इरफान गाज़ी
इस्लामाबाद। पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ भारतीय उपमहाद्वीप के एक ऐसे नेता हैं जो कि अपने देश में राजनीतिक और धार्मिक आतंकवाद के बीच चलते हुए अब ऐसे आतंकवाद का सामना कर रहे हैं जिससे इस्लाम को ही चुनौतियां मिल रही हैं। मियां नवाज शरीफ की सरकार को अपदस्थ करने के बाद से लेकर वर्दी में रहकर पाकिस्तान पर शासन करते हुए उन्होंने महसूस किया है कि यदि पाकिस्तान को दुनिया के बीच में खड़े रहना है तो उसे भी उसी आतंकवाद पर गोले बरसाने होंगे जिस पर अमरीका बरसाता आ रहा है जिसे एक सैनिक शासक ही कर सकता है। पाकिस्तान की अमरीका अफगानिस्तान और भारत नीति का जो अध्याय जनरल मुशर्रफ ने शुरू किया है उस पर चलना पाकिस्तान की मौजूदा सरकार के लिए कठिन भी और मजबूरी भी बन गया है। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि जनरल मुशर्रफ ने पाकिस्तान की भलाई में अपने देश में कट्टरपंथियों और इस्लामिक आतंकवादियों का हर तरह से सामना किया है नहीं तो पाकिस्तान की दुनिया के सामने जो तस्वीर जा रही थी उससे पाकिस्तान वास्तव में जमींदोज हो जाता। पाकिस्तान के ताजा राजनीतिक हालात में मुशरर्फ के खिलाफ महाभियोग की कार्रवाई पाकिस्तान को एक बड़े संकट की तरफ ले जा रही है। इससे यहां का राजनैतिक नेतृत्व केवल मुशरर्फ को हटा तो सकता है लेकिन पाकिस्तान को मुसीबतों बचा नहीं सकता।
भारत के खिलाफ कारगिल के संघर्ष में जनरल परवेज मुशर्रफ ने जो बदनामियां ओढ़ी थीं वह उनसे पूरी तरह से मुक्त तो नहीं हुए लेकिन उन्होंने अपना शासन आने पर भारत से जो दोस्ताना संबंध सुधारे, उन्हीं का परिणाम है कि आज अमरीका भी पाकिस्तान को हर तरह की मदद दे रहा है और भारत भी एक भारी तनाव के बाद पाकिस्तान से बेहतर संबंधों की तरफ बढ़ रहा है। पाकिस्तान की मौजूदा सरकार के पास भी मुशर्रफ के अपनाए रास्तों पर चलने के अलावा कोई भी विकल्प भी नहीं है, इसीलिए पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के कार्यवाहक अध्यक्ष आसिफ जरदारी कह रहे हैं कि कश्मीर मसला आने वाली पीढ़ी के सुपुर्द कर देना चाहिए। इस वक्त सबसे बड़ी जरूरत भारत और पाकिस्तान के रिश्तों को मधुर बनाने की है, क्योंकि इन दोनों देशों की सामान्य जनता आपस में झगड़ा नहीं चाहतीं। राजनीतिक नेतृत्व भले ही जो बयानबाजियां करें। पाकिस्तान सरकार का बाहर से समर्थन कर रही मियां नवाज शरीफ की पीएमएल-एन पार्टी की भी यही मजबूरियां हैं कि वह मौजूदा लाइन पर ही चले क्योंकि यह लाइन ही इस गठबंधन को और आगे परवान चढ़ा सकती है। फर्क यहां पर इतना है कि पीपीपी और पीएमएलएन ने मुशर्रफ के खिलाफ जीत तो हासिल की है लेकिन यह गठबंधन मुशर्रफ की भारत, अमरीका नीति के खिलाफ नहीं जा सकता।
जनरल परवेज मुशर्रफ ने पाकिस्तान को जिन आर्थिक एवंबाहरी विपदाओं से बाहर निकाला है वह कोई आज की नहीं है और उनका जन्म पहले के हुक्मरानों के समय में पाकिस्तान में कट्टरपंथ और आतंकवाद से हुआ है। पाकिस्तान को सबसे ज्यादा नुकसान कश्मीर मामले से हुआ है जिसमें जेहादी मानकर आतंकवाद का समर्थन करके उसको विश्व समुदाय का समर्थन हासिल नहीं हो सका है। जनरल मुशर्रफ पाकिस्तान के अब तक में उन राष्ट्राध्यक्षों में से भी एक हैं जिन्होंने कारगिल संघर्ष में कूदकर कभी युद्ध होने पर पाकिस्तान के नफे-नुकसान का अच्छी तरह से आंकलन किया है और पाया है कि पाकिस्तान को युद्ध से बचाकर रखने में भलाई है। पाकिस्तान की जितनी ऊर्जा कश्मीर में खर्च होती है उसका पाकिस्तान को कोई भी लाभ नहीं है। वैसे भी कश्मीर में अलगाववादी गुट पाकिस्तान का भी समर्थन नहीं करते हैं। उनमें से कई गुट तो अलाकायदा जैसे आतंकवादी संगठनों की सलाह पर चलते हैं जो कश्मीरी आतंकवादियों को अलग कश्मीर राष्ट्र की सलाह देता है न कि उसके पाक में विलय की। जहां तक पाकिस्तान में रह रहे पाकिस्तानी अलगाववादी गुटों का प्रश्न है वह भी कश्मीर समस्या के समाधान में आज तक कोई ऐसी भूमिका अदा नहीं कर पाए जिनसे वास्तव में कश्मीर आंदोलन की सार्थकता सिद्ध होती हो। विश्व समुदाय ने कश्मीर में भारतीय फौजों के कश्मीरियों के दमन पर भी नोटिस नहीं लिया। उसने कश्मीर में हुए नरसंहारों और आतंकवादी वारदातों को कश्मीरियों का स्वतंत्रता आंदोलन नहीं माना। यही पाकिस्तान के लिए सबसे बड़ा झटका माना जाता है। भविष्य में भी विश्व समुदाय के इस नजरिए पर परिवर्तन की उम्मीद नहीं दिखती। इससे पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई बार फटकार का सामना करना पड़ा।
आज स्थिति यह है कि भारत में कश्मीर में राजनीतिक गतिविधियां चल रही हैं और वहां की जनता अगर परेशान है तो वहां पर सीमा पार से अलगाववादी शह पा रही हिंसक घटनाओं के कारण परेशान है। कश्मीर मसले पर घोषित तौर पर जनरल मुशर्रफ की नीति में कभी कोई बदलाव नहीं आया है लेकिन उन्होंने ऐसी हिंसक योजनाओं पर लगाम लगाया है जिससे पाकिस्तान अमरीका और विश्व समुदाय की रोज-रोज की गालियां सुन रहा था। मुशर्रफ पर इस समय कश्मीर और अफगानिस्तान के अलगाववादी गुटों का भारी दबाव है। मुशर्रफ इस वक्त अमरीका के करीब होने के कारण भी मुस्लिम कट्टरपंथियों के निशाने पर हैं। यह दीगर बात है कि मुशर्रफ ने भारतीय उपमहाद्वीप की इन गंभीर समस्याओं का जिस चतुराई से सामना किया है उसका जवाब अभी किसी भी पाकिस्तान हुक्मरान के पास नहीं है। भले ही यहां मुशर्रफ को राष्ट्रपति पद से बेदखल करने की हर रोज योजनाएं बनतीं हों।
पाकिस्तान की गठबंधन सरकार के गठन होने के बाद एक बार फिर भारत में आतंकवादी वारदातों का सिलसिला शुरू हुआ है और इसको शह देने का इल्जाम भी पाकिस्तान सरकार की नई सरकार के ऊपर आ रहा है। भारत के गुजरात सहित कई प्रमुख शहरों में बम विस्फोट के पीछे भारतीय हुकूमत पाकिस्तान को जिम्मेदार बता रही है। यह इलजाम सच हो या न हो लेकिन पाकिस्तान ही फिर से दुनिया में आतंकवाद को शह देने की बदनामी की ओर जा रहा है। यहां परवेज मुशर्रफ के समर्थक कहते घूम रहे हैं कि उनकी सरकार के कार्यकाल में भारत-पाक रिश्ते बहुत अच्छे हुए थे जिन्हें कट्टरपंथियों को शह देकर मौजूदा सरकार खत्म करने पर तुली है। यही मुशर्रफ की एक राजनीतिक सफलता है जिससे यह धारणा भी सिद्ध होती है कि पाकिस्तान में सैनिक शासन ही वहां की नियती बन चुका है और इससे पाकिस्तान को बचाए रखा जा सकता है क्योंकि यहां लोकतंत्र पर पाकिस्तानी सेना और कट्टरपंथी हावी हो चुका है जो पाकिस्तान को लोकतंत्र के साथ एक कदम भी चलने ही नहीं देता है। पाकिस्तानी सरकार पर हमेशा से अमरीकी दबाव रहा है कि वह अपने यहां कट्टरपंथ को और आतंकवादियों को लगाम लगाए जो कि पाकिस्तान में सैनिक शासन में ही संभव हो सकता है। लोकतांत्रिक सरकार के वश की यह बात नहीं रही है। परवेज मुशर्रफ ने भी वर्दी में रहकर ही यहां के कट्टरपंथ पर लगाम कसी और वह अफगानिस्तान और पाकिस्तान की सीमा पर समानान्तर सरकार चलाने की कोशिश करने वाले धार्मिक एवं आतंकवाद संगठनों के गठजोड़ के खिलाफ सशस्त्र कार्रवाई कर सके। उन्होंने ही पाकिस्तान की लाल मस्जिद में छिपे आतंकवादियों के खिलाफ जबरदस्त सैनिक कार्रवाई की जो कि पाकिस्तान की लोकतांत्रिक सरकार के बूते की बाहर की बात थी।
पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ इन दिनों अंतरराष्ट्रीय समुदाय में इस बात को लेकर चर्चा में हैं कि वह ऐसे पहले शासक हैं जिनको इस्लामिक आतंकवादियों से सबसे ज्यादा खतरा है। अमरीका भी इसे अच्छी तरह समझता है। मुशर्रफ को पाकिस्तान की गठबंधन सरकार भी एक पल देखना नहीं चाहती। अमरीकी दबाव के कारण मगर उसकी मजबूरी है कि वह मुशर्रफ के मामलों में टांग न अड़ाए। इसीलिए गठबंधन सरकार में शामिल दल मुशर्रफ के खिलाफ खड़े होकर भी उनका कुछ नहीं बिगाड़ पा रहे हैं। अमरीका का पाकिस्तानी शासन में कोई सीधा हस्तक्षेप तो नहीं है लेकिन पाकिस्तान की मौजूद हुकूमत आज अमरीका के दिशा-निर्देशों से अलग हटकर चलने की हिम्मत भी नहीं जुटा सकती है। अमरीका ने पाकिस्तान को जनरल मुशर्रफ के प्रयासों के कारण ही कर्ज के बोझ से राहत दी है और अगर उस वक्त ऐसा नहीं हुआ होता तो पाकिस्तान इस समय गहरे आर्थिक संकट से जूझ रहा होता टूट जाता और उसके सारे राजनीतिक एवं विदेशी एजेंडे खाक में मिल गए होते। अमरीका ने पाकिस्तान की भारत से ज्यादा मदद की है भले ही ऐसा उसने अपनी भारतीय उपमहाद्वीप की विदेश नीति के अनुसार और इस्लामिक आतंकवादियों से निबटने के लिए किया हो। इसमें जनरल मुशर्रफ ने अपने देश को देखते हुए ही उन फैसले को अंजाम दिया है जिनके कारण पाकिस्तान आज सुरक्षित है। पाकिस्तान की नई लोकतांत्रिक गठबंधन सरकार ने बहुत कोशिश की कि वह कश्मीर और अफगानिस्तान के मसले पर नई नीति अपनाए लेकिन इन मामलों पर अमरीका से अलग हटकर सोचना अब पाकिस्तान सरकार के लिए आसान नहीं है। इसलिए जनरल मुशर्रफ ने आतंकवाद से निपटने का जो मार्ग अपनाया है वही मार्ग इस सरकार को भी अपनाना होगा जिसमें कि यह बात मुख्य रूप से शामिल है कि यदि यह सरकार केवल मुशर्रफ के पीछे पड़ी रहेगी तो पाकिस्तान को इसके नुकसान उठाने पड़ सकते हैं क्योंकि विश्व समुदाय में इस समय जनरल मुशर्रफ जितने लोकप्रिय हैं उतने लोकप्रिय मौजूदा पाकिस्तान सरकार के राजनेता नहीं हैं।
भारत और पाकिस्तान के संबंध बहुत अच्छे चल रहे हैं। इनको परवान चढ़ाने का काम जनरल मुशर्रफ ने ही किया है। भारतीय उपमहाद्वीप की राजनीति का मुशर्रफ एक ऐसा किरदार है कि जिसके खिलाफ भारत में एक माहौल था और आज उस मुशर्रफ के लिए भारतीयों के दिल में एक जगह है। मुशर्रफ एक ऐसे सैनिक शासक रहे हैं जिन्होंने कुछ समय राजनीतिक उद्दंडता बरतने के बाद जल्दी ही यह सीख ले ली कि दुनिया को विश्वास में लेने के लिए राजनीतिक रास्तों से गुजरने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। उन्होंने कश्मीर पर अनगिनत प्रयोग किए हैं और अंततः राजनीतिक और यही प्रयोग सफल हुआ कि वहां पर पाकिस्तान को बदनाम कर रहे आतंकवादी गुटों पर सख्ती बरती जाए। पाकिस्तान में विरोधी अभियानों को भी उन्होंने नियंत्रित करने का काम किया है भले ही भारत का एक फरार अपराधी दाऊद इब्राहिम पाकिस्तान में पनाह लिए हुए है और मुशर्रफ को इसकी पाकिस्तान में मौजूदगी पर बार-बार झूठ बोलना पड़ा हो। भारत पाकिस्तान के बीच सांस्कृतिक और खेल गतिविधियों का आदान-प्रदान होना इस बात का संकेत है कि यह प्रक्रिया दोनों देशों के लिए सबसे अच्छी साबित हुई। इस कारण दोनों देशों का ध्यान अपने-अपने देश पर है और जब तक पाकिस्तान में जनरल परवेज मुशर्रफ का प्रभाव है तब तक अच्छे से अच्छे की ही उम्मीद की जानी चाहिए। आगे देखना होगा कि पाकिस्तानी सरकार इस वातावरण का कहां तक लाभ उठा पाएगी।