प्रभुदयाल श्रीवास्तव
Wednesday 18 March 2015 05:34:45 AM
रेल हमारे घर तक आए,
क्यों न कुछ ऐसा हो जाए,
रेल हमारे घर तक आए,
टीटी टिकट काटकर लाए,
मन पसंद की सीट दिलाए।
सागर से बीना जाने का,
टिकट रूपये पंद्रह लगता है,
पर घर से स्टेशन तक का,
सौ रुपिया देना पड़ता है।
सौ रूपये में बीना तक के,
चक्कर तीन लगा सकते हैं,
पर ऑटो में स्टेशन के,
इतने पैसे क्यों लगते हैं?
हम सब छोटे बच्चों को यह,
बात समझ बिल्कुल न आए।
अगर रेल घर तक आ जाए,
भाग-दौड़ से बच जाएंगे,
भीड़-भाड़ का डर न होगा,
तुरत रेल में चढ़ जाएंगे।
मम्मी पापा मजे-मजे से,
डिब्बे में बैठ जाएंगे,
लंबी चादर बिछा बर्थ पर,
ओढ़ तानकर सो जाएंगे।
टीटी आकर हम बच्चों को,
खिड़की वाली बर्थ दिलाएं।
रिक्शे के जो पैसे बचते,
वह गुल्लक में डालेंगे,
बचे हुए उन पैसों से हम,
निर्धन बच्चे पढ़ाएंगे,
उन्हें किताबें लेकर देंगे ,
कापी-कलम दिलाएंगे।
काश! रेलवे के अंकल को,
यह बात समझ में आ जाए,
रेल हमारे घर तक आए,
और रेल से घूमने जाएं।।
-प्रभुदयाल श्रीवास्तव
12 शिवम सुंदरम नगर छिंदवाड़ा,
मध्य प्रदेश।