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साहित्य सृजन और पुस्तक प्रेम!

Thursday 21 November 2013 08:03:41 PM

हृदयनारायण दीक्षित

हृदयनारायण दीक्षित

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साहित्य सर्वोत्तम विलास है। इसका अनुभूतिपरक सृजन चिद्विलास है। विचारपरक सृजन भी आनंददाता हैं। पठन-पाठन भी रमणकारी है और इसका साधन है-पुस्तकें। पुस्तक प्रेम भी सामान्य नहीं। इस प्रेम को क्या कहें? क्या नाम दें? संकेत मात्र हो सकते हैं इस प्रेम के। यह अनुपम, अद्वितीय, अनूठा और बेजोड़ है। पुस्तकें सीधे संवाद करती हैं। वे निरंहकारी हैं, तमाम नया सिखाती हैं तो भी स्वयं कोई आदेश नहीं देतीं। आप पढ़ो! मन ही मन ही बोलो! सुनो! गुनो फिर जो चाहो सो करो! यात्रा में वे साथ होती हैं-ममतामयी मां की तरह। लोकमंगल अभीप्सु बहन या नखशिख प्रेमी अभिन्न की भूमिका में। घर थका मांदा लौटता हूं तो घर की पुस्तकें चहक उठती दिखाई पड़ती हैं। जान पड़ता है कि कुशलक्षेम पूंछ रही हैं-कैसी रही यात्रा? कैसा रहा दिवस? छोड़ो तनाव? प्रशांत करो मन। मिलो! बतियाओ! शब्द संसार में उतरो! क्षर से अक्षर की सोंचो! रेल या जहाज यात्रा में पड़ोस में बैठे मित्रों के पास रखी पुस्तकों को देखकर लालच होता है। अपनी पुस्तकें तो अपनी हैं ही। इन्हें कभी भी पढ़ लेंगे पर पड़ोसी की पुस्तक प्राणों में अटक गई है। तब वार्ता प्रारंभ करने का विषय सोंचता हूं। मैं समय पूंछता हूं। जाड़ा गरमी या वर्षा जैसे भिन्न विषय पर बात करता हूं और जुगाड़ पाते ही मन की बात कह देता हूं क्या मैं आपकी पुस्तक पढ़ सकता हूं? और पुस्तक पाकर धन्य हो जाता हूं।
प्यास तो भी नहीं बुझती। सैकड़ों पुस्तकें पढ़ने के वाद भी मन प्राण प्यासे हैं। पुस्तकों में हमारे अपने समय की थाह होती है। हमारे इस समय के पहले का इतिवृत्त भी हो सकता है और राग, द्वैष, ईर्ष्या, प्रीति-अप्रीति, हर्ष, विषाद और आश-उल्लास का विवरण भी। इतिहास समझने की अपनी अपनी दृष्टि है, लेकिन सभी शैलियों को संग्रह करने के लिए भी पुस्तकें ही उपयोगी हैं। मेरे लेखे समाज की रूचि, प्रवृत्ति या निवृत्ति जानने के लिए वांग्मय की समझ जरूरी है। पुस्तकें छापेखाने के बाद ही ठीक से अस्तित्व में आईं। पहले उन्हें भोजपत्र आदि पर लिखा जाता था, लेकिन इसके भी पहले लिपि का आविष्कार जरूरी था। लिपि का अस्तित्व भी बाद में आया। पहले रूप, पदार्थ या भाव के प्रकटीकरण के लिए ध्वनि प्रतीक बने। समूचा वैदिक साहित्य गाया ही गया है। स्वाभाविक ही उसका बड़ा भाग काव्य था। वह भारत के साधकों का कंठहार बना। लिपि और छपाई के आविष्कार के बाद वह पुस्तक बना, इसलिए श्रुति और साहित्य का इतिहास भी तत्कालीन समय और समाज का इतिहास दर्पण हो सकता है। राष्ट्रजीवन में पुस्तकों की अतिविशिष्ट भूमिका है।
पीछे 10-15 साल से पुस्तकों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। लेखक लिख रहे हैं, नई पुस्तकें आ रही हैं। नई पुस्तकों की संख्या का अनुमान प्राय: प्रकाशकों द्वारा छापी गई पुस्तकों के आधार पर लगाया जाता है, लेकिन अनेक लेखक भी स्वयं अपनी पुस्तकें प्रकाशित करवा रहे हैं। कवियों द्वारा स्वयं प्रकाशित कविता की कम से कम 200 पुस्तकें मुझे भेंट की गई है। ऐसे ही अन्य विषयों पर लेखक विचारक अपने स्तर पर स्वयं व्ययभार उठाकर पुस्तकें छपवा रहे हैं। ऐसे लेखकों प्रकाशकों को प्रचार का भूखा बताने वाले लोग भी कम नहीं हैं। ऐसा आरोप बिल्कुल गलत है। अपने नाम प्रचार में सुखानुभूति मनुष्य की स्वाभाविक प्रकृति है। कवि-लेखक के चित्त में भाव विचार उगते हैं। उसकी अपनी दृष्टि में उनका महत्व है। प्रकाशन लोकार्पण के बाद यह सामग्री सामाजिक संपदा हो जाती है। प्रचार व्यसन भी हो तो भी प्रशंसनीय है। कवि प्राय: अनुभूति को शब्द देते हैं और लेखक विचार को, लेकिन दोनो ज्ञान संपदा में वृद्धि करते हैं। वह भी अपनी कमाई का धन लगाकर। वे इस धन से कोई भी विलासी भौतिक सुख उठा सकते थे, लेकिन साहित्य सुख का मजा ही और है। साहित्य रस चेतना को नया तल देता है।
बीते सप्ताह कवि नरेंद्र सिंह आनंद की काव्य कृति 'गीत के भीगे स्वरों से' व जगन्नाथ वर्मा की लिखी 'क्रांतिकारी बिस्मिल' का लोकार्पण सुख मिला। दोनों किताबों का प्रकाशन लेखकों ने ही किया है। काव्य संकलन में अनुभूति का गाढ़ापन और गहराई है। कवि हृदय असामान्य होते हैं। तुलसीदास से अच्छा उदाहरण क्या हो सकता है? पूरी रामकथा ही सरस सलिल काव्य प्रवाह है, लेकिन राज्यारोहण के प्रसंग में कवि साहस अनूठा है। लिखा है कि चारों वेद आए, श्रीराम को प्रणाम किया और चले गये। तुसलीदास बहुपठित थे। वेदों से भलीभांति परिचित थे। वेद के प्रति भारतीय समाज की आस्था से भी अवगत थे, लेकिन श्रीराम उनके महानायक, आराध्य, मनुष्य, मर्यादापुरूषोत्तम और ब्रह्म भी थे। सो कवि ने वेदों को मनुष्य बनाया और अपने आराध्य को प्रणाम करवाया। नरेंद्र की कविता में जिज्ञासा का ऐसा ही मानवीकरण है। कवि भावों के मानवीकरण में सिद्धहस्त होते हैं। विचार जगत् में ऐसा कार्य प्राय: नहीं देखा जाता। आधुनिक कविता को लेकर तमाम बहसें जारी हैं। उस बहस में न पड़कर आम जन की कसौटी की तरफ ध्यान दिया जा सकता है। कविता गुनगुनाने लायक अवश्य होनी चाहिए। सारे गीत कविता होते हैं, लेकिन सभी कविताएं गीत नहीं होंती। गीत होती तो ज्यादा ग्राह्य और सलिल प्रवाहमान होती। छंद विधान वगैरह की बातें भी उचित हैं, लेकिन कविता के रसिक गुनगुनाने में ज्यादा मजा लेते हैं।
ऋग्वेद के ऋषि कवि का ध्यान मेढ़कों की आवाज़ पर भी गया है। ऋषि के अनुसार मेंढ़क समूह में वैसे ही गाते हैं जैसे मंत्र गायक मंत्र उच्चारित करते हैं। तुलसीदस के भाव बोध में भी कहा गया है-दादुर ध्वनि चहुं ओर सुहाई, वेद पढ़हुं जनु वटु समुदाई।' तुलसी ने पावस के समय कोयल का मौन सुना और दादुर का गायन-'तुलसी पावस के समय धरी कोकिला मौन, अब तो दादुर बोलिहें, हमें पूछिहें कौन।' हम सब मौन देखते हैं, लेकिन कवि मौन सुनते हैं। मौन भी गीत संगीत ही होता है। जो सुन लें वह कवि और जो न सुन पाए वह साधारण मनुष्य। हमारे जैसे विद्यार्थी काव्य सृजन नहीं कर सकते। हम वाद विवाद संवाद के कोलाहल में अपने मन के शब्द चुनते हैं। कवि प्रशांत मौन के संगीत में अनुभूति की ध्वनि सुनते हैं। नरेंद्र आनंद जैसे अनेक कवि ऐसा ही गुन रहे हैं, प्रशांत अनुभूति के कारण। कविता वस्तुत: मर्म का ही आख्यान है। मर्म में भी आह का आख्यान ज्यादा है। आह का आख्यान ही 'वाह-वाह' का लोकसमर्थन पाता है। वाह-वाह का आख्यान लेकर रची गई कविता पर वाह-वाह सुनने को नहीं मिलता। तब समझदार श्रोता 'आह' कहते हैं। अहा और आह में फर्क बताने की जरूरत नहीं। वाह वाह और अहा! आह्लाद ही प्रकट करते हैं।
अच्छा श्रोता भाग्यवान होता है। तब वक्ता या कवि सामने होता है। शब्द के साथ उसकी भाव भंगिमा भी जीवंत होती है, लेकिन ऐसे अवसर घट रहे हैं। इसका विकल्प पुस्तकें हैं। पुस्तकों का पाठ सृजन को पुनर्जीवित करता है। संभव है कि एक पाठ से कथ्य का पुनर्जीवन न हो पाए। भारत में इसीलिए पाठ और पुनर्पाठ की परंपरा है। दुर्गा सप्तशती को पहली दफा 35 वर्ष की उम्र में पढ़ा था। तब यह एक कथा लगी। घर में पाठ की परंपरा थी। सो पुनर्पाठ जारी रहा, 50 की उम्र में इसी में समूचा भारतीय दर्शन मिल गया। भौतिकवाद की चरम ऊंचाईयां मिली और एकेश्वरवाद का मूल सत्य भी। इसी में पुनर्जन्म का सिद्धांत भी मिला और भक्तिदर्शन का गाढ़ापन भी। यह पुस्तक रूप न होती तो पाठ पुनर्पाठ कैसे होता? पुस्तकें विराट विश्व को शब्दों में समेटती हैं। विद्यार्थी भाव के सामने शब्द धीरे-धीरे अपना रूप प्रकट करते हैं। पहले घूंघट उतारते हैं, फिर मुस्कराते हैं, विद्यार्थी प्रीति गहरी देखकर सीधे अंत:स्थल में जाते हैं। वे पहले व्यक्तित्व का भौतिक परिवर्तन करते हैं फिर प्रगाढ़ रासायनिक परिवर्तन भी करते हैं। शब्द अपना काम करते ही हैं। कोई भी पुस्तक पढ़ने के बाद हम वही नहीं रह जाते, जेसे पढ़ने के पूर्व होते हैं। सतत् आत्म रूपांतरण का रसायन हैं-शब्द सत्य। सत्य-शब्द।

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