रमेशचंद्र शाह
Tuesday 05 February 2013 07:06:04 AM
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, मनुष्य एक आर्थिक और राजनीतिक प्राणी भी है, लेकिन इसके साथ ही साथ इससे बहुत पहले से वह एक देवपूजक प्राणी भी है। हमारी मनुष्यता का ही अनिवार्य अंग है-हमारी धर्म भावना या धार्मिक संवेदना और उसी मनुष्यता का उतना ही अभिन्न और अनिर्वाय अंग का आयाम है-हमारी सौंदर्य चेतना या कलात्मक संवेदना। दोनों का मेल और गठबंधन प्रगट होता है, हमारे इन देवी-देवताओं में, जो हमारी मानवी प्रकृति मांग की ही पूर्ति करने को अवतरित होते हैं हमारी चेतना में और फिर मूर्त रूप लेते हैं, हमारी ही ज्ञानेंद्रियों-कर्मेंद्रियों यानी, हमारी ही आंखों और हाथों-के जरिए इसी मिट्टी, पाषाण और धातु की खनिज संपदा में जो हमारी ही तरह और हमसे भी पहले प्रकृति के गर्भ से उपजे। यह अनूठा स्थापत्य, ये स्तंभ और उन पर उकेरी गईं ये असंख्य मूर्ति-शिल्पकृतियां चेतना का चेतना से निरंतर संवाद नहीं तो और क्या है? एक प्रगट और जागी हुई चेतना का एक अप्रकट और सोई चेतना को ही जगाने का उपक्रम।
यह बात इस तरह, इतने साफ तौर पर यहीं इसी जगह क्यों मेरे सिर पर चढ़के बोल रही है, इसी रामप्पा मंदिर के सामने, जिसका नाम तक नहीं सुना था मैने, यहां आने से पहले। संजोग-एक निरा संजोग-ही न कहेंगे इसे, कि मेरे पथ दर्शक और सहयात्री श्रीपति को अचानक सूझा कि क्यों न इन्हें लगे हाथ वह मंदिर भी दिखला दें-वरंगल के अपेक्षाकृत सुविख्यात सहस्त्र स्तंभ देवालय के साथ-साथ, जो है तो काफी दूर और अलग-थलग, लेकिन इस माने में इकलौता और विलक्षण कि इसका नाम इसे बनाने वाले प्रमुख शिल्पी के नाम पर पड़ा है न कि देवालय में प्रतिष्ठित देवाधिदेव शिव पर। श्रीपति ठीक सवा छह बजे सुबह टैक्सी लेकर हमारे विजिटिंग स्कालर्स लेक-व्यू गेस्ट हाउस पहुंच गया था। साढ़े सात बजे सिकंदराबाद से गुंटूर-सिकंदराबाद इंटरसिटी एक्सप्रेस पकड़कर तीन घंटे बाद काजीपेट पहुंचे। मै समझा था कि वरंगल पहले जाएंगे, तब वहां से रामप्पा मंदिर। सरप्राइज डिस्कवरी थी, हमारे लिए यह सत्तर किलोमीटर की सरप्राइज यात्रा, इसलिए कि श्रीपति ने सुदूर बचपन में कभी देखे इस मंदिर के रोमांच को हमारे लिए ही नहीं, स्वयं अपने लिए भी गोपनीय और सुरक्षित बनाकर सहेज रखा था। रास्ता मनोरम और समूचा लैंडस्केप ही इस कदर पल-पल परिवर्तित प्रकृति वेश से संपंन था कि सत्तर किलोमीटर का भरी-दोपहरी का सफर भी हममें क्लांति नहीं उपजा पाया।
इस तथ्य के बावजूद कि खाने-पीने को कहीं कुछ उपलब्ध नहीं हुआ और पाथेय जैसा भी हम कुछ साथ नहीं रखे थे, यह मानकर चलने के कारण कि रामप्पा मंदिर की बारी तो बाद में आएगी, पहले तो वरंगल को ही निबटाना है और वरंगल में भला किस चीज की कमी है, खा-पीकर ही अगला अभियान आरंभ करेंगे। कमाल की बात यह है कि भूख और प्यास दोनों ही अपनी नैसर्गिक उत्कृष्टता के साथ अपनी-अपनी ठौर स्थगित रहे। यों क्या-क्या नहीं देखा है, इन आंखो ने, देस-बिदेस, सर्वत्र-एलोरा, एलीफेंटा खजुराहो, कोणार्क, बदामी केव्ज, सांची-विदिशा, भोजपुर-भीमबेटका, महाबलीपुरम और परदेस में भी, एक से एक कासल और स्मारक, तब फिर इस सुदूर कोने में अलक्षित चुपचाप पड़े इस अनाम-अकिंचन से मंदिर ने हमें क्यों बुलाया? कैसे और क्यों हम एक-दूसरे खंभे और उस पर उकेरी हुई एक-एक मूर्ति, एक-एक शिल्प को निहारने में इस कदर तल्लीन हैं कि भूख-प्यास भी भुला बैठे हैं? सौंदर्य-कृष्णमूर्ति का कहना है-सौंदर्य वह है, जो हमें कुछ क्षणों के लिए ही सही, एकदम आत्मविस्मृत यानी तन्मय कर देता है। सौंदर्य की वह परिभाषा भी भला क्यों अभी इसी घड़ी याद आ रही है?
इस मंदिर के स्तंभों पर तोरण-द्वार पर जो दृश्य उकेरे गए हैं, वे कुछ तो स्पष्ट ही रामायण के हैं, जो बहुत पहले पढ़े हुए शिव पुराण और अन्य पुराणों के प्रसंगों से जुड़े जान पड़ते हैं और, क्या बात कि यहां मदनिकाओं और नागिनियों की बड़ी महिमा है? जितनी की किन्हीं और जगहों में नहीं दिखाई दी। गर्भगृह के द्वार पर ही देख लें-कितनी सारी मदनिकाएं और नागिनियां उत्कीर्ण हैं-एक से एक मोहक मुद्राओं में। ये काकतीय राजा तो शैवधर्मानुयायी ही थे न। मंदिर भी यह शिव मंदिर ही न है? बाहर वह क्या मिला था? नंदी-मंडप ही न? एक खंभे को श्रीपति अपनी उल्टी उंगली से बजा रहा है। लो! इसमें तो सातों सुर मौजूद हैं। यह कैसा जादू है? जादू नहीं भैया, गणित है यह, शुद्ध गणित। साउंड अर्थात नाद भी तो ऊष्मा और प्रकाश की तरह वैज्ञानिक अनुसंधान का ही विषय न है? पढ़ा तो सब स्कूल-कॉलेज के दिनों में। सिद्धांत भी और प्रयोग करके भी देखा था कि नहीं? ट्यूनिंग फॉक वगैरह-वगैरह। ऊर्जा का ही तो खेल है यह सब, चाहे ध्वनि हो, चाहे लय, चाहे प्रकाश और यह चराचर जीवन-लीला भी क्यों नहीं? स्थूल से लेकर सूक्ष्मातिसूक्ष्म तक, सब कुछ ऊर्जा-तरंगो या कणों के ही असंख्य प्रकार के स्पंदनों का ही तो खेल नहीं है क्या?
यह लीजिए इस स्तंभ पर यह क्या खुदा हुआ है? प्राचीन तेलुगू लिपी है यह। नंदी मंडप के दोनों ओर ये जो मंदिर हैं-कामेश्वर मंदिर और काटेश्वर मंदिर, इन्हीं के पास। इतिहास हम भारतीयों के लिए ज्यादा अहमियत नही रखता। अपनी इस कमी का बहुत महंगा मोल भी चुकाया ही होगा हमने। जिसका इतिहास तगड़ा नहीं, उसकी राजनीति भी कैसे तगड़ी होगी भला। भला हो इन अभिलेखों का और भला हो उन गड़े मुर्दे उखाड़ने की कलर में निष्णात लोगों का, जिन्होंने खुद हमारा इतिहास हमको निकाल के थमाया और सिखाया। बहरहाल, इस अभिलेख के अनुसार यह मंदिर 1213 में निर्मित हुआ था यानी आज से कोई आठ सौ वर्ष पूर्व। इतना तो हमारे जैसे अल्पज्ञ भी महसूस कर सके कि बड़े कलाप्रेमी थे ये काकतीय राजवंश के लोग। इनके शिल्प की कुछ खास अपनी पहचान है। गायन और नृत्य की मनोहारी भंगिमाओं का प्राचुर्य यह भी साफ जताता है कि संगीत और नृत्य में भी निष्णात रहे होंगे ये लोग। काकतीय नरेश गणपति के सेनापति रेशरला रुद्र का ही वंशज था वह, जिसके कारण कटेश्वर नाम पड़ा इस पार्श्वपर्ती मंदिर का। श्रीपति फोटो खींचने में मशगूल है। महारत हासिल है उसे फोटोग्राफी में। क्यों न हो? पूना फिल्म इंस्टीट्यूट का स्नातक है वह और यहीं हैदराबाद की तेलुगु यूनिवर्सिटी में फिल्म-विद्या का व्याख्याता भी। फिर, इस मंदिर से तो उसका लगाव कुछ विशेष ही है। बचपन की प्रीत बहुत गाढ़ी होती है। उसी के कारण तो हम साक्षात् दर्शन कर रहे हैं, इस सौंदर्य का।
रास्ते के दोनों तरफ सप्तपर्णी के वृक्षों की बहार है। ऊंचा नहीं है मंदिर, पर ज्यों-ज्यों निकट आते जाते हैं, उसकी भव्यता भी निखरती जाती है। दक्षिण के मंदिरों में सभी जगह गोपुर दीखते हैं, पर काकतीयों की निर्मितियों में ऊंचे शिखर नहीं दिखते। ध्यान से देखने पर छोटा-सा गोपुर भी दिखेगा, मगर हल्की ईंटों से निर्मित, ताकि छत पर ज्यादा भार न पड़े। सारी कला गर्भ गृह और सभा मंडप के स्तंभों पर निछावर है। बड़े-बड़े शिवलिंग और गर्भगृह के ऊपर छत पर बना चक्र, यह काकतीय शिल्प की पहचान है, विशेषता है। गर्भगृह के द्वारा से सटे शिल्प विशेष कलापूर्ण लगते हैं। एक पहचान और भी, यह कि काकतीय द्वारों के ऊपर गजलक्ष्मी या गणपति की मूर्ति लगती है और द्वारों के ऊपर मकर-तोरण। मकर के मुख से निकलती लताएं मुख्य देवमूर्ति से जा मिलती हैं। मकरतोरण नाम इसीलिए।
मंदिर का प्रदक्षिणा-पथ भी बहुत मनोरम है। हाथी, सिंह और हंस वगैरह उत्कीर्ण हैं, यहां और पद्म वगैरह भी। कहते हैं, काकतीय शिल्प में बौद्ध-पद्धति और होयसल पद्धति-एक निरलंकृत और दूसरी अलंकृत। दोनों के बीच का मार्ग निकाला गया है। अलंकार अधिक नहीं, किंतु निश्चल ध्यान-मुद्रा की जगह जीवांत हाव-भावों पर जोर देने वाली एकमात्र पुस्तिका, जो हिंदी में दिखाई पड़ी, उसमें का एक अंश उद्धत करने लायक लग रहा है। अटपटी भाषा के बावजूद कहीं गहरे में मन को पकड़ लेने वाली बात कि काकतीय शिल्प में चैतन्य दिखाने की प्रथा है। चाहे देवमूर्तियां हों, चाहे न्याय नारीमूर्तियां, सभी में यही चैतन्य दिखाई पड़ता है, इसलिए मूर्तियों में जीव-चैतन्य प्रकट होता है, ये वाक्य मुझे चौंका देते हैं, इसलिए पाठक को भी चौकाएंगे ही, ऐसी मुझे उम्मीद है। चौंकाने का मतलब यहां सिर्फ चौंकाना भर नहीं, कुछ सोचने को भी प्रेरित करने वाला है, ऐसा मुझे क्यो लग रहा है?
दो घंटे कब बीत गए, कुछ पता नहीं चला। एकाएक घड़ी पर निगाह गईं, ज्योत्स्ना की, तो हड़बड़ाकर उसने हम दोनों को सचेत किया, चलो भई, कितनी देर हो गई, वरंगल देखना है कि नहीं? सात बजे की गाड़ी पकड़नी है कि नहीं? फटाफट हम लोग रामप्पा मंदिर को अलविदा कहके टैक्सी पर सवार हुए और रामप्पा सरोवर की शोभा निहारते हुए घंटे भर में ही वरंगल पहुंच गए। उडुपी होटल का बचा-खुचा बेस्वाद और ठंडा भोजन निगलकर सीधे अपने असली गतंव्य सहस्त्रस्तंभ देवालय वेय्यीस्तंभागुड़ी जा पहुंचे। हन्मकोंडा कहलाता था यह नगर इतिहास में। सहस्त्रस्तंभा का अर्थ देखते ही समझ में आ गया। यहां कहीं दिवारें नहीं, स्तंभ ही दीवारों का काम करते हैं। चार स्तंभों पर एक शिलाफलक और इसी तरह विस्तार होता है मंदिर का। प्रकाश और वायु का निर्बाध प्रवेश सुनिश्चित किया गया इस तरह। स्तंभों के मध्य बहुत ही बारीक शून्य, इतना बारीक कि एक एकाएक दिखे भी नहीं किसी को। खास बात यह कि सारे स्तंभों पर नृत्य-मुद्राओं का विस्मयकारी वैविध्य। नृत्य विशेषज्ञों नृत्य-रसिकों के लिए ऐसा प्रत्यक्षपाठ नृत्य का क्या और भी कहीं सुलभ होगा? ऐसा लगता नहीं। देवालय के बीचों-बीच रंग मंडप। सारे स्तंभ कुछ इस तरह विनिर्मित और विन्यस्त कि रंगमंडप केंद्र में प्रतिष्ठित हों, गर्भगृह का निर्माण-कौशल अवर्णनीय। समझ में आया कि इस मंदिर की प्रसिदिध् यों ही नहीं। आज भी जब इतना जीवंत है तो उस समय क्या नहीं रहा होगा?
इतिहास हम भारतीयों के लिए ज्यादा अहमियत नहीं रखता। अपनी इस कमी का बहुत महंगा मोल भी चुकाया ही होगा हमने। जिसका इतिहास तगड़ा नहीं, उसकी राजनीति भी कैसे तगड़ी होगी भला, भला हो इन अभिलेखों का और भला हो उन गड़े मुर्दे उखाड़ने की कला में निष्णात लोगों का, जिन्होंने खुद हमारा इतिहास हमको निकाल के थमाया और सिखाया। काकतीय वंश-वृक्ष प्रथम प्रालराजु 1025-1085 से प्रारंभ होता है, और प्रताप रुद्र 1290-1326 तक फलता फूलता है। काकतीय वंश से पूर्व चालुक्यों का राजा था। काकतीयों में सबसे प्रतापी गणपतिदेव हुए और उनके बाद रुद्रमदेवी या रुद्रांबा नाम की उनकी पुत्री, जिनका उल्लेख-सुना, मार्कोपोलो ने भी किया है। वरंगल का पुराना ऐतिहासिक नाम ओरुगल्लु था। ओंटिमिट्टा और एकशिला भी। क्या युद्ध कौशल, क्या वाणिज्य व्यापार और क्या कला-कौशल, सभी क्षेत्रों में इन काकतीयों के अदुभत पुरुषार्थ के स्मारक आज भी देखे जा सकते हैं। मन में कौंधा अचानक ही-कहीं हम भी अपने पुरुखों के पुरुषार्थ ध्वंसावेष ही तो नहीं?
मंदिर तो अदुभुत है, रामप्पा मंदिर से भी भव्यतर और अतुलनीय स्थापत्य कला का नमूना, लेकिन रख-रखाव इसकी प्रतिष्ठा के अनुरुप कतई नहीं। मन विषाद से भर गया इस दुर्दशा के साक्षात से। सामने ही जो मंडप था-अतुलनीय कलात्मक सौंदर्य का अधिष्ठान, वह जाने कब से टूटा पड़ा है। काल-प्रभाव से नहीं, बल्कि इसकी टूट-फूट की मरम्मत करवाना चाहने वालों की नादानी के फलस्वरूप। लगता नहीं, कभी वह अपनी पूर्व अवस्था को प्राप्त कर पाएगा। अपूरणीय क्षति है यह-अक्षरशः। यह मंदिर काकतीय नरेश रूद्रदेव प्रथम ने बनवाया था। वर्ष 1163में। जिस वेदिका पर मंदिर खड़ा है, वह एक मीटर ऊंची होगी। परिधि 31 गुणा 25 मीटर। केंद्रिय सभाकक्ष के चारों ओर मंदिर बने हैं। तीन मंदिर विष्णु, शिव और सूर्य के। वेय्यी स्तंभागुडी, की छवि मन में संजोकर हम भद्रकाली मंदिर गए। इसका निर्माण रूद्रांबा ने करवाया था। मंदिर के समूचे परिसर की सुव्यवस्था देखकर चित्त प्रसन्न हो गया। पृष्ठभूमि में भीषण सुंदर भीमाकार शिला है। शिला क्या, पर्वत ही समझो। अग्रभूमि में मीठे पानी का विशाल सरोवर, जो समूचे नगर की प्यास बुझाता है। रूदांबा यथा नाम तथा गुण की एक विलक्षण रानी थी। पुरोषोचित वीरता व प्रशासकीय क्षमता से संपंन, जिसकी महिमा प्रत्यक्ष अनुभव की जा सकती है यहां। वह गणपतिदेव के देहावसान के उपरांत 1290 सिंहासनारुढ़ हुई थी।
वहां से हम वरंगल का विख्यात दुर्ग देखने गए। समय कम बचा था। किला तो नामशेष ही है। मात्र एक विशाल सभागृह भर बचा है, किंतु ध्वंसावशेष एक ओपन एअर म्यूजियम में सुरक्षित है। उस विगत वैभव के प्रत्यक्ष वास्तुपाठ की तरह। बस किसी तरह भाग-दौड़कर परिक्रमा की उसकी। वरंगल और हन्मकोंडा को मिलाकर लगभग 19 वर्ग किलोमीटर में विस्तृत था यह दुर्ग अपनी नौ दुर्भेघ प्राचीरों समेत। काकतीयांध्र साम्राज्य की राजधानी का यह अपूर्व स्मारक देखे बिना यह यात्रा अधूरी रहती सचमुच। खैर गुजरी हमारी ट्रेन एक घंटा लेट थी, फिर भी रफतार ऐसी पकड़ी कि दस बजे सिकंदराबाद आ लगे। पैंतीस किलोमीटर का भीषण जनाकीर्ण पथ पार करके ग्यारह बजे लेक-व्यू गेस्ट हाउस आ पहुंचे। गरम पानी के स्नान ने सारी क्लांति हर ली और गहरी नींद सुला दिया। ऐसी गहरी और सर्वथा निस्वप नींद, जैसी हम सरीखे तथाकथित बुद्धिजीवियों को मुश्किल से ही कभी कभार नसीब हो पाती है और, हमारा नायक हय हय नायक, कहके जिसका स्वागत करने की आदत पड़ जाने वाली है मुझे उसी के द्वारा सुलभ कराई गई एक तेलुगू फिल्म माया बाजार देखने के बाद।
श्रीपति? उसे देखकर कौन कहेगा क्लांति या थकान जैसी चीजों से भी इस युवक का कोई लेना-देना हो सकता है। जय हो श्रीपति, जय हो हमारी नई पी़ढ़ी की उत्साह-उमंग और सूझ-बूझ भरी युवा ऊर्जा की। अब बारी है श्री शैलम् की। नहीं नागार्जुन कोंडा, नहीं ऋषि-घाटी की और, हंपी की भी क्यों नहीं? लेकिन क्या तुम्हारा साथ देने को सर्वत्र ऐसा सहयात्री सुलभ होगा? जनसत्ता से साभार।