दिन और रात एक जैसे हैं। प्रतिभाशाली वैज्ञानिक और साधारण किसान मजदूर के पास अलग-अलग समय नहीं है। चौबीस घंटे ही सबको मिलते हैं। आधुनिक उपकरणों ने तो समय बचाया है। यात्राएं कम समय ले रही हैं। तमाम काम मशीनें निपटा रही हैं। तब भी समय का रोना है। समय अपने मूल रूप में जस का तस है। हमारे मन की सक्रियता में उसका आकार कम जान पड़ता है। हम वर्तमान का सुख नहीं उठाते, भविष्य को लेकर हड़बड़ी में होते हैं और अक्सर तनावग्रस्त हो जाते हैं। भूत और भविष्य क्रमश: स्मृति और योजनाएं हैं। स्मृतियां और योजनाएं वर्तमान में ही होती हैं, लेकिन हम स्मृतियों के चक्कर में अतीत तनाव में फंसते हैं और योजना आकांक्षा को लेकर भविष्य तनाव में, लेकिन इन दोनो में भविष्य तनाव फ्यूचर टेंस बड़ा दुखदाई है।
वैदिक काल और उत्तर वैदिक काल के समाज तनावपूर्ण नहीं दिखाई पड़ते। आज जैसी समृद्धि और उपभोक्ता सामग्री उस काल में नहीं थी। यातायात के साधन नहीं थे तो भी मुद, मोद, प्रमोद का वातायन था। वैदिक पूर्वज 100 शरद् चंद्र देखने की लालसा वाले काव्य गाते थे। वे ऊषा के आगमन को देखकर ही लहक उठते थे। धरती में स्वाभाविक रूप से उगी वनस्पतियां भी उन्हें रोमांचित करती थीं। वे उनकी प्रशंसा में मंत्र गायन करते थे। नदियां उन्हें काव्य सृजन के लिए उकसाती थीं। वे प्रगाढ़ भावबोध में नदियों की प्रशस्ति करते थे। मेरे जैसे विद्यार्थी के मन में स्वाभाविकही प्रश्न उठते हैं कि, क्या तनाव का कोई संबंध अभाव से भी है? यदि हां! तो वैदिक और उत्तर वैदिक काल में आज जैसी जीवनोपयोगी वस्तुओं का अभाव था तो भी तनाव क्यों नहीं था? उपभोक्ता वस्तुएं बढ़ी हैं, तमाम साधन बढ़े हैं, वातानुकूलन आया है, 'ठंढी में गरमी का अहसास' बढ़ा है। गर्मी की ऋतु में ठंढी हवाएं हैं। आज अभाव का भी अभाव हो गया है, लेकिन तनाव अधिकांश समाज की समस्या है।
मन गतिशील और चंचल है। इसका रंजन नहीं हो सकता। रंजन का अर्थ है रंगना। रंग चढ़ाने के लिए वस्तु को स्थिर होना चाहिए। मन का रंजन हो कैसे? तो भी 'मनोरंजन' की बाढ़ है। टीवी पर हास्यास्पद हास्य कार्यक्रम बढ़े हैं। दयनीय अश्लीलता है। पुरूष पात्र स्त्री बनकर हंसाने का फूहड़ प्रयास कर रहे हैं। हंसी तो भी नहीं आती। पुरूष का स्त्री की तरह चलना बोलना हास्य नहीं पैदा करता। हास्य कार्यक्रमों के साथ गाने बजाने की प्रतिस्पर्धा है। प्रतियोगिता से छंट गए युवकों युवतियों के आंसू हैं। वे तनावग्रस्त हैं। दर्शकों से अपील है कि वे इनके या उनके नंबर को वोट दें। इनका या उनका तनाव बढ़ाएं। 'तनाव' बिकाऊ माल है। मनोचिकित्सक तनाव घटाने के लिए परामर्श दे रहे हैं। मोबाइल कंपनियां अपरिचित लोगों से अश्लील वार्ताएं करवा रही हैं। तनाव तो भी नहीं घटता। यह तनाव सिर्फ मनोवैज्ञानिक समस्या नहीं है। समाज प्रतिस्पर्धी हो गया है। इसलिए हरेक व्यक्ति अकेला है। प्राचीन काल का समाज सहमना और सहचित्त था। प्रतिस्पर्धा थी ही नहीं। तनाव आधुनिक सभ्यता का वर्जित फल है। आयातित सभ्यता का आयातित माल।
पूर्वजों ने संतोष को परमधन धन बताया था। यूरोपीय विद्वानों ने बताया कि असंतोष ही विकास का कारण है-अनहैपीनेस इज दि काज आफ प्रोग्रेस। हमने इसका गहन अर्थ नहीं लिया। पाल केरेस के इसी अंग्रेजी वाक्य को कुछ इस तरह पढ़ने की छूट ले रहा हूं-प्राग्रेस इज दि काज आफ अनहैपीनेस। पश्चिमी तर्ज का विकास ही दुख का मूल कारण है। सांख्य दर्शन के द्रष्टा कपिल ने ठीक ही विकास के हरेक चरण को 'विकार' कहा था। वह एक दार्शनिक विवेचना थी, लेकिन यथार्थ में भी वैसा ही दिखाई पड़ रहा है। हमने प्रकृति से युद्ध किया, कथित विकास किया। प्रकृति और हमारे बीच की लयबद्धता टूटी। दिक्-काल रूठ गए। पक्षी गीत नहीं गाते, तितलियां नृत्य नहीं करतीं, वनस्पतियां हहराकर हरियाती नहीं। हम अपनी जड़ों से कटे पेड़ जैसे ठूंठ हो रहे हैं। जड़े जीवन रस नहीं पाती। जीवन का केंद्र रसहीन हो गया है। भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में रस का स्थान जड़ ही बताया है, जैसे बीज से पेड़ होता है, पेड़ से फूल और फल होते हैं वैसे ही जड़ में रस होता है, यही रस नाटक के समस्त भावों में फैलता है।'' भरत ने नाटक के रस के लिए पेड़ का रूपक गढ़ा था। हम सबका जीवन भी नाटक जैसा ही है। भरत ने नाटक को वृक्ष बताकर रसपूर्ण वार्ता की।
उपनिषद् के ऋषियों ने संसार को मजेदार वृक्ष बताया। यह वृक्ष उल्टा है। इसकी जड़े आकाश में हैं। फूल पत्ते नीचे। ऋषि जानते थे कि सृष्टि का सूक्ष्म और मूल तत्व आकाश है। हमारा मूल ऊपर आकाश में है। ऋग्वेद के ऋषि ने बताया था कि ऋचाएं परम आकाश में रहती हैं, वहीं जहां देवशक्तियां रहती हैं। ऋचाएं जागृत लोगों की कामना करती हैं उसके पास आने की कामना करती हैं।'' जागृत तनावग्रस्त नहीं होते। तनावग्रस्त के पास ऋचा, काव्य और गीत क्यों आएं? उसके पास तो उसके बच्चे भी आने से कतराते हैं। मूल से टूटे, जड़ से कटे पेड़ पर तोता मैंना भी नहीं आते बतरस करने। इस आख्यान का अर्थ यह नहीं कि इस आलेख का लेखक तनाव के रहस्य जानता है और तनाव मुक्त हो चुका है। आधुनिक सभ्यता के कारण हमें भी तनाव का रोग लग चुका है, लेकिन मूल से जुड़े होने के कारण जीवन की रसधार अभी भी प्रवाहित है। मूल याद रखना जरूरी है। मूल की भूल का कोई प्रायश्चित नहीं। तनाव मूल की भूल का ही पुरस्कार है।