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सार्क वही घिसे-पिटे मुद्दे और नतीजा जीरो

शंकर बसु

झन्डा

terrerकोलंबो। तमिल ईलम के आतंकवादी साम्राज्य कीबारूदी सुरंगों से अटे पड़े श्रीलंका में सार्क सम्मेलन ने आतंकवाद, संगठित अपराध से निपटने, क्षेत्रीय विकास जैसे मुद्दों पर काम करने की चर्चा करने और एक दूसरे पर इल्जामों की बौछार करके अपनी भड़ास निकालने के बाद जो प्रस्ताव पास किया गया है, साफ शब्दों में कहें तो यह इससे पहले हुए ‘निष्फल’ सार्क सम्मेलनों की ही कार्बन कापी है। कुल मिलाकर यह सम्मेलन इस बार भी चर्चा और प्रस्तावों से आगे किसी प्रभावी कार्य योजना की तरफ नहीं बढ़ सका। आतंकवाद और संगठित अपराध पर चर्चा में इस बार भारत और अफगानिस्तान का पाकिस्तान पर जोरदार हमला जरूर देखने को मिला जिसमें पाकिस्तान अपना बचाव करते हुए अलग-थलग सा नज़र आया। सभी देश आतंकवाद पर अपनी कार्ययोजनाएं तो लेकर आए मगर वे सम्मेलन में ‘फ्लापी’ से बाहर ही नहीं निकलीं।
पिछले सार्क सम्मेलनों में पारित हुए प्रस्तावों को देखें तो आतंकवाद और संगठित अपराध को नकेल तब भी नहीं पड़ सकी। यह दैत्य इस महाद्वीप में अपने पांव पसारता ही जा रहा है। अब तो सरकारों के वार्षिक बजट में आतंकवाद से निपटने के लिए बाकायदा ‘आतंकवाद बजट’ का अच्छा खासा प्रावधान तक किया जाने लगा है। श्रीलंका में सरकार के वार्षिक बजट में धन का एक बड़ा भाग तमिल टाइगरों से भिड़ने पर ही खर्च हो जाता है। भारत में भी आतंकवाद का सामना करने के लिए भारी धन खर्च होता आ रहा है। अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्था तो आतंकवाद की ही चपेट में है। जहां तक कुछ अन्य देशों का प्रश्न है तो उनमें या तो कई आतंकवाद की मंडी चला रहे हैं या आतंकवादियों को शरण देकर अंतरराष्ट्रीय समुदाय पर दबाव बनाने का काम करते हैं। इस सार्क सम्मेलन में तो सारे सदस्य देशों के चेहरों पर आतंकवाद का तनाव और एक दूसरे पर संदेह की रेखाएं खिंची देखी गईं। मगर आतंकवाद और संगठित अपराध के खात्मे पर सैद्धांतिक सहमति तैयार हुई और एक समझौते पर सभी देशों ने हस्ताक्षर भी किए। क्षेत्रीय व्यापार को बढ़ावा देने और एक दूसरे के सांस्कृतिक संबंधों को और मजबूत करने पर चर्चा के साथ-साथ खाद्यान्न संकट पेट्रोलियम मूल्यों पर विचार-विमर्श हुआ। सभी राष्ट्राध्यक्षों की एक दूसरे से अलग-अलग और द्विपक्षीय मुद्दों पर बात-चीत भी हुईं। अब देखना यह है कि सम्मेलन में एक दूसरे की मदद के लिए जो दम भरा गया है उसमें ये कितना साथ-साथ चलते हैं।
सार्क में भारत और पाकिस्तान के बीच भी खूब गर्मा-गर्मी हुई। इसका कारण भारत के बंगलूर जैसे कई बडे़ शहरों में बम धमाके और साथ ही भारत के गुजरात प्रांत के कई शहरों में श्रंखलाबद्घ धमाकों में पाकिस्तान की साजिश का आरोप रहा। पाकिस्तान और भारत की सबसे बड़ी समस्या एक दूसरे के देशों में संगठित अपराध और ताबड़तोड़ आतंकवादी वारदातों का होना है। ये दोनों देश हमेशा इसी मुद्दे पर आमने-सामने दिखाई देते हैं। भारत के गुजरात प्रांत और कुछ अन्य इलाकों में जबरदस्त बम धमाकों का आरोप सीधे पाकिस्तान पर गया है। अफगानिस्तान में भारतीय दूतावास के सामने आत्मघाती हमलों का आरोप भी पाकिस्तान पर गया है। अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई ने पाकिस्तान को एक प्रकार से आतंकवादियों अड्डा साबित कर दिया। पाकिस्तान के पास कोई सटीक जवाब नहीं था और वह कहता रहा कि वह खुद भी दूसरे देशों से प्रायोजित आतंकवाद से परेशान है। इसलिए सार्क में आरोप और प्रत्यारोप छाए ही रहे। पूरा सम्मेलन ही आतंकवाद के इर्द-गिर्द घूम रहा था। जहां तक श्रीलंका का प्रश्न है तो वह तो पहले से ही तमिल ईलम के सशस्त्र और आत्मघाती अलगाववादियों से जूझ रहा है इसलिए जाहिर बात है कि भारतीय उपमहाद्वीप मुख्य रूप से भयानक आतंकवाद, अपराध और आर्थिक समस्याओं से पीडि़त है।
काबुल में भारतीय दूतावास पर हमले को लेकर अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच तकरार पर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री युसुफ रजा गिलानी ने अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई से मुलाकात करके इस मुद्दे पर चर्चा की। भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी इस हमले को गंभीरता से लिया और उन्होंने भी इसे चिंता के साथ उठाया। हामिद करजई सबसे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने अपने यहां हमले के पीछे आईएसआई को जिम्मेदार माना। उन्होंने साफ तौर पर कहा कि पाकिस्तान अफगानिस्तान के आतंकवादियों को समर्थन दे रहा है। करजई के आरोपों के कारण पाकिस्तानी प्रधानमंत्री युसुफ रजा गिलानी काफी परेशान दिखे। उन्हें भारतीय आरोपों की इतनी चिंता नहीं थी जितनी कि अफगानिस्तानी आरोपों की थी जिसके बाद गिलानी को कहना पड़ा कि वह अफगानिस्तान में भारतीय दूतावास पर हुए हमले की स्वतंत्र जांच कराने को तैयार हैं। युसुफ रजा गिलानी के पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत में अचानक आतंकवादी वारदातों में इजाफा हुआ है जिससे गिलानी को असहज स्थितियों का सामना करना पड़ रहा है।
पाकिस्तान को हाल ही में एक झटका अमरीकन राष्ट्रपति जार्ज बुश ने दिया है जिन्होंने गिलानी से साफ-साफ कहा कि यदि काबुल की घटना में पाकिस्तान शामिल पाया गया या ऐसी ही कोई वारदात भविष्य में हुई तो उसकी खैर नहीं है। पाकिस्तान की नई सरकार इस चिंता में चली गई है कि आतंकवाद के म़द्दे पर वह चारों तरफ से घेरी जा रही है ऐसे में अमरीका की चेतावनी इस बात का संकेत है कि गिलानी अपने देश में छिपे आतंकवादियों और संगठित अपराधियों को काबू में करें नहीं तो उनका चलना मुश्किल है। इसलिए कोलंबो के सार्क सम्मेलन में पाकिस्तान को कहीं हमलावर से ज्यादा बचाव की मुद्रा में रहना पड़ा। अफगानिस्तान में भारतीय दूतावास पर हुए हमले में पाकिस्तान की खुफिया एजंसी आईएसआई के हाथ होने के प्रमाण प्रकट होने से अंतरराष्ट्रीय मंच पर गिलानी के लिए परेशानियां ही खड़ी होंगी क्योंकि अमरीका किसी भी कीमत पर अफगानिस्तान से छेड़छाड़ बर्दाश्त नहीं कर सकता। अमरीका इसे काबुल के साथ छेड़छाड़ ही मान रहा है। यही गिलानी की भविष्य की समस्या है। सम्मेलन में श्रीलंका के राष्ट्रपति महेंद्र राजपक्षे आतंकवाद की चुनौती से निपटने के लिए सबसे ज्यादा सक्रिय दिखाई दिए। उन्होंने जब कहा कि श्रीलंका भी मानवता के दुश्मन से लंबे से प्रभावित है तो इसे सभी सदस्य देशों ने माना। नेपाल, बांग्लादेश, भूटान के प्रमुखों ने भी इस बात पर चिंता प्रकट की।
सार्क की सफलता-विफलता और उसकी उपयोगिता पर प्रश्न उठते रहे हैं। दक्षिण एशियाई देशों के बीच क्षेत्रीय सहयोग पर विचार पहली बार 1970 के दशक में बांग्लादेश के तात्कालीन राष्ट्रपति जिया-उर-रहमान ने प्रकट किया था। उन्होंने सार्क की कल्पना व्यापार देश समूह के रूप में की थी। सन् 1983 में सार्क की स्थापना हुई जिसका मुख्य मकसद द्विपक्षीय मुद्दों को दरकिनार करते हुए सदस्य देशों के बीच आपसी सहयोग और वाणिज्य साझेदारी को बढ़ावा देने पर काम करना था लेकिन सार्क की नीयत और लक्ष्य दोनों ही भटक गए। सार्क राजनीतिक और द्विपक्षीय मुद्दों का मंच बनकर रह गया। सार्क की इस बैठक में तो यही बात प्रमुखता से देखने को मिली। कुछ काल तक सार्क की बैठकों में क्षेत्रीय विकास पर गंभीर चर्चाएं भी हुई और उसके व्यापारिक परिणाम भी सामने आए लेकिन इस महाद्वीप में श्रीलंका में सर चढ़कर बोले तमिल आतंकवाद ने दक्षेस की व्यापारिक दिशा को बदल दिया और दूसरी ओर भारत के कश्मीर प्रांत में पाकिस्तान की ओर से आतंकवाद को प्रश्रय दिया जाने लगा, इससे भी सार्क की दिशा बदल गई। सन् 1981 में अप्रैल में कोलंबो में सात प्रमुख देशों भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, श्रीलंका, मालद्वीप और नेपाल के विदेश सचिवों की बैठक हुई और सहयोग के पांच क्षेत्रों को चिन्हित किया गया था जिसमें से आज तक किसी पर भी सफलता हासिल नहीं हो सकी।
सार्क के नए एजेंडे के अनुसार दक्षेस देशों ने आतंकवाद से निपटने के लिए क्षेत्रीय कानूनी खाका अपनाने का निर्णय लिया है। अपराधिक मामलों में साझा कानूनी सहयोग के लिए संधि, दक्षेस सदस्य देशों को आतंकवाद सहित आपराधिक मामलों का पता लगाने के लिए संभावित उपाय किए जाएंगे। इसके अलावा ऊर्जा और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए एक कार्य योजना और आपदा प्रबंधन जैसे मुद्दों पर और ज्यादा खुलकर काम किया जाएगा। इन मामलों में आपसी सहमति के रास्ते कहां तक जाएंगे यह फिर कसौटी पर है क्योंकि दक्षेस में जितनी बार भी ऐसे मुद्दे विचार में आए और उन पर कार्य योजना बनी तो मगर घूम-फिरकर सदस्य देश उसी आतंकवाद और क्षेत्रीय अस्थिरता पर आ गए। इस सम्मेलन में भी वे मुद्दे भटके हुए नजर आए जिनके लिए सार्क का गठन हुआ था।

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