इरफान गाज़ी
इस्लामाबाद।पाकिस्तान के लोकतंत्र और उसकी अग्रिम पंक्ति के राजनेताओं का शिकार करके और बचे-खुचों को निर्जीव करके पाकिस्तान की गुप्तचर एजेंसी आइएसआइ स्वात घाटी में एक ताकत बन चुके तालिबान और अलकायदा के साथ जा खड़ी हुई है। अपने देश को हर तरह के खतरों से आगाह करने की जिम्मेदारी संभालने वाली आइएसआइ का अगला शिकार अब पाकिस्तान ही है जिसमें अब ऐसी ताकतों ने पांव पसार लिए हैं जो पाकिस्तान को पाषाण युग में धकेलने के लिए आमादा हैं। कायद-ए-आज़म मुहम्मद अली जिन्ना ने कभी नहीं सोचा होगा कि उनका पाकिस्तान एक समय ऐसा दिन देखेगा जब पूरी दुनिया में उसकी जगहंसाई होगी और वहां का लोकतंत्र तालिबान जैसी शक्तियों का मोहताज हो जाएगा। ऐसा कभी नहीं होता यदि आइएसआइ केवल अपनी जिम्मेदारियों का अंजाम देती और पाकिस्तान और उसके लोकतंत्र को महफूज रखने के लिए कम से कम अपने को सियासत से दूर रखती। देखा जाए तो आइएसआइ का अतीत पाकिस्तान में लोकतांत्रिक शक्तियों को छिन्न-भिन्न करता हुआ पाया गया है। पाकिस्तान में तालिबान ने घुसपैठ कर ली है। इसमें आइएसआइ क्यों खामोश रही यह आने वाला वक्त बताएगा फिलहाल तो यही समझा जा रहा है कि आइएसआइ अपने ही देश की शिकारी बन गई है।
पाकिस्तान की खुफिया एजंसी आइएसआइ की हरकतों और हैसियत के बारे में अब आम आदमी को जानकारी होने लगी है। कुछ अनजान सोचते रहे हैं कि आइएसआइ पांच-दस साल पुरानी होगी। वस्तुत: पाकिस्तान की स्थापना के फौरन बाद ही आइएसआइ का गठन हो चुका था, परंतु यह शुरू से ही पाकिस्तानी हुकमरानों की कठपुतली बनी हुई है। पाकिस्तान में ज्यों-ज्यों सत्ता संघर्ष बढ़ा और जनप्रतिनिधियों का प्रभाव कम हुआ है, फौज के साथ-साथ आइएसआइ की ताकत भी बढ़ती गई। अभी तक तो वह पाकिस्तासन में फौज और सियासत की अंदरूनी गतिविधियों में ही शामिल थी, मगर अब वह स्वांत घाटी में पूरी सक्रियता से तालिबान के विध्वं स और विघटनकारी एजंडों को लागू करने के खतरनाक खेल में भी शामिल हो गई है। उसने भांप लिया है कि अब पाकिस्ता न के लोकतंत्र की हवा निकल रही है, और वह समय दूर नहीं है जब पाकिस्ता न में तालिबान ही तालिबान होगा। वास्त व में आइएसआइ का जन्मस उसका अतीत और कार्यप्रणाली हमेशा से ही संदिग्धक रहे हैं।
आइएसआइ की परिकल्पना आस्ट्रेलियाई मूल के ब्रिटिश अफसर मेजर जनरल काथार्न ने 1948 में की थी। जनरल काथार्न, विभाजन और पाकिस्तान की आज़ादी के बाद अपने देश नहीं गये। उनका परिवार भी कराची में ही बस गया। इन्हीं मेजर जनरल काथार्न ने पाकिस्तानी उपसेनाध्यक्ष के रूप में रक्षा मंत्रालय को यह प्रस्ताव भेजा था कि अनेक गुप्तचर संस्थानों के बीच तालमेल बैठाने व उनका प्रभावी नियंत्रण करने को एक पृथक खुफिया एजेंसी हो। इस प्रस्ताव को पाकिस्तान के प्रथम प्रधानमंत्री लियाकत अली खां से भरपूर समर्थन मिला। तब आइएसआइ की स्थापना-डीजी आइएसआइ (डायरेक्टरेट जनरल इंटर सर्विसेज इंटैलीजेंस) के रूप में हुई। इसका मुख्यालय कराची में ही रखा गया।
आरंभिक वर्षों में आइएसआइ के महानिदेशक का पद ब्रिगेडियर स्तर के फौजी अधिकारियों को दिया जाता था। मूल रूप से यह संस्था पाकिस्तान में नियुक्त विदेशी फौजी कूटनीतिज्ञों की गतिविधियों पर निगाह रखने और उनसे बेहतर संबंध बनाने का काम करती थी। साथ ही विदेशों में पाकिस्तानी दूतावासों में तैनात फौजी उच्चाधिकारियों से तालमेल बनाये रखती थी। इसके अतिरिक्त आइएसआइ को कुछ नहीं करना होता था। मगर जैसे-जैसे पाकिस्तानी सियासत में फौज का दखल बढ़ता गया, आइएसआइ की महत्ता तथा अधिकार भी बढ़ते गए। कुछ दर्जन फौजी अधिकारियों व नागरिक शोधकर्त्ताओं से काम चलाने वाली आइएसआइ के एजेंटों की संख्या आज हज़ारों में है। जनरल याहिया खां के समय में आइएसआइ की महत्ता इतनी बढ़ गई थी कि इसके कार्यकलापों की देखभाल तथा निर्देशन हेतु राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार का पृथक पद तक गठित किया गया था।
इसी दौरान आइएसआइ का नामकरण-इंटर सर्विसेज इंटैलीजेंस कोआर्डीनेशन ब्यूरो (आइएसआइबी) किया गया। मगर जल्दी ही आइएसआइ से तालमेल बनाने का काम छीन लिया गया। नये स्वरूप में 1965 के आसपास आइएसआइ को मिलेट्री इंटैलीजेंस और इंटैलीजेंस ब्यूरो के नियंत्रण में रखकर काम करने के अधिकार दे दिए गए। खुशकिस्मती से आइएसआइ खुफिया सूचनाएं जमा करने में इन दोनों संस्थाओं से आगे रही। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने अपनी पुस्तक 'इफ आय एम असासिनेटेड' के पृष्ठ 62 पर आइएसआइ की बदलती भूमिकाओं पर टिप्पणी करते हुए कहा है, 'याहिया खां ने खुफिया तंत्र का भरपूर दुरुपयोग किया। सियासी नेताओं को लड़ाने और 1970 के चुनावों को प्रभावित करने में उन्होंने पूरी ताकत झोंक दी।'
पुस्तक में आगे कहा गया है कि जब 1965 में भारत-पाक युद्ध शुरू हुआ तो आइएसआइ यह पता नहीं कर पा रही थी कि भारतीय बख्तरबंद टुकड़ियां कहां-कहां हैं? तत्कालीन आइएसआइ प्रमुख ब्रिगेडियर रियाजत हुसैन को फील्ड मार्शल अय्यूब खां ने अपने कक्ष में बुलाकर लताड़ा। इस पर ब्रिगेडियर हुसैन ने जवाब में कहा कि आइएसआइ को जून 1964 से राजनीतिक अभियानों में लगाया गया था। घरेलू मामलों की जासूसी से फुर्सत मिलती, तभी तो सरहद पर जासूसी करते। इस जवाब को सुनकर अय्यूब खां चुप हो गए थे। वाकई आइएसआइ की ताकत का शुरू से दुरुपयोग ही किया गया। आरंभ में आइएसआइ को बदलते आकाओं को खुश करने का काम दिया गया। उल्लेखनीय है कि 1947 से 1958 के बीच पाकिस्तान में सात प्रधानमंत्री बदले। शुरूआती दौर में प्रत्येक गुप्तचर एजेंसी का एक ही काम था, सियासी जोड़-तोड़ व नेताओं पर निगाह रखना।
सन् 1948 में आइएसआइ के गठन के प्रस्ताव को मंजूरी मिलने के पहले पाकिस्तानी जासूसों के पास कोई काम ही नहीं था। वे ओछे दर्जे के कामों में लगे रहते थे। मसलन आज़ादी के बाद जब पाकिस्तान के राष्ट्रपिता मुहम्मद अली जिन्ना और प्रधानमंत्री लियाकत अली अफगानिस्तान के सीमावर्ती पठान इलाकों का दौरा करने गए तो तत्कालीन गुप्तचर ब्यूरो के कर्मचारी वहां जिंदाबाद के नारे लगवाने के लिए लोगों को फुसलाने के काम में व्यस्त थे। परंतु इस इलाके में पाकिस्तान समर्थन की हवा का दावा करने वाले पाकिस्तानी नेताओं को सितंबर 1950 में पाकिस्तानी सीमा में पठानों के हमलों की आशंका तक नहीं थी। फिर 1955 में उत्तर पश्चिम सीमांत को पाकिस्तान में मिलाने के सवाल पर जब काबुल व जलालाबाद में पठानों ने पाकिस्तानी दूतावास पर हमला करके उसके ध्वज के चिथड़े-चिथड़े कर दिए, तब इस दुखद हादसे की प्रथम सूचना आइएसआइ से पहले बीबीसी को मिल चुकी थी।
पाकिस्तान के प्रथम प्रधानमंत्री लियाकत अली के मुकाबले उनके उत्तराधिकारी मुहम्मद अली बोगरा ने आइएसआइ के उत्थान और विकास में दिलचस्पी ली। राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्जा ने 1957 में पहली बार आइएसआइ के अफसरों को विदेशी प्रशिक्षण दिलाने की पहल की। मगर 1958 में ही पता चल गया कि आइएसआइ अपने काम में वांछित दिलचस्पी नहीं दिखा रही। जब आल जम्मू एंड कश्मीर मुस्लिम कांफ्रेंस के कार्यकर्ताओं ने सीमा पार करके भारत में प्रदर्शन-रैली करने की कोशिश की, तब कराची में बैठे आइएसआइ जासूस भौंचक्के रह गए थे। सीमा पर तैनात जाइंट इंटैलीजेंस ब्यूरो के अफसरों का अगर समय पर वायरलैस संदेश नहीं आता तो भारत-पाकिस्तान के बीच 1949 में संयुक्त राष्ट्र संघ के हस्तक्षेप से हुआ युद्ध विराम खत्म हो जाता। जेआईबी की सक्रियता के कारण सरकार ने कांफ्रेंस के कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करने में सफलता पाई। हालांकि कांफ्रेंस के अनेक कार्यकर्ता भारतीय सीमा में घुस चुके थे।
आइएसआइ किस तरह काम करती थी और शुरू में उसकी क्षमताएं कितनी सीमित थीं, इसका दृष्टांत प्रधानमंत्री मलिक फिरोज खान नून को हटाये जाने की घटना है। सात अक्टूबर 1958 को सुबह ही उन्होंने आइएसआइ मुख्यालय से आये ब्रिगेडियर मुहम्मद हुसैन से बातचीत की थी। फिर उन्होंने दो नए मंत्रियों को मंत्रिमंडल में शामिल किया। आइएसआइ के अधिकारियों ने प्रधानमंत्री को यह नहीं बताया कि दो घंटे बाद उन्हें बर्खास्त करके राष्ट्रपति मार्शल-ला लागू करने वाले हैं। कुछ लोग यह मानते हैं कि आइएसआइ जानबूझकर इस मामले से अलग रही। वस्तुत: गवर्नर जनरल गुलाम मुहम्मद ने अक्टूबर 1954 से जुलाई 1955 के बीच लगभग तानाशाह के रूप में शासन किया था। उसी दौरान आइएसआइ समेत सभी गुप्तचर एजेंसियों की आदत खुफिया रिपोर्टों को गवर्नर जनरल को सीधे सौंपने की पड़ गयी। जब प्रधानमंत्री मुहम्मद अली बोगरा को बर्खास्त किया गया, तब सेनाध्यक्ष जनरल अय्यूब खां ने आइएसआइ की ताकत का इस्तेमाल करना शुरू किया। तभी से आइएसआइ का महत्व बढ़ने लगा था और यह प्रधानमंत्री तक को विश्वास में बिना लिए काम करने लगी थी।
पहली बार जुल्फिकार अली भुट्टो के प्रधानमंत्रित्व काल में आइएसआइ को बाध्य किया गया कि अपनी रिपोर्टें सीधे प्रधानमंत्री को ही सौंपे। आइएसआइ ने सेना की मदद से 1957-58 में पहली बार एक बड़ा अभियान-ऑपरेशन क्लोज-डोर चलाया था। इस अभियान के जरिए पाकिस्तान अपनी सरहद से भारत को होने वाली तस्करी रोकने में बहुत कामयाब हुआ था। इस अभियान के दौरान पूर्वी पाकिस्तान में व्यापक धर-पकड़ और तस्करी का सामान जब्त किया जा सका।
आइएसआइ का प्रभाव पाकिस्तान के रक्षा-सचिव रहे मेजर जनरल इस्कंदर मिर्जा के गवर्नर जनरल के रूप में 1955-56 तथा राष्ट्रपति के रूप में 1956-58 के कार्यकाल में भी काफी बढ़ा। इसका एक जोरदार दृष्टांत ऑपरेशन क्लोज-डोर के दौरान हुई एक घटना से मिलता है। इस दौरान, 1957 में, पूर्वी पाकिस्तान के अनेक राजनेताओं में ऑपरेशन क्लोज-डोर को दमन की कार्यवाही बताते हुए, सेना पर गंभीर आरोप लगाये। तत्कालीन प्रधानमंत्री मलिक फिरोज खां नून ने दबाव में आकर यह मान लिया कि राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्जा से बात करके ऑपरेशन क्लोज-डोर को बंद करवा दिया जाये अथवा सेना के अधिकारों में कटौती कर दी जाये। मगर आइएसआइ प्रधानमंत्री से पहले ही राष्ट्रपति को सब कुछ बता चुकी थी। नतीजा यह निकला कि राष्ट्रपति ने उल्टे प्रधानमंत्री को ही फटकार दिया कि सेना के काम में दखलंदाजी न करें। इससे पहले ही बताया जा चुका है कि जनरल अय्यूब खां ने शुरू से ही आइएसआइ में काफी दिलचस्पी ली थी। उनको इतना सूचना-संपन्न माना जाता था कि तत्कालीन गवर्नर जनरल गुलाम मुहम्मद ने 1954 में पाकिस्तान की सत्ता संभालने तक की पेशकश की थी। मगर तब अय्यूब खां माने नहीं। वक्त बीतने के साथ ही सत्ता में उनकी दिलचस्पी बढ़ती गयी।
सन् 1957 में अय्यूब खां ने पाकिस्तान के सीमांत प्रांतों में तैनात सैनिक अधिकारियों और जवानों से मौके पर जाकर मुलाकातें कीं। इसी दौरान उन्होंने विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं से भी मुलाकातें कीं और एक साक्षात्कार में यहां तक कहा कि अगर लोग मुझसे मुल्क संभालने को कहेंगे, तो मैं अपने फर्ज से पीछे नहीं हटूंगा। कुछ वक्त बाद पत्रकारों के एक सवाल के जवाब में, जनरल अय्यूब ने कहा था कि उन्हें सूचनाएं मिल चुकी हैं कि लोग बेईमानी और मतलबपरस्ती की सियासत में लगे नेताओं से तंग आ चुके हैं। पत्रकारों ने जब पूछा कि इस हालत में अगर पड़ौसी मुल्क पाकिस्तान पर हमला कर दे तो? इस पर जनरल अय्यूब खां गरम हो गए। उन्होंने जोर से कहा, 'आप लोग मुल्क की हिफाजत के लिए फौजों पर भरोसा कर सकते हैं। वैसे भी खतरा बाहर से नहीं है, भीतर से ही है।' अंदाजा लगाया जा सकता है कि जनरल अय्यूब खां किस आधार पर बोल रहे थे।
उनके आत्मविश्वास और खुफिया जानकारियों का राज क्या था? कुछ ही वक्त बाद सात अक्टूबर 1958 की रात्रि में राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्जा ने केंद्रीय और प्रांतीय सरकारों को बर्खास्त करके पूरे देश में मार्शल-ला लागू कर दिया। तत्काल प्रभाव से जनरल अय्यूब खां को सेनाओं का सर्वोच्च कमांडर बनाते हुए सारे अधिकार सौंप दिए। बीस दिन बाद राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्जा से जनरल अय्यूब खां के भेजे तीन जनरलों ने इस्तीफा मांग लिया। अगले दिन पदच्युत राष्ट्रपति को विशेष विमान से क्वेटा भेज दिया गया। जहां से कुछ समय बाद इस्कंदर मिर्जा 'स्वेच्छा' से लंदन चले गये। आइएसआइ के संस्थापक जनरल काथार्न उस वक्त पाकिस्तान में आस्ट्रेलिया के राजदूत पद पर तैनाती पा चुके थे। अक्टूबर 1958 में राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्जा के 'निष्कासन' के समय जनरल काथार्न कराची हवाई अड्डे पर मौजूद कुछ आइएसआइ व फौजी अफसरों के साथ खड़े थे। इस प्रकार अंतत: जनरल अय्यूब खां सेना के बूते पर सत्ता पर काबिज हो गए।
जनरल अय्यूब खां ने हमेशा ही गुप्तचर सेवाओं पर अच्छा खासा भरोसा किया। पाकिस्तान का सर्वेसर्वा बनने के शुरूआती कुछ हफ्तों में यह आलम था कि गुप्तचर ब्यूरो लोगों के मकानों की जमकर तलाशियां करवा रहा था तमाम प्रमुख राजनेताओं को इसी दौरान गिरफ्तार भी किया गया। जिनसे जरा भी विरोध की संभावना होती, पुलिस उन्हें पकड़ लेती और फिर गुप्तचर ब्यूरो के अफसर आइएसआइ के निर्देशानुसार पूछताछ करते। इसी परिश्रम का नतीजा निकला कि 14 अगस्त 1959 से पहले ही एक साजिश का पता लगाने में आइएसआइ कामयाब रही। आठ लोगों को गिरफ्तार भी किया गया। सैनिक अदालत में चले मुकदमे में जासूसों ने जो विवरण दिया, उसके अनुसार ये आठों लोग, स्वतंत्रता की बारहवीं वर्षगांठ के समारोह में फौजी हुकूमत के खिलाफ पोस्टर तथा पैम्फलेट बांटने वाले थे। इन पोस्टर-पैम्फलेट्स में यह दावा किया गया था कि तानाशाही और फौज के अत्याचारों से दु:खी मादरे-मिल्लत कुमारी फातिमा जिन्ना मुल्क छोड़कर जा रही हैं। साथ ही यह आहवान भी किया गया था कि फौजी शासन को उखाड़ने तथा राष्ट्रपिता जिन्ना साहब के सपनों का पाकिस्तान बनाने को हर आदमी अपनी जिम्मेदारी निभाए।
बाद में गुप्तचर ब्यूरो की रिपोर्ट पर दो व्यक्तियों को और पकड़ा गया। फौजी अदालत ने एक वरिष्ठ रिटायर्ड अधिकारी को साजिश का मुखिया तथा सात अन्य को सहयोगी बताते हुए दस वर्ष के कठोर कारागार की सजा सुनाई। बाकी दो लोगों को सात साल की सजा सुनाई गई। फौजी अदालत के फैसले को बाद में जनरल अय्यूब खां ने अमल से पहले रोक दिया और सभी अभियुक्तों को आजाद कर दिया गया। कुछ ही समय बाद 14 फरवरी 1960 को जनरल अय्यूब ने जनमत सर्वे कराया कि फौजी हुकूमत रहे या नहीं, लोगों को इस मामले में 'हां' और 'नहीं' छपे वोटों के जरिए अपनी राय प्रकट करनी थी। कुल 78720 वोट पड़े, जिनमें से 75282 वोट फौजी हुकूमत के पक्ष में पड़े। फलस्वरूप जनरल अय्यूब पाकिस्तान के पहले 'निर्वाचित' राष्ट्रपति बन गये। उन्होंने तत्काल संविधान में संशोधन किया और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता व अखबारों पर प्रतिबंध लगाने के साथ ही राजनीतिक गतिविधियों को भी गैरकानूनी घोषित कर दिया। इस जल्दबाजी का कारण एक खुफिया रिपोर्ट थी, जिसमें सचेत किया गया था कि जनमत-संग्रह के नतीजे कुछ भी हों, लोगों, अखबार वालों तथा नेताओं पर भरोसा नहीं किया जा सकता। लोग फौजी हुकूमत से चिढ़ते हैं।
दो साल के भीतर जनरल अय्यूब खां ने पाकिस्तान में अनेक सुधार कार्यक्रम चलाए, तब वह बिना वर्दी के ही ज्यादातर नजर आते थे। प्रचार तंत्र उनकी एक नागरिक की छवि बनाने में लगा हुआ था। प्रांतीय सरकारें सीमित स्वायत्तता पा चुकी थीं। हालांकि तब भी राज्यपालों को राष्ट्रपति नियुक्त करते थे और ये राज्यपाल राष्ट्रपति की इजाजत के बिना कोई फैसला नहीं ले सकते थे। प्रांतीय मंत्रिमंडल सीधे राज्यपाल को जवाबदेह था। विधान सभाओं के 155 सदस्यों का अप्रत्यक्ष रूप में चुनाव होता था। मगर विधान सभा मंत्रियों से किसी भी सरकारी फैसले पर बहस नहीं कर सकती थी। सबसे मजेदार बात यह थी कि प्रत्येक राज्यपाल, मंत्री तथा विधान सभा हेतु राष्ट्रपति को सीधे जवाबदेह जासूस नियुक्त थे। मुल्क के हालातों की इन जासूसों से जानकारी मिलने पर राष्ट्रपति कभी भी नागरिक अधिकारों को समाप्त करते हुए आपातकाल घोषित कर सकते थे। संविधान में इस बाबत संशोधन किया जा चुका था और राष्ट्रपति से कोई भी अदालत यह नहीं पूछती थी कि आपातकाल घोषित करने का आधार क्या है?
आइएसआइ का इस बीच रुतबा इतना बढ़ा कि जनता, नेताओं तथा फौज के अन्य साथी उच्चाधिकारियों को संदेह की निगाह से देखने वाले जनरल अय्यूब खां ने सेनाध्यक्ष के रूप में पदोन्नति के लिए तक आइएसआइ से राय मांगी। खुफिया रिपोर्टों पर भरोसा करके उन्होंने पाकिस्तान के सबसे कम उम्र के ब्रिगेडियर याहिया खां को 29 मार्च 1966 को लेफ्टीनेंट जनरल बनाते हुए उप-सेनाध्यक्ष नियुक्त कर दिया। कुछ समय बाद 12 सितंबर को लेफ्टीनेंट जनरल से याहिया खां को जनरल बना दिया गया और सेनाध्यक्ष के रूप में स्वतंत्र कार्यभार सौंप दिया गया। आइएसआइ का कुछ काम जनरल याहिया खां भी देखने लगे। मगर नियंत्रण फील्ड मार्शल अय्यूब खां का ही रहा। इस दौरान ब्रिगेडियर रियाजत हुसैन, अय्यूब खां के साथ-साथ जनरल याहिया के भी विश्वस्त रहे। यद्यपि वह कभी भी जनरल याहिया खां से बिना बुलाए नहीं मिलते थे। इस अवधि में ब्रिगेडियर रियाजत हुसैन के साथ ही उनके जूनियर कर्नल गुलाब जीलानी तेजी से सत्ता के नजदीक आते जा रहे थे। बाद में यही गुलाम जीलानी लगातार पदोन्नतियां पाते गये और 1969 में अय्यूब खां को सत्ता से हटाए जाने के बाद आइएसआइ के प्रमुख बनाए गए। मगर जीलानी की सत्ता संघर्ष में अथवा जनरल याहिया खां को महत्वपूर्ण बनाने में क्या भूमिका थी-इसका पता नहीं चलता। फिर भी उनमें कुछ विशेषताएं तो होंगी ही, क्योंकि जीलानी 15 साल तक लगातार आइएसआइ के महानिदेशक बने रहे। पर कहा जाता हैकि उनके समान व्यक्तिगत प्रभाव का आइएसआइ मुखिया आज तक नहीं हुआ।
जीलानी की कोई भी भूमिका हो, मगर 18 सितंबर 1966 को सेनाध्यक्ष की कुर्सी संभालने के बाद से पठान याहिया खां मजबूत होते चले गये और फील्ड मार्शल अय्यूब खां की कमियां जनता में एक के बाद एक उजागर होती गयी। स्थिति इतनी बिगड़ गयी कि तीन वर्ष के भीतर ही अनेक बार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कश्मीर-समस्या उलझाने का इल्जाम पाकिस्तान पर लगा। कई बार पाकिस्तान की सीमा से भारत में घुसने की कोशिश करने वाले घुसपैठिए पकड़े गए। बहुत से मौकों पर जम्मू-कश्मीर में आतंक व गड़बड़ी फैलाने की साजिशों का भारत को पता चल गया। इससे भी अय्यूब खां की स्थिति हास्यास्पद हो गयी। फिर नवंबर 1968 से अनेक फौजी उच्चाधिकारी अचानक ही खुलकर याहिया खां के विरोध व मुकाबले पर उतर आए। सेवानिवृत्त एयरमार्शल असगर खां इनमें प्रथम थे। दूसरे उल्लेखनीय उच्चाधिकारी थे लेफ्टीनेंट जनरल आजम खां। राष्ट्रव्यापी छात्र-आंदोलन शुरू हो गये। अय्यूब खां के परिवार के सदस्यों पर व्यापक भ्रष्टाचार में लिप्त होने के आरोप लगने लगे। पूरे पाकिस्तान में यह अफवाह फैल गयी कि अय्यूब खां अपने बेटे गौहर अय्यूब को अपने उत्तराधिकारी के रूप में तैयार कर रहे हैं। पाकिस्तान में नये-नये राजनीतिक गठजोड़ तथा नेता उभरने लगे। नतीजतन राष्ट्रपति अय्यूब खां अपने भरोसेमंद सेनाध्यक्ष पर ज्यादा से ज्यादा निर्भर होते गये। इसी अवधि में 1 नवंबर 1968 को जब राष्ट्रपति अय्यूब खां पर पेशावर में गोलियां चलाई गईं, तो उनका आत्मविश्वास तहस-नहस हो गया।
यद्यपि हमला नाकाम रहा था। यह वह मौका था, जब 1969-70 के बीच आम चुनावों की पूरी तैयारी थी। राष्ट्रपति अय्यूब खां जो भी नयी कोशिश करते, उसका प्रतिकूल ही असर होता था। उन्होंने परिवार नियोजन को फैलाने की कोशिश की तो लोगों ने अय्यूब खां को इस्लाम-विरोधी बता दिया। जब उन्होंने पाकिस्तान को आधुनिक दौर में ले जाने के लिए अपनी दलीलें दीं, तो कट्टरपंथी भी उनके खिलाफ हो गए। इस सबके बावजूद अगले कुछ महीनों में जो कुछ हुआ, उसकी किसी नेकल्पना तक नहीं की थी। कोई अनुमान तक नहीं लगा पा रहा था कि राष्ट्रपति अय्यूब खां का क्या होगा? अय्यूब खां के बाद कौन? इस सवाल पर लोग सोचने लगे। उस वक्त यह स्थिति थी कि छात्र, पत्रकार, मजदूर, सरकारी कर्मचारी, वकील और शिक्षक सभी फौजी समर्थन से सत्ता में टिके अय्यूब खां के खिलाफ हो चुके थे। जुल्फिकार अली भुट्टो की लोकप्रियता तेजी से बढ़ रही थी।
अनुमान लगाया जा सकता है कि सत्ता पर कब्जे के किसी षड्यंत्र में किस-किस का हाथ रहा होगा? जब 25 मार्च 1969 को रेडियो पाकिस्तान पर राष्ट्रपति अय्यूब खां ने राष्ट्र के नाम संबोधन में घोषणा की कि वह इस्तीफा दे रहे हैं और अपने स्थान पर जनरल याहिया खां को तैनात कर रहे हैं तो लोग सन्न रह गये। किसी को उम्मीद नहीं थी कि सत्ता फिर से एक फौजी के बाद दूसरे फौजी के हाथों में चली जायेगी। क्या इसे इत्तेफाक माना जाए कि जनरल याहिया खां ने 31 मार्च 1969 को खुद को राष्ट्रपति घोषित करने के बाद अपने विश्वासपात्र आइएसआइ महानिदेशक गुलाम जीलानी को लेफ्टीनेंट जनरल बना दिया। आइएसआइ को याहिया खां इतना महत्व देते थे कि अगस्त 1969 में उन्होंने मेजर जनरल अकबर को इसके कार्यकलापों में मदद तथा सलाह देने का काम सौंपा। मगर गुलाम-जीलानी के विरोध करने पर यह फैसला रद कर दिया गया। अंदाजा लगाइए कि पाकिस्तान में आइएसआइ कितनी ताकतवर हो चुकी है और राजनीतिक नेतृत्व उसका कितना गुलाम होता जा रहा है।