दिनेश शर्मा
मंदिर देवीपाटन, तुलसीपुर (बलरामपुर), उप्र। शंकर, जाति से एक दलित हैं और उत्तर भारत की एक विख्यात धार्मिक देवीय शक्तिपीठ के मुख्य रसोईया हैं। इतना ही नहीं, राजनीतिज्ञों की भाषा में आज जिन्हें दबा-कुचला कहा जाता है, उनमें अधिकांश इस पीठ में अपनी महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाते आ रहे हैं। जातियों में बटे इस दौर में सामाजिक समरसता और सामाजिक न्याय का इससे बेहतर मेल और उदाहरण और क्या चाहिए? इसलिए दलित समाज के उद्धारक और भी हैं जो बगैर ढोल बजाए समाज में इस तबके को मान-सम्मान और अवसर देते आ रहे हैं जिनके नाम पर मायावती जैसी दलित नेता राजयोग भोगती आ रही हैं। समाज में छुआछूत और अपृश्यता के विरुद्ध और भी समाज सुधारकों को भी किसी ने देखा तो होता! जिन्होंने इसकी शुरूआत ही अपनी रसोई से की है, जहां पर दलित खाना बनाता है, दलित भोजन परोसता है एवं दलित भोग भी लगाता है। वह इनके बीच में अपनी दिनचर्या शुरू करते हैं और इनके सामाजिक एवं आर्थिक उद्धार के लिए जन जागरण भी करते हैं।
उस दिन लगातार मूसलाधार बारिश और तेज़ तूफान में तुलसीपुर के पास एक चाय के ढाबे पर रुककर जब हमने पूछा कि यहां से देवी पाटन शक्ति पीठ कितनी दूर है, तो वहां खड़े लोगों में एक ने तपाक से कहा कि यह पूरा इलाका ही शक्तिपीठ है। आपको किनके पास जाना है? हमारा उत्तर था कि महंत योगी कौशलेंद्र नाथ से मिलने जाना है। दूसरा बोला कि आप उन्हें
जानते हैं? हां! थोड़ा-थोड़ा। एक प्रबल हिंदूवादी छवि होने के कारण लगा कि प्रश्नकर्ता के मन में महंत को लेकर कोई नकारात्मक भाव हैं जो उसने इस प्रकार सवाल किया लेकिन अगले ही क्षण मेरा और मेरे सहयोगी का संशय दूर हो गया जब उसके मुख से निकला कि ‘अरे साहब वह तो दीन दुखियों के मसीहा हैं और इस इलाके की नाक हैं।’ यह बातें बोलने वाले एक ने अपना नाम मैकू बताया तो दूसरे ने हरिहर। ये दोनों ही दलित हैं। तेजी से फैलते जातिवाद के भयानक जाल में अब फिर से सोच-समझ कर बोलने की जरूरत बढ़ गई है। यह आज की व्यवहारिक और अत्यंत कड़वी सच्चाई है, इसलिए सामान्य वार्तालाप में सामने वाले अनजान व्यक्ति की घुमा-फिरा कर जाति पता चलने के बाद सुरक्षा के एक पक्ष का बड़ा-भारी संकोच दूर हो जाता है। हालांकि जन-मानस में जातिवाद के इस वातावरण के लिए कोई भी स्थान नहीं होना चाहिए। वास्तव में यह देश के राजनीतिक और सामाजिक कर्णधारों की एक बड़ी शर्मनाक विफलता है, जो चौबीस घंटे जन-सामान्य के बीच रहते हैं, मगर वे जातिवाद एवं सांप्रदाय की ऐसी धारणाओं को न तो तोड़ सके और ना ही बदल सके जो मनुष्य के मूल समाज को संस्कारों और सामाजिक सरोकारों से दूर करती हैं। केवल ऋषि-मुनि और सूफी-संत ही विभिन्न रूपों में इस सामाजिक दायित्व को निभा रहे हैं। शक्तिपीठ के पीठाधीश्वर महंत योगी कौशलेंद्र नाथ इस क्षेत्र में हिंदू धर्म के प्रमुख प्रवर्तक होने और यहां से भाजपा के विधायक भी हैं। हिंदुओं की आवाज़ उठाने के नाते मुस्लिम कट्टरपंथियों के साथ-साथ भारत-नेपाल सीमा पर सक्रिय हिंसक माओवादियों के निशाने पर भी हैं। उधर हिंदु युवा वाहिनी के अध्यक्ष और सांसद महंत योगी आदित्यनाथ के अत्यंत विश्वास-पात्र होने के नाते और धर्मांतरण एवं मुस्लिम कट्टरपंथ के खिलाफ रहने के कारण महंत योगी कौशलेंद्र नाथ की सुरक्षा को खतरा माना जाता है लेकिन सरकार ने इसके उलट इनके प्रतिक्रियावादी होने की बात कहकर इनकी व्यापक सुरक्षा के सवाल को ही टाल दिया है। क्षेत्र में इसकी तीखी प्रतिक्रिया भी हो रही है। उड़ीसा के कंधमाल में धर्मांतरण का विरोध करने वाले प्रमुख हिंदूवादी स्वामी लक्षमणानंद की हत्या हो ही चुकी है जिस पर पूरे देश में बवाल मचा हुआ है। श्रद्घालुओं की सुरक्षा से संबंधित जानकारी करने पर किसी ने कहा कि दिन में यहां दो सिपाही दिखाई दिया करते हैं, लेकिन इतनी बड़ी धर्मपीठ के लिए यह सुरक्षा नाकाफी है। वैसे भी जन-आबादी से पीठ स्थल दूर है। एक सन्यासी और एक राजनीतिज्ञ की एक साथ भूमिका और इन दोनों के बीच संतुलन के सवाल का उत्तर लाना हमारी इस यात्रा का कारण था, जिसके कुछ ऐसे ही उत्तर तो हमें तुलसीपुर की सीमा में दाखिल होते ही मिलने लग गए थे। | |
शक्तिपीठ के दर्शन और प्रसाद गृहण करते हुए बातों-बातों में यह बात भी खुलकर आ गई कि पीठाधीश्वर महंत कौशलेंद्र नाथ या पीठाधीश्वर आदित्यनाथ या फिर महंत अवैद्यनाथ उस दलित समाज में काफी लोकप्रिय हैं जिसके प्रति सहानुभूति प्रकट करने या जिनके घर जाने पर कांग्रेस नेता राहुल गांधी को अनेक बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के गुस्से का शिकार होना पड़ा। मगर यहां किसी को मायावती की राजनीतिक ताकत या उनकी नाराजगी के शिकार होने की कोई चिंता नहीं दिखाई देती। अगर ऐसा होता तो पूर्वांचल में दलित इन धर्म प्रवर्तकों के साथ नहीं होते। देवी पाटन में योगी कौशलेंद्र नाथ की रसोई एक दलित शंकर चलाते हैं जिनका शानदार प्रबंधन देखकर बड़े-बड़े पंडित रसोईयों के पास कोई जवाब नहीं होगा। श्रीराम, रामशंकर, प्रकाश यादव भी शक्तिपीठ की रसोई और उससे जुडे़ दूसरे कामों में अपना हाथ बंटाते हैं। यह छुआछूत, अपृश्यता, भेदभाव और जातिवाद के खिलाफ ढोल बजाते फिर रहे जातिवादी ढोंगियों के मुंह पर एक करारा तमाचा है। बातचीत में ये कहते हैं कि यह पीठ हमारे घर से कम नहीं है। हमारा पूरा जीवन यहां भक्तों की सेवा में लगा है। शंकर के लिए यह गर्व की बात है कि वह इस पीठ के रसोईया हैं। शक्तिपीठ को इन सब पर भारी विश्वास है। यह तब है जब कुछ दुनिया वाले ऐसी शक्ति पीठों को धर्म जाति के नाम पर घूर कर देखते हैं, सांप्रदायिक कहते हैं, हिंदूवादी कहते हैं और इनके खिलाफ सरकार से लेकर समाज तक में जहर ही जहर उगलते हैं। इसीलिए कहा है कि किसी ने देखा तो होता कि यहां सामाजिक न्याय और समरसता का कैसा साक्षात प्रमाण मिलता है और यहां कितनी शांति है।
इस सबके बावजूद पूर्वांचल में महंत अवैद्यनाथ, योगी आदित्यनाथ और योगी कौशलेंद्रनाथ को उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुलायम सरकार और अब मायावती सरकार, प्रतिक्रियावादी मानती है और उनकी सामाजिक शक्ति की अवहेलना करती आ रही है। यही रवैया केंद्र सरकार का भी दिखाई देता है। मजे की बात है कि इन इलाकों में किसी प्रकार के तनाव को दूर करने के लिए स्थानीय प्रशासन इन्हीं की मदद लेता है और प्रशासन को यहां से हर प्रकार की मदद भी मिलती है लेकिन फिर भी सरकारों और राजनीतिक दलों की नज़रों से ये घूर कर देखे जाते हैं और रोज ही किसी न किसी प्रकार से उपेक्षा का शिकार होते हैं। मगर इस क्षेत्र की जनता ने इन्हें जो ताकत बख्शी है उसका मुकाबला न तो सरकार कर पाती है और न राजनीतिक दल। दूसरे राजनीतिक दलों के अनेक नेताओं का राजनीतिक भविष्य ही इन पीठों से तय होता है इसलिए आम जनता में इनके लिए भारी सम्मान और सहानुभूति दिखाई पड़ती है। इस पूरे इलाके में इन धर्माचार्यों का खासा प्रभाव है।
एक प्रश्न यहां आने वाले से उत्तर मांगता है कि फिर क्यों इन पीठों और पीठाधीश्वरों की सुरक्षा जैसे मामलों की घोर उपेक्षा हो रही है? क्या वास्तव में यह सच लगता है कि ये प्रतिक्रियावादी हैं? मायावती सरकार ने तो हद ही कर दी। इस सरकार ने पूर्वांचल के दलितों के धर्मांतरण जैसे गंभीर मुद्दे पर तो चुप्पी ही मार रखी है। यह धर्मांतरण इसलिए है कि दलित और दीनहीन समाज के लोगों के वोटों के दम पर राजमुकुट पहने मायावती को दलितों की ही गरीबी और भुखमरी नहीं दिखाई दे रही है, इसलिए दूसरी मिशनरियां इसका लाभ उठाकर सामाजिक विघटन में लगी हुई हैं। देश भर में दलितों को सामाजिक न्याय के नाम पर सवर्णों के खिलाफ उकसाने और भड़काने वाली मायावती ने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनने के बाद अगर इन दलितों का एक भी जनता दर्शन किया हो तो वह बताएं? जबकि देश भर की ऐसी शक्तिपीठों पर ये दबे कुचले रोज़ ही जाते हैं और भरपूर मान-सम्मान भी पाते हैं। पूर्वांचल में इन पीठों पर इस सच्चाई को देखा गया है।
यूं तो रहन सहन की सामान्य परंपराएं हैं मगर कानों में मोटे कुंडल, गुरू के प्रति अभिवादन का तरीका इन्हें औरों से अलग ही नाथ संप्रदाय की पहचान देता है। शिक्षा और अनुशासन यहां सर चढ़कर बोलता है। गेरुए वस्त्र, सिर पर गेरुआ ही साफा, दमकता हुआ चेहरा और गले में स्फटिक और रुद्राक्ष की माला। एक गरिमामय तेजस्वी महंत ने अपने अतिथि कक्ष में बड़े ही सामान्य और आत्मिक भाव से प्रवेश किया। धर्मग्रंथों में जिस प्रकार धर्माचार्यों संतो और महंतों के व्यक्तित्व की कल्पना की जाती है वैसा ही व्यक्तित्व योगी महंत कौशलेंद्र नाथ के रूप में हमारे सामने था। इससे पहले हम देवीपाटन धर्मपीठ के हर स्थल को देख ही चुके थे। यहां की अंर्तमुखी व्यवस्थापना, गौशाला, अस्पताल, संस्कृत स्कूल, थारुओं की शिक्षा और उनके लिए हास्टल (यहां देश के पूर्वोत्तर राज्यों के छात्र भी रहते हैं)और यहां के आध्यात्मिक पक्ष से हमें पीठ के एक प्रमुख सहयोगी और कोठारी अमरेंद्र नाथ योगी ने परिचित करा ही दिया था इसलिए सामान्य अभिवादन के साथ, हमारे मुंह से यही निकला यहां सबकुछ देखकर हमें बहुत अच्छा लगा। मन में एक सवाल घूम रहा था कि एक महंत, एक योगी, एक धर्मपीठाधीश्वर, एक हिंदूपंथी और उस पर भी एक लोकप्रिय विधायक-एक साथ इन सारी जिम्मेदारियों में संतुलन का आखिर क्या फार्मूला है? हमारी सोच में यह रहस्य था लेकिन जैसे ही वार्तालाप शुरू हुआ सारे पक्ष सामने आते गए और महंत के ज्ञान वैराग्य सामाजिक, आध्यात्मिक, राजनीतिक, प्रबंधन और आर्थिक पक्ष जैसे विषयों पर उनके पूरे नियंत्रण का पता चला।
मेरा कहना था कि बाल ठाकरे भी हिंदू की बात करते हैं? इस पर योगी खुलकर बोले- ‘बाल ठाकरे, राज ठाकरे न कभी हिंदू नेता थे न हैं और न होंगे उन्होंने अपने ही देश में जो अत्याचार और भेदभाव किया है उसे पूरा देश अच्छी तरह से जानता है वे जब चाहे जो बोल दें अब वे मराठवाद का काम कर रहे हैं और शिवाजी का नाम बेच रहे हैं, जिन्होंने कभी भी पूरब-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण का भेद नहीं किया था, सच पूछिए तो यह इधर-उधर के पूंजीपतियों का गिरोह है, इनके रहन-सहन को देखकर आप दंग रह जाएंगे। यही हालत हमारे बलरामपुर इलाके के भाजपा सांसद ब्रजभूषण शरण सिंह जैसों की है जो हिंदुओं के नाम पर राजनीति करके जीत गए मगर हैं नंबर वन के माफिया। ऐसे ही पूर्वांचल में हरिशंकर तिवारी हैं जो सत्ता के ही साथ रहना चाहते हैं और आज किनके साथ हैं, यह बताने की जरूरत नहीं है, ऐसे लोगों ने समाज को विघटन के कगार पर पहुंचा दिया है, हम समाज को तोड़ते नहीं हैं, हम समाज को जोड़ते हैं, हम बाल ठाकरों से सहमत नहीं हैं, वैसे भी हिंदू धर्म तोड़फोड़ और भेदभाव की इजाजत नहीं देता है। ऐसा ही हमारे महंत अवैद्यनाथ और महंत योगी आदित्यनाथ का कहना है’-यह बात कोई और नहीं बल्कि हिंदू धर्म का एक प्रखर प्रवर्तक बोल रहा है, इसलिए क्या आप मानेंगे कि जो लोग इन्हें प्रतिक्रियावादी कह रहे हैं वे ही सही हैं?
महंत योगी कौशलेंद्र नाथ का दर्शन-शास्त्र बहुत स्पष्ट है और व्यवहारिकता के अत्यंत करीब है। वे केवल उसे क्षत्रिय मानते हैं जो किसी की रक्षा करे, इनमे क्षत्रिय दलित भी हो सकता है। दलित कोई जाति नहीं है बल्कि शूद्र कर्म करने वालों की यह पहचान रखी गई है जो सबसे दुखद है। मानव शरीर का सबसे निचला भाग शूद्र कहा गया है और निचले भाग में मनुष्य के चरण आते हैं जिन्हें छूकर सम्मान प्रकट किया जाता है तो फिर हम उस सफाई कर्मी का सम्मान प्रकट करने में क्यों झिझकते हैं जो कि शूद्र का काम करते हैं? यह भेदभाव की पराकाष्ठा है जिसको कोई स्थान नहीं मिलना चाहिए। निश्चित रूप से ये विचार एक राजनीतिज्ञ और एक सन्यासी के बीच संतुलन के सेतु बने हुए हैं।
इस पर योगी और विस्तार में गए-‘मेरी इच्छा थी कि विरक्त जीवन में कहीं दूर पर्वतों या गुफाओं में साधना करूं, बचपन में मैंने अपने गुरुजी से जब यह प्रश्न किया कि साधु सन्यासियों के स्थान तो गुफाओं और कंदराओं में होते हैं, इसलिए साधना कहां पर होनी चाहिए तो उनका कहना था कि समाज के बीच में रहकर ही साधना कीजिए और समाज को सामाजिक आध्यात्मिक और शैक्षणिक उन्नति के मार्ग पर ले जाइए, यह देश दुनिया की प्रगति की दौड़ में शामिल है, इसलिए कंदराओं में जाने से और वहां साधना करने से काम नहीं चलेगा, हमारे बाद की पीढ़ी जब हमारे बारे में पूछेगी कि उन्होंने समाज के लिए क्या किया तो उसका उसे उत्तर नहीं मिलेगा और धर्म से विचलन हो जाएगा, इसलिए यही मार्ग अपनाया जिसमें हम इन दोनो जिम्मेदारियों को साथ-साथ निभाने में कोई भी असहजता महसूस नहीं करते’ सवाल यह था कि राजनीतिक धर्म और सन्यासी के बीच संतुलन किस प्रकार कायम करते हैं? योगी कौशलेंद्र नाथ ने इस विषय पर विस्तार से चर्चा की और अपने आध्यात्मिक जीवन के अनुभवों को बहुत स्पष्ट भाव से प्रकट किया।
योगी देश में धर्मांतरण के मामले पर काफी दुखी और उत्तेजित दिखे और बम धमाकों में मुसलमानों की संलिप्तता और उसे राजनीतिक समर्थन को देश के लिए घातक बताया। एक सन्यासी की यह पीड़ा किसी एक हिंदू के लिए नहीं है बल्कि मानव समाज के लिए है, क्योंकि यह उन राजनीतिज्ञों की देन है जो आगे बढ़ने के लिए कुछ भी करने कराने के लिए तैयार हैं। क्या भारत सरकार को दिखाई नहीं दे रहा है कि महंत आदित्यनाथ का जीवन खतरे में है और किस प्रकार से देश के धार्मिक स्थलों को और हिंदू हितों की बात करने वालों को निशाना बनाया जा रहा है? यही उपेक्षा आम आदमी को समाज में भेदभाव के लिए उकसाती है। धर्मांतरण और सांप्रदायिकता के मुद्दे पर दोमुंही बातें कब तक चलेंगी? हम तो पूर्वांचल में देख रहे हैं कि हमारी माताओं के शरीर में हिमोग्लोबिन की भारी कमी आ गई है, अस्पतालों के पास ब्लड बैंक नहीं है पूरे बलरामपुर जनपद में एक भी ब्लड बैंक नहीं है, हम तो इस पर सोच रहे हैं कि उनके लिए एक अस्पताल और एक ब्लड बैंक हो ताकि वह स्वस्थ बच्चे को जन्म दें। मगर कुछ हैं जिनका ध्यान केवल राजनीतिक विघटन और समाज की दलाली पर है।
अपृश्यताके कारण एक बड़ी जाति हमसे अलग होती जा रही है क्या इस पर कोई सोच रहा है? हम अगर इसकी बात करें और उनके धर्मांतरण को रोकने के लिए काम करें तो इसमें बुरा क्या है? हमारे यहां जाति नहीं पूछी जाती क्योंकि दलित शब्द का कोई भाव ही नहीं निकलता यह राजनीतिक शब्द है सामाजिक शब्द नहीं है। समाज में शब्द एक दूसरे को जोड़ते हैं, मगर यह शब्द समाज को तोड़ता है। हमारे पास नकारात्मक सोच के लिए समय नहीं है लेकिन जब सामने ही विघटन की राजनीति हो रही हो तो हम अपने समाज को माओवादियों, नक्सलियों, कट्टरपंथियो और आतंकवादियों के विघ्वंसक अभियानों से बचाव के हमेशा आगे आएंगे। हम अपने क्षेत्र तुलसीपुर में ग्रामीण बच्चियों की उच्च पढ़ाई के लिए मां पाटेश्वरी महिला विश्वविद्यालय की स्थापना करना चाह रहे हैं, क्योंकि हमारे गुरू गोरक्षनाथ की प्रेरणा है कि नारी के सम्मान में विश्वविद्यालयों और योजनाओं में नारी का हित सर्वोपरि हो।
नाथ संप्रदाय के बारे में योगी कहते हैं कि इस संप्रदाय की अलग सामाजिक व्यवस्था है वह मानता है कि अगर एक पंडित मांसाहारी है तो उसे पंडित कहना अपमान होगा और यदि एक दलित वेद पाठी है तो हमारी दृष्टि में वह ही पंडित कहलाएगा और सम्मान का पात्र होगा। रावण के कर्म गलत थे जो उसे मृत्यु तक ले गए। कलयुग में जो विरत जीवन में आते थे योगी की परंपरा थी कि उसी स्वरूप में वह प्रचार-प्रसार करे तब गृहस्थ लोग भी आए मगर फिर यह किया गया कि चिन्हित कर दिया जाए कि ताकि एक बार विरत में आने के बाद वह गृहस्थ में वापस न जा सके जिससे उसका कान छेदन कर उसमें कुंडल डाल दिया गया।
हमारे यहां परंपरा है कि औघड़ के सौ घर, घर-घर भटका, नाथ घर अटका। देश में बहुत से संप्रदाय हैं जो अधिकांश सिद्धांतों को लेकर चलते हैं जबकि नाथ संप्रदाय साधना प्रधान है। नाथ संप्रदाय गुरु गोरक्षनाथ की पंरपरा को लेकर चल रहा है। इस संप्रदाय की सभी मठ और मंदिरों को संचालित करने वाली संस्था है-अखिल भारतीय अवधूत भेक बारह पंथ योगी महासभा। यह महासभा देश भर के करीब सात सौ पचास मठ मंदिरों को अपने अधीन करके उनका संचालन कर रही है जिसमें शिक्षा स्वास्थ्य समाज के गरीब तबके के उत्थान के बड़े-बड़े कार्यक्रम चल रहे हैं। इस संस्था के राष्ट्रीय अध्यक्ष महंत अवैद्यनाथ हैं। यहां मठ मंदिरों देवी पीठों से देश के लिए धार्मिक आध्यात्मिक रूप से काम किया जा रहा है।
नेपाल और हिंदुस्तान की सीमा पर प्राचीनकाल से प्रसिद्ध शक्तिपीठों में यह प्रमुख धर्म साधना स्थल है। समय-समय पर यहां दूर-दूर से जुटने वाली जनता के अलावा शताब्दियों से दोनों देशों के श्रद्धालु तीर्थयात्री भी दर्शनार्थ आते रहते हैं। देशकाल के अनुसार जब से यातायात के साधनों में विकास हुआ है, मंदिर सहित परिसर के भौतिक स्वरूप एवं संबंधित स्थानों के साथ जन-सुविधाओं का भी विस्तार होता जा रहा है। यहां आने वाले श्रद्धालुओं की संख्या में भी भारी वृद्धि हुई है। धर्म स्थान के प्रति लोगों की रूचि और जिज्ञासा भी बढ़ी है। प्रायः लोग इस स्थान की ऐतिहासिकता, इसके माहात्म्य और यहां विद्यमान मूर्तियों एवं स्थानों के बारे में जानने के लिए अपनी उत्कण्ठा और उत्सुकता प्रकट करते हैं।
जब तक सामाजिक शक्तियों के प्रभाव की अवहेलना की जाती रहेगी तब तक धरती पर कहीं भी न तो धर्मांतरण रूकेगा न सांप्रदायिकता और ना ही जातिवाद खत्म होगा। हर एक विषय को राजनीति की दृष्टि से देखने की एक खतरनाक परंपरा शुरू हो गई है। अब आगजनी, बम विस्फोट, सांप्रदायिक और जातीय हिंसा का विकराल रूप सामने आने लगा है। राजनीतिक दलो के एजेंडे प्रभावहीन होते जा रहे हैं जिन धर्मपीठों को सामाजिक एवं आध्यात्मिक चेतना का प्रचार प्रसार करना था उन्हें राजनीतिक भूमिकाएं भी निभानी पड़ रही हैं। माना जा सकता है कि भारत में राजनीतिक ढांचा कितना कमजोर हो गया है इसीलिए जनता अब अपनी समस्याओं को लेकर खुद सड़कों पर उतर रही है और ऐसी धर्मपीठों की ओर जा रही है। राजनीतिज्ञ भी अपना उल्लू सीधा करने के लिए ऐसी ही धर्मपीठों का ही सहारा ले रहे हैं। यह अलग बात है कि मतलब निकलने पर ये ही राजनीतिज्ञ न शंकराचार्य को बख्शते हैं और न धार्मिक आस्थाओं के मर्मस्थानों पर हमला करने से बाज आते हैं। इन्हें न किसी आतंकवादी की पैरवी करने पर लोकलाज की चिंता है और न देश की चिंता। देश एवं समाज की चिंता करने वालों को यह हतोत्साहित करते हैं।
भारत आध्यात्मिक चेतना एवं शक्ति का एक संवाहक माना जाता है जब ये ही नहीं रहेगी तो राजनीतिज्ञ किस पर राज करेंगे? जरा सोचिए! और विचार कीजिए कि फिर बाहर के लोग आपका सम्मान क्यों करे? स्वतंत्र आवाज़ डॉट कॉम उनका स्वागत करता है जो अपने धर्म के साथ-साथ अपने धर्म राज्य और राष्ट्र के उत्थान के लिए भी समर्पित हैं किसी भी धर्म संप्रदाय की ऐसी हर ऐसी शक्ति पीठों पर हम बार-बार जाना चाहेंगे और लिखना भी चाहेंगे।