स्वतंत्र आवाज़
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अन्ना, केजरीवाल, कांग्रेस, लोकपाल और यह देश!

दिनेश शर्मा

Thursday 19 December 2013 04:22:49 AM

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रालेगण सिद्धि में ‘महात्मा’ अन्ना हजारे के लिए आज का दिन भले ही सर्व सिद्धि योग कारक रहा हो और सरकारी सेवा से रिटायर महानुभावों के लिए उनका बुढ़ापा संवारने के लिए संजीवनी की मानिंद हो, किंतु भ्रष्टाचार मिटाने के नाम पर देश की एक सौ इक्कीस करोड़ की जनता के लिए निराशाजनक दिन ही कहा जाएगा। सबसे बड़ा सवाल-देश के प्रधानमंत्री से बड़ा और सबसे ईमानदार एवं न्यायप्रिय लोकपाल कहां से लाया जाएगा? भारत में प्रत्यक्ष शासन तंत्र यूं तो पहले से ही समानांतर शासन व्यवस्‍था का सामना कर रहा है, अब लोकपाल के रूप में नवोदित एक और ताकत इस देश में ‘अपनी सत्ता’ चलाएगी और देश की जनता अपने लोकतंत्र के ‘सर्व शक्तिमान पुत्र’ प्रधानमंत्री को उसकी उंगलियों पर नाचता हुआ देखेगी। लोकतंत्र की असीम शक्ति से राजनीति में आए महानुभाव, लोकपाल महोदय को खुश रखने को मजबूर होंगे। जिस व्यक्ति ने पूरे तीस-पैंतीस साल देश की सरकारी सेवा में रह कर कोई तीर नहीं मारा, अब वह लोकपाल या लोकपाल का सहायक अंग बनकर देश को भ्रष्टाचार से मुक्त कराएगा, वाह! क्या आप मानते हैं कि देश में राष्ट्रपति, सर्वोच्च न्यायालय, प्रधानमंत्री से आगे कोई और शक्तिमान है? आपका उत्तर हो सकता है-जनता। किंतु ये तीनों संस्‍थाएं तो इसी की ही देन हैं तो फिर इस चौथे लंबदार की क्या जरूरत है? लोकपाल बिल के दायरे में जिस प्रकार प्रधानमंत्री को लाया गया है, उससे आज इस पद की हनक जाती रही है। इस पद पर बैठे व्यक्ति से निर्भीकता से फैसले लेने की आशा अब नहीं की जा सकती।
एक और व्यवहारिक प्रश्न है कि क्या गीता कुरान रामायण या बाईबिल हाथ पर रखकर शासन किया और कराया जा सकता है? आदिकाल से आजतक ऐसा कौन शासनकर्ता रहा है, जिसने शासन करने और जनमानस में लोकप्रिय कहलाने के लिए साम दाम दंड भेद का सहारा नहीं लिया हो? और इसकी सही परिभाषा क्या है? क्या कारण रहे, जो ये चारों तत्व हमेशा शासन व्यवस्‍था की सफलता से जोड़े गए? और पैंतालीस साल के बाद आज किस आजादी की बात हो रही है? लोकसभा, राज्यसभा और उसके बाहर मीडिया में टीवी चैनलों पर बैठकर देश में रोज सड़ांध फैलाने वालों ने अपने गिरेबां में झांके बिना, समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव के लोकपाल बिल के विरोध करने पर क्या कुछ नहीं बोला है? लोकपाल बिल पर उन्होंने क्या ग़लत बोला है? कुछ भी हो मुलायम सिंह यादव आलोचनाओं के बावजूद संसद में एक सौ इक्कीस करोड़ की जनता के लिए लड़ते-जूझते नज़र आए। समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता प्रोफेसर रामगोपाल यादव ने तो पहले ही बोल दिया था कि सपा लोकपाल सहित किसी भी विवादास्पद बिल का हर कीमत और हर स्तर पर विरोध करेगी और उन्होंने विरोध किया। मुलायम सिंह यादव ने संसद में ज़ोर देकर कहा कि लोकपाल बिल इस देश के लिए खतरनाक है, इससे देश में अराजकता फैल जाएगी, दरोगा प्रधानमंत्री का पीछा करेगा और बाबू जांच के भय से फाइल भी नहीं छुएगा तो क्या ग़लत कहा? वह शासनकर्ता रहे हैं और आज उनकी पार्टी भी देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में सत्ता में है, उन्हें पता है कि लोकतंत्र और शासन का व्यवहारिक रिश्ता कायम रखने के लिए किस प्रकार के असहनीय समझौतों से गुजरना होता है। उन्होंने लोकपाल बिल को रोकने के लिए लोकसभा में बैठे भाजपा नेता लालकृष्‍ण आडवाणी, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से भी कहा कि वे इसे रोकें, किंतु आज के भाजपा और कांग्रेस गठबंधन के ये दोनों नेता खामोश रहे। संसद में लोकपाल बिल पर सभी दलों के सदस्यों में गतिरोध था, किंतु वे अपने दल के प्रति निष्ठा से जुड़े होने से कुछ नहीं कर सके। समाजवादी पार्टी, शिवसेना, जनता दल (यू) आदि ने ही लोकपाल बिल का पूरे औचित्य के साथ विरोध किया। भले ही आज उनकी आवाज़ नहीं सुनी गई, मगर एक समय बाद यह देश कहेगा कि संसद में लोकपाल बिल पर समाजवादी पार्टी, जनता दल (यू) के शरद यादव और शिवसेना का विरोधस्वरूप दृष्टिकोण बिल्कुल सही था। मुलायम सिंह यादव के कुछ एजेंडों को विभिन्न क्षेत्रों और स्थितियों में पसंद नहीं किया जाता है, तथापि उनकी पार्टी और उन्हें अनेक राष्ट्रीय और मानवीय मामलों को देश के परिप्रेक्ष्य में देश और संसद में प्रमुखता से उठाते हुए अक्सर देखा गया है। 
देश में आज जिस ईमानदारी और भ्रष्टाचार की बात हो रही है-अतीत और आज के संदर्भ में देखें तो एक सौ इक्कीस करोड़ के इस देश में लोकपाल उसका कदापि समाधान नहीं हो सकता। इस देश में ‘बेईमान’ की सटीक परिभाषा अभी तक तय नहीं है और जिसे हम ‘कूटनीति’ कहते हैं, उसकी तो शुरूआत ही बेईमानी और झूंठ से होती है, जिसमें भ्रष्टाचार भी कहीं ना कहीं छिपा होता है। इसी की एक बहन ‘नीति’ भी है। सीता हरण पर अपने मामाश्री माल्यवान के नीति उपदेश पर भड़कते हुए लंकापति रावण ने कहा था कि ‘नीति’ कमजोर लोगों का बुना हुआ एक ऐसा जाल है, जिसमें शक्तिशाली कभी नहीं फंसता, जो शक्तिशाली करता है, वही नीति कहलाती है और वही धर्म बन जाती है।’ वास्तव में देश की तीन शीर्ष संस्‍थाओं राष्ट्रपति, सर्वोच्च न्यायालय और प्रधानमंत्री के रहते देश को किसी लोकपाल की जरूरत ही नहीं है। देश में इनके न्याय और कार्यप्रणाली पर उंगली उठाने की नौबत भी अभी नहीं आई है। इनकी और शक्तियां बढ़ाकर लोकपाल की आवश्यकता पूरी की जा सकती थी। इस देश को इन संस्‍थाओं पर पूरा भरोसा है और यदि कहीं कोई कमी या समस्या है, तो उनमें बैठाए गए उन महानुभावों से है, जो उसके वास्तविक पात्र नहीं हैं और जिन्हें राजनीतिक दलों ने अपनी सुविधा या समझौते की राजनीति के तहत सुशासन की उपेक्षा करके उन पदों पर अवसर दिए। वे ही इन संस्‍थाओं की गरिमा, विश्वास, नैतिकता, ईमानदारी पर आई आंच के लिए जिम्मेदार हैं और इनकी उपेक्षा कर बेशर्मी से भ्रष्टाचार एवं भेद-भाव पूर्ण आचरण में लिप्त पाए गए हैं और वे ही ‘ईमानदार लोकपाल’ बनाएंगे और बनवाएंगे एवं उसका ‘ईमानदारी’ से सीबीआई की तरह इस्तेमाल भी करेंगे। नरसिंह राव की सरकार में एक भ्रष्ट जज के खिलाफ महाभियोग चलाने के मुद्दे पर देश की संसद नीति और बेईमानी में बंट गई थी, तो आज क्या गारंटी है कि किसी लोकपाल के भ्रष्ट होने पर लोग उसे संसद में बचाते नज़र नहीं आएंगे? देश के कुछ अन्य शीर्ष पदों पर विवादास्पद रिटायर नौकरशाहों की नियुक्ति के कई मामले कई बार चर्चा में आए हैं और उनके बचाव में सरकार में नीतिगत खेमेबाजी देखी गई। क्या मज़ाक है कि किसी को बचाने के लिए या किसी को फंसाने के लिए कानून की सुविधाजनक व्याख्या शुरू हो जाती है, किसी अन्ना, केजरीवाल या किरण बेदी के लोकपाल के पास इसका है जवाब?
‘आप’ के नेता अरविंद केजरीवाल को दिल्ली में अल्पमत सरकार बनाने के लिए चारों तरफ से मजबूर किया जा रहा है, मगर वे इस तरह सरकार बनाने को तैयार नहीं हैं और उन्हें अल्पमत सरकार बनानी भी नहीं चाहिए, क्योंकि एक समय बाद इसके फैसले इन्हीं लोकपाल महोदय के यहां जांच में नह‌ीं जाएंगे, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। अरविंद केजरीवाल ने अभी तो सरकार भी नहीं बनाई है और उनपर ईमानदारों के हमले शुरू हो गए हैं। ऐसे में कौन सरकार बनाएगा और बनाएगा भी तो कैसे सरकार चलाएगा और सरकार चलाएगा तो जांचों का भी सामना करेगा। लोकपाल के भय से डरे बाबू और अधिकारी से वह कैसे काम लेंगे? उनका बाबू पहले अपनी नौकरी बचाएगा या उनकी जनता के बीच में लोकप्रियता को देखेगा? अरविंद केजरीवाल जिस लोकपाल और भ्रष्टाचार की गेंद खेल कर यहां तक पहुंचे हैं, लोकपाल का यही सच उनके लिए भी है, नहीं तो उन्हें दिल्ली की जनता ने जो आधा-अधूरा जनादेश दिया है, उसका पालन करें और दिल्ली पर शासन करके दिखाएं। कांग्रेस ने तो उपराज्यपाल को समर्थन पत्र दे ही दिया है, तो उनको क्या भय है? सरकार गिरने का? बहुमत के अभाव में निर्णय न ले सकने का? और जो उन्होंने वादे किए हैं, उनके पूरा न होने का भय है? तो फिर वे उस लोकपाल का कैसे सामना करेंगे, जिसकी वह मांग कर रहे हैं और लोकपाल बनने पर जिसके सामने उनके फैसलों की जांच के लिए झूंठे बवंडर खड़े किए जाएंगे। वे उनसे निपटेंगे या सरकार चलाएंगे या विफल होकर इस्तीफा देकर भाग खड़े होंगे? अरविंद केजरीवाल अभी सत्ता के बाहर रहकर हनक की जो भाषा बोल रहे हैं, राजनीति में वह टिकाऊ नहीं मानी जाती है। जबतक वे राजनीति में नहीं आए थे, तबतक उनके मुद्दे कुछ और थे और जब वे राजनीति में आकर चुनावी जंग में उतरे तो वोट लेने के लिए उनके मुद्दे और समर्थक बदल गए। उनका आज लोकतंत्र और राजनीति की धरातलीय सच्चाई से सामना हो रहा है। एक शासनकर्ता को कभी-‌कभी जनहित में कुछ अप्रिय फैसले भी लेने पड़ते हैं, जिनमें सभी का सहमत होना जरूरी नहीं है, इसलिए अरविंद केजरीवाल और अन्ना महाराज ने लोकपाल की छछूंदर पकड़ने का जो काम किया है, उसका आगे का खामियाजा भी भुगतने के लिए उन्हें तैयार रहना चाहिए। यह उसी का पहला भय है कि ‘आप’ उसके डर से दिल्ली में सरकार का अभी तक गठन नहीं कर पा रहे हैं, बस यक्ष प्रश्न उछाल रहे हैं। तो ऐसे सरकार कैसे चलाएंगे और फैसले कैसे लेंगे?
कांग्रेस उपाध्यक्ष और कांग्रेस के प्रधानमंत्री पद के दावेदार राहुल गांधी लोकसभा में किस मुंह से लोकपाल बिल के कसीदे पढ़ रहे थे? उनकी ही कांग्रेस तो देश में लोकपाल के विषय को पैंतालीस साल से दबाए बैठी थी। कांग्रेस की ग़लत नीतियों और देश की राष्ट्रीय समस्याओं की उपेक्षा और सुविधाजनक राजयोग भोगने के कारण यह देश कॉमन मिनिमम प्रोग्राम समझौतों के तहत गठबंधन का अपमानजनक और कष्टपूर्ण दंश झेलता आ रहा है। गठबंधन राजनीति के कारण ही भ्रटाचार, अराजकता, महंगाई, सामाजिक विषमता और जनसामान्य की जानमाल की सुरक्षा जैसे गंभीर विषयों की अनदेखी की जिम्मेदारी सत्ता के गठबंधन में शामिल कोई भी राजनीतिक दल या राजनेता अपने ऊपर लेने को तैयार नहीं है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एक ईमानदार प्रधानमंत्री माने जाते हैं, किंतु वे स्वयं देश को ईमानदार शासन नहीं दे पाए। गठबंधन सरकार के कारण कड़े फैसले नहीं ले पाए। भ्रष्ट मंत्रियों और अफसरों के विरुद्ध कार्रवाई नहीं कर पाए। केंद्र में अपनी सरकार बचाए रखने के लिए भ्रष्ट राजनेताओं, राज्यों की भ्रष्ट सरकारों की मनमानी होने दी। देश की व्यवस्‍था एवं राजनीति इन्हीं कारणों से पतन की तरफ जा रही है और लोकपाल में उसका समाधान खोजा जा रहा है। यदि आज शीर्ष पदों को सौदेबाजी और मुंहदेखी राजनीति से मुक्त रखा गया होता तो ना तो कांग्रेस मुक्त भारत या भ्रष्टाचार मुक्त भारत का नारा लगता, ना अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल अपने को दुनिया का सबसे ज्यादा ईमानदार होने का ‘अवतार’ लेते और ना कोई लोकपाल की बात करता। लोकसभा चुनाव आ रहा है, देश में सुशासन और जवाबदेही के लिए सबसे पहले तो देश को गठबंधन की राजनीति से मुक्त करना होगा। लोकपाल देश की कितनी मदद कर पाएगा यह तो समय ही बताएगा, किंतु फिलहाल तो इसको लेकर भारी गतिरोध है। अन्ना आंदोलन से भयभीत कांग्रेस की हड़बड़ी और बौखलाहट को लोकपाल बिल पारित कराने के दौरान सबने देखा। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को जिन्होंने भी सुना, अरबों-खरबों के घोटालों के बाद कांग्रेस के उपाध्यक्ष के श्रीमुख से आज निकला कि इस लोकपाल से भ्रष्टाचार दूर होगा। आप समझ सकते हैं कि कांग्रेस ‘अपनी लालबत्ती’ बचाने के लिए कैसे और किस तरफ बढ़ रही है।
लोकतंत्र में चुनकर आए जनता के प्रतिनिधियों की उपेक्षा करके पिछले दरवाजे से आए रिटायर, मतलब परस्त और बोदे किस्म के अनेक लोगों को भारत के प्रधानमंत्री जैसे पद पर बैठाने का ही दु‌ष्परिणाम है कि आज भारत की यूपीए गठबंधन सरकार को दबाव में संसद में ऐसा बिल पारित कराना पड़ा, जिसकी कोई आवश्यकता और उपयोगिता नहीं है, जिससे भ्रष्टाचार और ज्यादा बढ़ेगा। सत्‍ता में आने और बने रहने के लिए बड़े-बड़े राजनीतिक और सामाजिक दिग्गज नंगे होने को तैयार हैं। लोकपाल बिल ऐसे समय पर पारित हुआ है, जब इस बात को समझने के पर्याप्त कारण मौजूद हैं कि यूपीए सरकार इस समय भ्रष्टाचार, महंगाई, अराजकता और सुरक्षा जैसे जनता के गंभीर मुद्दों पर देश की भारी नाराज़गी का सामना कर रही है। उसकी हाल ही के पांच राज्‍यों में विधान सभा चुनावों में बड़ी पराजय हुई है और उसे लग रहा है कि आने वाले लोकसभा चुनाव में भी अब उसकी वापसी संदिग्‍ध है। कांग्रेस चिंतित है कि राहुल गांधी शायद ही देश के प्रधानमंत्री बन पाएं। कांग्रेस ने बौखलाहट में संसद में लोकपाल बिल पारित कराकर महात्मा अन्ना हजारे के कांग्रेस विरोधी अभियान को रोका है। कांग्रेस इसी प्रकार देश के मुसलमानों का वोट हासिल करने के लिए सांप्रदायिक हिंसा विरोधी बिल लोकसभा में पारित कराना चाहती है, जबकि भाजपा और अन्य दल इस बिल के प्रावधानों के पूरी तरह खिलाफ हैं। यदि यह बिल भी पारित हो जाता है, तो कांग्रेस को मुसलमानों से यह कहने का मुद्दा मिल जाएगा कि वह उनकी जान-माल की सुरक्षा के लिए बेहद चिंतित है। जहां तक सांप्रदायिक हिंसा विरोधी बिल की वास्तविक सच्चाई का प्रश्न है, तो यह बिल देश को और भी भारी अराजकता की तरफ ले जाता है, क्योंकि इसमें जो प्रावधान हैं, वे देश के हिंदु समुदाय और विचारधारा की स्वतंत्रता पर एक तरह से दबाव बनाते हैं।
दिल्‍ली में रामलीला मैदान पर लोकपाल को लेकर अन्ना हजारे ने जनता के साथ बैठकर आमरण अनशन किया था, जिसमें उनके साथ प्रमुख रूप से किरन बेदी, अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसौदिया, प्रशांत भूषण, गोपाल राय, कुमार विश्वास, योगेंद्र यादव, संजय सिंह भी थे। अन्ना से आंतरिक अलगाव के बाद किरन बेदी को छोड़कर बाकी सब अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में जन सहयोगियों के साथ यह कहकर राजनीति में उतर गए कि इस तरह आंदोलन से लोकपाल नहीं आएगा, इसके लिए राजनीतिक दल बनाकर संसद में पहुंचना होगा और यह लड़ाई अब संसद में लड़ी जाएगी। अरविंद केजरीवाल के संयोजकत्व में भ्रष्टाचार और लोकपाल के मुद्दे पर आम आदमी पार्टी नाम से राजनीति दल बनाकर दिल्ली विधान सभा का चुनाव लड़ा गया, जिसमें कांग्रेस पर बड़ी जीत हासिल करके अरविंद केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री की कुर्सी के दावेदार बन गए हैं। अन्ना से ‘आप’ तक के सफर में लोकपाल दोनों के लिए ही मुद्दा बना रहा। केजरीवाल संसद में पास लोकपाल बिल को बहुत कमजोर और भ्रष्टाचार का मुकाबला करने में विफल मानते हैं, जबकि अन्ना इससे संतुष्ट हैं। वे रालेगण सिद्धि में अनशन तोड़कर जश्न भी मना रहे हैं। केजरीवाल भ्रष्टाचार व लोकपाल पर कांग्रेस को देशभर में घेरते इससे पहले अन्ना के अनशन से घबराई कांग्रेस ने उनसे समझौता कर अरविंद केजरीवाल के लोकपाल की हवा निकालकर संसद में लोकपाल बिल पारित करा लिया है। इस तरह कांग्रेस को एक बड़े संकट से मुक्ति मिली। सनद रहेगी कि कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने लोकपाल बिल को संसद में पेश किया। राहुल गांधी ने इस पर सदन का समर्थन मांगते हुए कहा कि इससे भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा। समाजवादी पार्टी ने लोकपाल बिल का जोरदार विरोध करते हुए सदन का परित्याग किया। भाजपा ने बिल का समर्थन किया और भाजपा नेता सुषमा स्वराज ने कहा कि कांग्रेस इस बिल को पारित कराने का श्रेय लेने की कोशिश न करे, इस बिल का श्रेय केवल अन्ना हजारे को जाता है। अब यह मंजूरी के लिए राष्ट्रपति के पास जाएगा, देखना है कि वहां क्या होता है। लोकतंत्र की जय! लोकपाल की जय!!

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