दिनेश शर्मा
Tuesday 10 December 2013 06:02:07 AM
नई दिल्ली। भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, अगर दिल्ली में रामलीला मैदान और जंतर मंतर पर अन्ना के जनआंदोलन का अघोषित समर्थन नहीं करते तो न तो इस जनआंदोलन को राष्ट्रीय पहचान मिल पाती और ना ही अरविंद केजरीवाल को राजनीति में उतरने और आम आदमी पार्टी बनाने का यूं ही कोई सपना आता। यह भाजपा एवं संघ की एक दूसरी बड़ी भूल साबित हुई है, जिसने उस जनसमूह में राजनीतिक महत्वाकांक्षा पैदा कर दी और युवा कार्यकर्ताओं के सहयोग से दिल्ली में अरविंद केजरीवाल का आम आदमी पार्टी के रूप में उदय हुआ। दिल्ली विधान सभा के चुनाव हुए जिनमें आप के तो तंबू गड़ गए, मगर भाजपा के तंबू उखड़ गए। याद कीजिए! ऐसी ही बड़ी भूल भाजपा ने उत्तर प्रदेश में भी की थी, जिसमें उसने मुलायम सिंह यादव सरकार से समर्थन वापस लेने के बाद लखनऊ के मीराबाई मार्ग स्टेट गेस्ट हाउस में मायावती के साथ बैठक कर रहे बसपा विधायकों को समाजवादी पार्टी के नेतृत्व द्वारा जबरन उठाए जाने की प्रतिक्रिया स्वरूप बसपा को समर्थन देकर मायावती को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी थी। उस समय बसपा कुछ नहीं थी। भाजपा ने बसपा को समर्थन की इस भयंकर भूल की असहनीय और भारी कीमत चुकाई। मायावती का रातों-रात देश की राष्ट्रीय राजनीति में पदापर्ण हुआ। वह तो इस दौर की दलित क्रांति की नेता कहलाकर उत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री बन गईं, मगर भाजपा का उत्तर प्रदेश से हमेशा के लिए सफाया हो गया। इसीलिए आज यह भी प्रमुखता से कहा जा रहा है कि दिल्ली में पीछे से अन्ना आंदोलन का समर्थन करना भाजपा को अत्यंत महंगा पड़ा है। दिल्ली में युवा राजनीति की एक नई बड़ी चुनौती उसके सामने आ गई है, दिल्ली में नरेंद्र मोदी को इन नए समीकरणों से भी निपटना होगा। रही बात आम आदमी पार्टी की तो उसका भविष्य समझने के लिए देश में कई बार हो चुके ऐसे उलटफेर के इतिहास में जाना होगा।
हालांकि भावनाओं में लिए गए राजनीतिक फैसलों का इतिहास बताता है कि अपवाद को छोड़कर ऐसे फैसले स्थाई या लंबा रास्ता तय नहीं कर पाए। ताजा उदाहरण है कि एक समय बाद अन्ना का जन आंदोलन अपना घोषित लक्ष्य भेदे बिना ही दम तोड़ गया। हां! अरविंद केजरीवाल के लिए यह आंदोलन जरूर महा वरदान साबित हुआ। देश के ऐसे राजनीतिक घटनाक्रम कोई नई बात नहीं है, देश में कांग्रेस अध्यक्ष और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के शासन के खिलाफ राष्ट्रव्यापी जेपी आंदोलन भी ऐसे ही उठा था। इससे जनता पार्टी बनी और इंदिरा गांधी को अपदस्थ कर वह सत्ता में तो आ गई, लेकिन सरकार नहीं चला पाई। कुर्सी के लिए ये सब आपस में ही लड़ मरे। कुछ समय बाद फिर लोकसभा चुनाव हुए और इंदिरा गांधी फिर उसी हनक से देश की सत्ता में लौट आईं। जेपी आंदोलन भी बाद में गुमनामी में चला गया। जनता पार्टी भी नहीं रही। इसी प्रकार राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अपने ‘राम’ राजीव गांधी पर ‘बोफोर्स तोप’ तानकर देश में जनमोर्चा बनाया था। इसकी भी प्रचंड लहर चली और विश्वनाथ प्रताप सिंह कांग्रेस को उड़ाकर प्रधानमंत्री बन गए। राजीव गांधी के खिलाफ जनमोर्चा को जनादेश देने का जनता का यह प्रयोग भी बुरी तरह विफल साबित हुआ। विश्वनाथ प्रताप सिंह का राजीव गांधी के खिलाफ बोफोर्स षड़यंत्र भी सामने आया। इसके दुष्परिणाम से घबराए राजा ने अपनी प्रधानमंत्री की कुर्सी बचाने के लिए ही देश में मंडल कमीशन का ब्रह्मास्त्र चलाया था, मगर बाद में न जनमोर्चा रहा और न राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह का ताज। राजनीतिक जीवन में आज सक्रिय कुछ गैर कांग्रेसी नेता इन्हीं आंदोलनों की देन हैं। देश के कई राज्यों में भी अतीत में दिल्ली जैसा उलटफेर देखने को मिले हैं, लेकिन बाद में जाकर कुछ ही नेता अपने राजनीतिक आंदोलन को बचाए रखने में सफल हो सके। इतिहास यही है कि कुछ अपवादों को छोड़कर भावना प्रधान राजनीतिक उलटफेर आम जनता के लिए ज्यादा सुखद नहीं रहा, अंततः जनता धरातलीय दलों के ही पास लौटी। ऐसे ही और भी उदाहरण हैं।
याद कीजिए! सन् 1985 में देश के असम राज्य में छात्र नेता प्रफुल्ल कुमार महंत और भृगु फुकन के नेतृत्व में आम आदमी पार्टी की तरह आल असम स्टूडेंट फेडरेशन का छात्र आंदोलन अपने चरम पर था और उसी दौरान असम में आम चुनाव भी आ गए। ये छात्र इस चुनाव में कूद पड़े और छात्र आंदोलन की हूक में असम की जनता आ गई और उसने असम में कांग्रेस की सत्ता पलट कर छात्र आंदोलन को पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता सौंप दी। यह असम गण परिषद की सत्ता कहलाई, जिसमें प्रफुल्ल कुमार महंत मुख्यमंत्री और दूसरे छात्रनेता भृगु फुकन गृहमंत्री हुए। यह देश के सभी राज्यों में सबसे कम उम्र के युवाओं की या यह कहिए कि छात्रों की सरकार थी। असम की जनता ने भावनाओं में बह कर छात्र आंदोलन को सत्ता का जनादेश तो दे दिया, लेकिन बाद में उसे अपने फैसले पर भारी पछतावा हुआ और उसने अगले चुनाव में न केवल असम गण परिषद को सत्ता से बाहर कर दिया, अपितु उसके अनेक नेताओं की जमानत जब्त कराते हुए फिर से कांग्रेस को सत्ता सौंप दी। प्रफुल्ल कुमार महंत और उन जैसे एक दो नेता ही कुछ काल तक राजनीति में आगे चल सके, बाकी को कोई नहीं जानता। कई गुमनामी में चले गए। आज वहां कांग्रेस की सरकार है और असम का छात्र आंदोलन अब केवल गुज़रे ज़माने की बात रह गई है। दरअसल असम की जनता का वह सच्चाईयों से दूर भावनाओं में लिया गया फैसला था। उस राजनीतिक घटनाक्रम की तुलना दिल्ली के आम आदमी पार्टी के मौजूदा राजनीतिक घटनाक्रम के भविष्य के हश्र से की जा सकती है, यह अलग बात है कि अरविंद केजरीवाल इस आंदोलन को राजनीति की सच्चाईयों से जोड़ें और गंभीर राजनीतिक फैसलों के साथ चलें। इस चुनाव में उनके कुछ राजनीतिक बयान और मुद्दे तो ऐसे हैं, जो कदाचित एक समय बाद उन्हें दिल्ली में चलने नहीं देंगे।
भारतीय राजनीति में कुछ और भी उदाहरण हैं-जैसे आंध्र में कांग्रेस के विकल्प के रूप में फिल्मों के जाने-माने अभिनेता एनटी रामाराव ने 1982 में तेलगु देशम पार्टी बनाई और अगले साल ही चुनाव में बहुमत के साथ कांग्रेस पर विजय प्राप्त की। तेलगु देशम का आज एनटी रामाराव के दामाद चंद्रबाबू नायडू नेतृत्व कर रहे हैं। तेलगु देशम का जन्म भी कांग्रेस के खिलाफ आम आदमी पार्टी की तरह ही हुआ था, जिसमें यह बात खास रही कि एनटी रामाराव ने आंध्र प्रदेश में सत्ता पाने के बाद लोगों के बीच उन मुद्दों पर गंभीरता से काम किया, जिनका उन्होंने तेलगु देशम बनाते समय वादा किया था। यह क्षेत्रीय दल चंद्रबाबू नायडू के नेतृत्व में भी आंध्र में सरकार बनाने में सफल रहा, किंतु इस वक्त यह दल वहां के राजनीतिक घमासान में फंसा है। चंद्रबाबू नायडू ने अपने ससुर की इस राजनीतिक विरासत को बना कर रखा है। आंध्र प्रदेश में ही फिल्म अभिनेता के चिरंजीवी ने भी 2008 में प्रजाराज्यम पार्टी बनाई और 2009 में 288 स्थानों पर पहला चुनाव लड़कर 18 सीटों पर जीत हांसिल की। चिरंजीवी राजनीतिक धैर्य नहीं रख सके और उन्होंने अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय कर लिया। आंध्र प्रदेश में कांग्रेस के विकल्प के लिए पार्टी बनाने का काम रूका नहीं। भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी डॉ जय प्रकाश नारायण ने इस सेवा से त्यागपत्र देकर 2006 में लोकसत्ता पार्टी बनाई और 2009 में 246 सीटों पर चुनाव लड़ा, लेकिन एक ही सीट जीत सके और वोट का प्रतिशत भी कोई ज्यादा अच्छा नहीं रहा, यानी कुल 1.76 प्रतिशत। देश के तमिलनाडु राज्य में भी तमिल फिल्मों के अभिनेता विजयकांत ने ऐसे ही 2005 में डीएमडीके बना कर 2006 में राज्य की 232 सीटों पर चुनाव लड़ा, मगर यह दल केवल एक सीट पर ही विजय दर्ज कर सका। इस चुनाव में उसे 8.38 प्रतिशत वोट प्राप्त हुए थे। इस तरह चुनाव में उतरने वालों का प्रदर्शन कहीं बहुत अच्छा तो कहीं बहुत खराब रहा, इसीलिए कहा जा रहा है कि दिल्ली की आम आदमी पार्टी के भविष्य के बारे अभी कुछ कहा नहीं जा सकता। इस पार्टी में देखना होगा कि उसके निर्वाचित लोगों में कितना धैर्य है।
यहां सवाल उठाया जा सकता है कि अन्ना के जनआंदोलन में तो सभी धर्म जातियों के युवाओं और राजनीतिक दलों के समर्थकों का सहयोग था, किंतु यहां यह तथ्य प्रमुखता से गौर करने लायक है कि यह सही है, मगर भाजपा और संघ को छोड़कर बाकी किसी भी राजनीतिक दल का कार्यकर्ता उस आंदोलन में नहीं था और भाजपा एवं संघ या हिंदुत्व की विचारधारा से अलग चलने वाला कार्यकर्ता या युवा, वंदेमातरम् और भारत माता की जय का नारा नहीं लगाता है, जबकि ये नारे अन्ना के जनआंदोलन में पूरे जोश से गूंजते थे। अन्ना भी ये नारा लगाते थे और एक बार नहीं, बल्कि कई बार आरोप आए कि अन्ना भाजपा और संघ के आदमी हैं। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के प्रचार में भी ये नारे सर चढ़ कर गूंजे एवं आम आदमी पार्टी की चुनाव में विजय के जश्न में भी इनका शंखनाद था। यह बात कही जा रही है कि दिल्ली के भाजपा और संघ के युवाओं ने भी कहीं-कहीं कांग्रेस के प्रति अपने गुस्से का इजहार आम आदमी पार्टी के साथ खड़े होकर किया। यही युवा इस चुनाव में यह भी बार-बार कह रहा था कि दिल्ली में तो हम आम आदमी के साथ हैं, मगर 2014 में लोकसभा चुनाव में हम नरेंद्र मोदी के साथ होंगे। स्पष्ट लाइन दिख रही है। अरविंद केजरीवाल और मीडिया के कुछ विश्लेषणकर्ता दिल्ली के बाहर आम आदमी पार्टी को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देख रहे हैं, वे दिल्ली के परिणामों को केवल कांग्रेस और भाजपा के विकल्प के रूप में स्थापित मान रहे हैं। जहां तक आम आदमी पार्टी के नेताओं के उत्साह का प्रश्न है तो प्रतीक्षा कीजिए, इसकी सही तस्वीर लोकसभा चुनाव में ही देखने को मिल जाएगी। अरविंद केजरीवाल का दावा जो भी हो और वो दिल्ली के जनादेश की उम्मीद देश भर के लोकसभा चुनाव में कर रहे हों, लेकिन यह सत्य माना जाता है कि इनका देश में आगे का रास्ता इतना आसान नहीं है और वैसे भी इस दौर में युवा महत्वाकांक्षा लंबे धैर्य में विश्वास नहीं रखती और ना आसानी से नियंत्रित हो पाती है। देखना होगा कि उसका आम आदमी पार्टी से कब तक मोह है।
दिल्ली सहित सभी राज्यों में हुए चुनाव में नरेंद्र मोदी फैक्टर पर भी सवाल खड़ा किया गया है। भाजपा ही नहीं बल्कि अधिकांश लोग मान रहे हैं कि इन चुनावों में यही एक ऐसा फैक्टर था, जिसका चारों राज्यों में स्पष्ट असर दिखाई दिया है। दिल्ली में भाजपा को मरते-मरते बचाने का काम केवल नरेंद्र मोदी का ही माना जाता है। यह भी माना जाता है कि दिल्ली में युवाओं में गुस्सा कांग्रेस और शीला दीक्षित सरकार के खिलाफ तो था ही, दिल्ली में भाजपा शासित नगर निगम में भाजपाईयों की कार्यप्रणाली पर भी घोर नाराज़गी थी। नरेंद्र मोदी को पता था कि दिल्ली में कुछ कारणों से भाजपा कोई ज्यादा अच्छी स्थिति में नहीं है, मुख्यमंत्री पद को लेकर भी भाजपा में गुटबाजी एक मुद्दा और समस्या बन चुकी थी। नरेंद्र मोदी ने इस स्थिति को काफी हद तक संभाला। कुछ विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भाजपा बहुमत के काफी करीब पहुंचने में काफी हद तक सफल रही। यह भी माना जाता है कि दिल्ली नगर निगम में भाजपा का यदि अच्छा प्रदर्शन होता तो भाजपा को उसका और ज्यादा लाभ मिलता और भाजपा यहां भी दो तिहाई बहुमत तक जरूर पहुंचती। जहां तक दूसरे राज्यों में मोदी फैक्टर का प्रश्न है तो वहां के प्रचंड जनादेश के पीछे भी नरेंद्र मोदी ही माने जाते हैं। राजस्थान में वसुंधरा राजे सिंधिया ने इस सच्चाई को स्वीकार करने में तनिक भी देर नहीं लगाई और नरेंद्र मोदी को जीत का पूरा श्रेय दिया। मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान ने उनका पूरा असर माना और छत्तीसगढ़ में भी रमन सिंह ने माना कि उनके यहां नरेंद्र मोदी से बहुत लाभ पहुंचा। यह केवल मीडिया के कुछ लोगों और गैर भाजपाई दलों की खीज मानी जा रही है और वे इन चुनाव नतीजों से अलग हटकर यह बात ज्यादा उछालने में लगे हैं कि भाजपा में प्रधानमंत्री पद के दावेदार शिवराज सिंह चौहान हो सकते हैं, जबकि भाजपा इस दावेदारी का पहले ही फैसला कर चुकी है और भाजपा उस पर दृढ़प्रतिज्ञ है।
राजनीति में आज अच्छे लोगों की आवश्यकता है और अरविंद केजरीवाल जैसे लोगों को ही प्रमुखता से राजनीति में आना भी चाहिए। इसके साथ यह भी जरूरी है कि राजनीति के दांवपेच अपनाने के साथ-साथ वे अपने व्यक्तित्व के साथ भी न्याय करें, जिसके बारे में उनके प्रशंसकों और जनता की एक शानदार छवि है। उन्होंने एक कुशल राजनीतिज्ञ की तरह दिल्ली में जंतर-मंतर और रामलीला मैदान पर अन्ना के जनआंदोलन का लाभ उठाया, अन्ना का भी मान रखा, लेकिन वे चुनाव में मुद्दों से बहक गए। इसके बदले उन्हें जिन और लोगों ने समर्थन दिया है, उनकी आगे भी साथ चलने की कोई गारंटी नहीं है, उन्हें तो केवल भाजपा को हराने के लिए किसी की लहर की प्रतीक्षा थी और उन्हें आम आदमी पार्टी सही लगी, अन्यथा दिल्ली में कांग्रेस इतनी कमजोर नहीं थी कि आठ सीटों पर सिमट जाए। भ्रष्टाचार और दिल्ली के कुछ जनप्रिय मुद्दों के कारण आम आदमी पार्टी में दिल्ली के युवाओं की दिलचस्पी जाग उठी थी और दिल्ली को लक्ष्य बनाकर उसने यह चुनाव लड़ा, इसका भी उन्हें लाभ मिला। भाजपा में गुटबाजी के कारण भाजपा के बहुत सारे वोट भी आम आदमी के साथ गए और जिस भाजपा को दिल्ली में सत्तर सीटों में से करीब पचास सीटें मिलनी पक्की लग रही थीं, वह बहुमत से दूर बत्तीस सीटों पर ही रूक गई।
'आप' ने दिल्ली की जनता से बड़े-बड़े वादे किए हैं, जो किसी राजनीतिक दल ने नहीं किए। 'आप' का अभी देश और दिल्ली में सरकार चलाने की व्यावहारिक कठिनाईयों से सामना नहीं हुआ है। राजनीतिक दल ही जानते हैं और वो बताएंगे, इनका सच कितना असहनीय है। उत्तर प्रदेश में सत्ता हांसिल करने के लिए राजकोष की कीमत पर समाजवादी पार्टी के महंगे चुनावी राजनीतिक वादों के कारण आज अखिलेश यादव सरकार तौबा कर रही है, विकास के लिए उसके पास पर्याप्त धन नहीं है, विवादास्पद एजेंडों के कारण आज उसको लेकर लोगों में भारी आक्रोश है, जिससे लोकसभा चुनाव उसके हाथ से निकल चुका है, भले ही सपा नेता मुलायम सिंह यादव अभी से ही किसी काल्पनिक तीसरे मोर्चे के प्रधानमंत्री बने घूम रहे हों। वे भी भूले बैठे हैं कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में इनको मिलीं 225 सीटों में 100 सीटें तो मायावती शासन के खिलाफ जनता में गुस्से की सीटें हैं, जो फिलहाल सपा सरकार को पूर्ण बहुमत का सुख प्रदान कर रही हैं। दिल्ली में आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल और उनके लोग भी शीला दीक्षित सरकार के खिलाफ बेहद उकसाई भावनाओं में 28 सीटें जीतकर आए हैं। यहां भाजपा कई सीटें बहुत कम अंतर से हारी है, इसके पीछे भी कई छिपे हुए कारक हैं, जिनमें कुछ का नाम भी लिया जा रहा है। खैर 'आप' के लोग दिल्ली के व्यावहारिक सच से कहीं बहुत दूर और जनता से किए गए कभी ना पूरे होने वाले वादों की लहरों के साथ उछल रहे हैं। दिल्ली की जनता ने 'आप' को सरकार बनाने के लिए पूर्ण बहुमत नहीं दिया है, मगर केजरीवाल और उनके प्रमुख लोग देश और देश की राजनीति पर ऐसे बोल रहे हैं, जैसे कि दिल्ली के राजनीतिक घटनाक्रम ने उन्हें देश के लोकसभा चुनाव का भाग्यविधाता बना दिया हो। 'आप' वालों ने चुनाव में एक तरफ वंदेमातरम और भारतमाता की जय के नारे लगाए हैं और दूसरी ओर राष्ट्रविरोधी शक्तियों को उकसाते हुए राष्ट्र के कश्मीर जैसे संवेदनशील मामले पर खूब विघटनकारी बयान भी दिए हैं। भाजपा को हराने के लिए दिल्ली के मुसलमानों के अधिकांश वोट कांग्रेस को छोड़कर 'आप' को दिलाए गए, तथापि भाजपा यहां बसपा, सपा, कांग्रेस, 'आप,' गुटों, डमी निर्दलियों और भितरघात से खूब लड़ी और उसने बहुमत के करीब की सीटें जीतीं।
राजनीति में उतरकर 'आप' के नेता तो अपना सिविल सोसायटी का राष्ट्रवादी चेहरा ही भूल गए और चुनाव में आकर वही भाषा बोलने लगे, जिसका वे दिल्ली में रामलीला मैदान पर अन्ना के साथ बैठकर उपहास उड़ाते थे। 'आप' से आज पूछा जा रहा है कि दिल्ली में बिजली, पानी और दूसरी नागरिक सेवाओं की गंभीर समस्याओं से निपटने का उसके पास वो कौन सा फार्मूला है, जो शीला दीक्षित सरकार के पास नहीं था? सच यह है कि आम आदमी पार्टी ने रोज अपना आकार बढ़ाती दिल्ली की जनता से जो वादे किए हैं, उन्हें पूरा करना किसी के लिए भी असंभव है। इन वादों का समाधान किसी जादू की छड़ी या किसी चमत्कारी पुरुष या राजनीतिक दल में नहीं है। 'आप' ने यह चुनाव धरातली सच्चाईयों और वादों पर नहीं, बल्कि हवाई वादों पर लड़ा है। बिजली, पानी और भ्रष्टाचार की समस्या तो पूरे देश में है और सभी सरकारों में है, मगर उत्तर प्रदेश में सपा के वादों की तरह दिल्ली में भी 'आप' के वादों पर गंभीर सवाल खड़े हैं। इनमें एक बड़ा सवाल तो यही है कि यदि वह सरकार बनाने लायक बहुमत नहीं ला पाई है तो वह सरकार बनाने के दूसरे विकल्पों पर विचार क्यों नहीं कर रही है? इनमें कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के साथ कांग्रेस का ही समर्थन लेकर गठबंधन सरकार बनाने का विकल्प मौजूद तो है? गठबंधन सरकार बनाने के लिए देश में राजनीतिक गठबंधन भी हो ही रहे हैं, ऐसे में उसके पास यह अवसर होने पर भी वह विपक्ष में बैठने की बयानबाजी क्यों कर रही है? भाजपा के साथ 'आप' जा नहीं सकती तो दिल्ली में 'आप' का कोई भी विधायक क्या फिर से चुनाव में जाने को तैयार है? शायद बिल्कुल नहीं। दिल्ली की जनता तो 'आप' से चाहती है कि जैसे भी हो 'आप' सरकार बनाए। उसकी मंशा के विरुद्ध क्या वह दोबारा चुनाव की मांग करेगी? आम आदमी पार्टी ने कश्मीर का मु्द्दा भी उठाया है, जिसमें उसने कश्मीर को भारत का अंग नहीं माना है तो 'आप' कश्मीर को भारत से अलग करने की अलगाववादियों की मांग के पक्ष में कब से आंदोलन शुरू कर रही है? 'आप' से यह सब बातें इसलिए कही और पूंछी जा रही हैं, क्योंकि 'आप' ने देश के अन्य राजनीतिक दलों के मुकाबले अपने को सबसे बड़ा नैतिकमूल्यों वाला और भ्रष्टाचार मुक्त राजनीतिक दल प्रचारित किया और भारत के संवेदनशील अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों को भी अपने हाथ में लिया है।
देश में उपेक्षा, नाराज़गी और व्यवस्था के विरुद्ध जनाक्रोश से उदय हुए सत्ता और व्यवस्था परिवर्तन के कारकों का जनमानस में सदैव ही नायक के रूप में सम्मान हुआ है और होना चाहिए। देश में कांग्रेस के खिलाफ जेपी आंदोलन से जन्मी और सत्ता में आई जनता पार्टी का भी एक बड़ा उदाहरण सामने है। देश की जनता का स्थायित्व के साथ कांग्रेस से अच्छा शासन देने की आशा से जनता पार्टी को सत्ता सौंपने का अनुभव अच्छा नहीं रहा। इसका भरपूर लाभ उठाकर कांग्रेस फिर से सत्ता में आ गई। जनता पार्टी चल ही नहीं पाई, कई टुकड़े हो गई। भारतीय जनता पार्टी उसी का अवशेष है, जो उस कालखंड में राष्ट्रवाद और सुशासन के नाम पर उससे बच निकली और आजतक अपने समग्र अस्तित्व और सत्ता में है। इसीलिए सत्ता और व्यवस्था परिवर्तन के साथ यह भी उतनी ही गंभीरता से देखना और समझना होगा कि किसी राजनीतिक दल के पास सत्ता और व्यवस्था परिवर्तन में कितना स्थायित्व और धैर्य है और जिन एजेंडों के कारण परिवर्तन हुआ और हो रहा है, वे समग्र परिप्रेक्ष्य में कितने लाभदायक, स्वीकार्य और देश एवं उसकी जनता के लिए कल्याणकारी हैं। भारत में क्षेत्रीय दलों के उदय से लोकतंत्र जितना मज़बूत हुआ है, उससे कहीं ज्यादा देश में अन्य चिंताओं ने भी जन्म लिया है, जिनका संबंध राष्ट्रीयता, सुरक्षा, विकास, सांप्रदायिक एवं जातीय सद्भाव, देश में भेदभाव रहित शासन व्यवस्था एवं विदेश नीति से है। भारत के कोने-कोने में आज यह विषय विचार-विमर्श में है और इस विषय ने इतना विकट रूप धरा है कि सरकारों और राजनीतिक दलों के खिलाफ जनाक्रोश अपने चरम की ओर बढ़ रहा है। इसी कारण जनता कहीं-कहीं राष्ट्रीय दलों को दरकिनार कर क्षेत्रीय दलों, राज्यों के विभाजन और गुटों में अपना भविष्य ढूंढ रही है। वह सभी राष्ट्रीय राजनीतिक दलों से बेहद निराश है। लोग न्याय पाने के लिए अब शासन के अलावा खलीफाओं, कबीलों, गुटों के सरदारों और माफियाओं के पास जाने लगे हैं और वहां उन्हें अपनी चिंताओं और समस्याओं का समाधान मिल भी रहा है। यदि ऐसा नहीं होता तो देश में क्षेत्रीय राजनीतिक दलों और क्षत्रपों की बाढ़ सी ना आई होती और सबसे ज्यादा पढ़े-लिखों की जागरुक दिल्ली में भी आम आदमी पार्टी पैदा नहीं होती।
सोचिए कि देश की राजधानी दिल्ली का राष्ट्रीय दलों को दर किनार कर एक दो दिन के दल को विधानसभा चुनाव में इतनी सीटें जिताने का दुनिया में क्या संदेश गया होगा? यदि यह मामला देश की राजधानी के चुनाव का न होकर किसी और राज्य का होता तो उसपर शायद इतना शोर ना होता। यहां के चुनाव की गूंज दूर तक सात समंदर पार तक पहुंची है। भारतीय जनता पार्टी और भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र भाई मोदी और संघ के लिए यह बड़े मंथन का विषय है कि लोकसभा चुनाव में इसे कैसे अनुकूल बनाया जाए, भले ही दिल्ली की जनता ने कहा हो कि लोकसभा चुनाव में तो वह मोदी के साथ जाएगी। देश, राजनीति और समाज पर गंभीर चिंतन करने वाले विचारकों का कहना है कि इस प्रकार के अप्रत्याशित नतीजों को समाज और राजनीतिक दलों को गंभीरता से लेना चाहिए, क्योंकि ऐसे परिणाम प्रारंभिक तौर पर बहुत अच्छे लगते हैं और बाद में जनता अपने को ठगा सा महसूस करने लगती है। ऐसे प्रयोग कम ही सफल देखे गए हैं। उनके पीछे की स्थितियां दिल्ली के मूड से भिन्न हैं। उत्तर प्रदेश में सपा, बसपा और केरल में मुस्लिम लीग के राजनीति में बने रहने के पीछे यदि उनकी जातीय शक्तियों का बड़ा समर्थन न होता और दूसरे राज्यों में क्षेत्रीय दलों के पीछे उनकी भाषा, बोली या संस्कृति की मजबूरी नहीं होती तो उनको भी एक बार के बाद कोई नहीं पूछता। ऐसे ही कारणों से आज ये राजनीतिक दल अस्तित्व में हैं। आम आदमी पार्टी की इनसे तुलना नहीं की जा सकती, क्योंकि देश की राजधानी में यह परिस्थितिजन्य राजनीतिक उलटफेर माना जा रहा है, जिसके पीछे कोई हैं, जिन्हें भाजपा समय रहते नहीं समझ सकी। बहरहाल 'आप' जैसे राजनीतिक दलों का काम भी देखना होगा कि उनका वादा कितने समय दिल्ली के साथ चलता है और दिल्ली कितने समय तक 'आप' का साथ दे पाती है।