सियाराम पांडेय 'शांत'
चीन भारत के लिए खतरे का सबब बना हुआ है। नेपाल, बांग्लादेश, पाकिस्तान और श्रीलंका को भारत के खिलाफ भड़काने और इस निमित्त उन्हें सुविधाओं का लालीपॉप दिखाने में उसका कोई सानी नहीं है। वह इन देशों को शस्त्रास्त्रों के क्षेत्र में तकनीकी मदद भी कर रहा है। सच तो यह तो वह भारत के खिलाफ चौतरफा चक्रव्यूह का निर्माण कर रहा है लेकिन इसके बाद भी भारतीय हुक्मरां उसके चरित्र को समझने की जहमत तक नहीं उठा पा रहे हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और थल सेनाध्यक्ष तक देश को आश्वस्त कर चुके हैं कि चीन से देश को कोई खतरा नहीं है। लद्दाख क्षेत्र में चीन की घुसपैठ को भी उन्होंने करीने से नकार दिया है और इसे मीडिया के दिमाग की उपज करार दे दिया है। इसे देश की सुरक्षा के प्रति गाफिल होना नहीं तो और क्या कहा जाएगा। अब जब चीन की ओर से जवाहर लाल नेहरू और रवीन्द्र नाथ टैगोर को आधुनिक चीन का निर्माता कहा जा रहा है तो कांग्रेस को देश के बड़े नुकसान को तो नजरअंदाज करना ही होगा। चीन से दोस्ती बढ़ाने के फेर में नेहरूजी भी चीन ने कब्जाई भूमि को एक तरह से भूल ही गए थे। आक्साईचिन के 36 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र कम नहीं होता लेकिन इसे चीन के कब्जे से छुड़ाने के प्रति कभी भी गंभीर प्रयास नहीं हुए। भारत सरकार का ढुलमुल रवैया देश को कहां ले जाएगा, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है। हमें नहीं लगता कि मौजूदा सरकार चीन को लेकर बहुत गंभीर है।
पाकिस्तान में परमाणु कार्यक्रम के जनक अब्दुल कदीर खान का अपनी पत्नी हेनी को भेजा गया गोपनीय पत्र चीन के भारत विरोधी आचरण की पोल खोलने के लिए काफी है। लंदन के संडे टाइम्स में छप चुके इस पत्र में कहा गया है कि चीन ने ही पाकिस्तान को परमाणु कार्यक्रम बनाने के फार्मूले दिए। दो परमाणु बम बनाने भर यूरेनियम दिया और परमाणु बम बनाने में प्रयुक्त होने वाली विशेष गैस भी उपलब्ध करवाई। अब्दुल कदीर पर आरोप है कि उन्होंने उत्तर कोरिया, लीबिया और ईरान को परमाणु तकनीकी बेची थी लेकिन कदीर की मानें तो यह सब तत्कालीन प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो और उनके सुरक्षा सलाहकार इम्तियाज खान के इशारे पर हुआ था। अगर परमाणु वैज्ञानिक कदीर की बातों में रंच मात्र भी सच्चाई है तो चीन का भारत विरोधी चेहरा सहज ही सामने आ जाता है। भारत ने जब पोखरण में पांच परमाणु परीक्षण किए थे तो पाकिस्तान ने छह। यह सब सुलभ हुआ था चीन के सहयोग से। चीन और पाकिस्तान की नजदीकी जगजाहिर रही है। चीन हमेशा ही पाकिस्तान की हथियारों की आपूर्ति करता रहा है। अब तो माफिया डॉन दाउद इब्राहिम ने भी चीन से संबंध बढ़ाने शुरू किए हैं। इससे अवैध असलहों,मादक द्रव्यों और जाली नोटों की खेप का नेपाल और चीन के रास्ते भारत पहुंचना बेहद सरल हो जाएगा और यह स्थिति भारत के लिए कितनी मुफीद होगी, इस बारे में सोचने-विचारने की संभवतः किसी के भी पास फुर्सत नहीं है। सउदी अरब के विमान में चीनी हथियारों का कोलकाता में पकड़ा जाना और फिर चीन का आंखें तरेरा जाना इस बात का प्रमाण तो है ही कि उसे विमान सेवा के अंतर्राष्ट्रीय कायदे-कानून की रंच मात्र भी परवाह नहीं है।
चीन अंतर्राष्ट्रीय सीमा रेखा पार कर भारत में घुस गया। बात यहीं तक होती तो भी गनीमत थी। उसने भारतीय मानबिंदुओं का ध्यान किए बगैर उसकी पहचान से भी छेड़छाड़ की और अब वह उत्तराखंड में घुसपैठ कर रहा है, लेकिन केंद्र सरकार ने चोट खाने के बाद उफ तक नहीं की। क्या मनमोहन सरकार अपने दब्बूपने को सहिष्णुता का अमली जामा पिन्हाने की फिराक में है। देश की सीमा में डेढ़ किलोमीटर तक चीन ने अपने नाम की मुहर लगा दी। अपने सैनिकों को भेजकर पहाड़ों को लाल करा दिया, लेकिन भारतीय विदेश मंत्री एसएम कृष्णा ने इसे बेहद सामान्य घटना करार देकर यह अहसास करा दिया कि केंद्र सरकार देश की सरहदों की सुरक्षा को लेकर कितनी गंभीर है? इस मुद्दे पर एक तरह से प्रधानमंत्री तक ने चुप्पी साध रखी है। चीन के पक्षधर वामपंथियों के बोलने का तो सवाल ही नहीं उठता।
जब चीन के एक विशेषज्ञ ने हिंदुस्तान के कई टुकड़े करने की बात कही थी तब केंद्र सरकार को अपना बल याद भी आया था। उसने नेपाल के तत्कालीन प्रधानमंत्री प्रचंड को संयम बरतने और चीन के हाथों न खेलने का सीधा संदेश भी दिया था। नेपाल की सीमा से लगते श्रावस्ती जिले के पेड़ों पर नेपाली ध्वज फहराए जाने की भी भारत सरकार ने पुरजोर निंदा की थी, लेकिन चीन के मामले में वैसा कुछ नहीं हुआ। चीन की आलोचना के मामले में भी यूपीए सरकार फूंक-फूंक कर कदम उठा रही है। ऐसा क्यों है, यह तो वही बेहतर बता सकती है, लेकिन देश की इस कमजोरी का विदेशी ताकतें बेजां इस्तेमाल करेंगी, इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता। जाहिर है, इससे पड़ोसी देशों का मनोबल बढ़ेगा। इसमें संदेह नहीं कि चीन कभी भारत का सगा नहीं बन पाया। जब कभी भारत ने उसकी ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया, किसी विषैले सांप की तरह उसने उसे काटा ही। भारतीय पूरी दुनिया में चीन से बंधुत्व का राग अलापते रहे और इस सदाशयता का लाभ चीन ने भारत की पीठ पर छुरा भोंकने में किया।
भारत और चीन युद्ध में भारत को एक तरह से अपनी राजपूताना रेजीमेंट से हाथ धोना पड़ा था। चीन को उसकी मांद तक खदेड़ने में भारतीय सैनिक बहुद हद तक कामयाब भी हो जाते और उसे इस काबिल न छोड़ते कि वह भारत के खिलाफ सोचने की जुर्रत करता, लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने समझौते की राग छेड़ दी। इस अनुबंध के तहत चीन की सेना अरुणाचल प्रदेश से तो लौट गई, लेकिन उत्तर पश्चिम में आक्साईचिन के 36 हजार वर्ग किमी. क्षेत्र पर वह 1962 से लेकर आज तक काबिज है। अरुणाचल प्रदेश के 90 हजार वर्गकिलोमीटर भू-भाग पर भी उसकी नापाक नजर है। इसके विपरीत भारतीय सेना के अधिकारी यह कहते हैं कि आजादी के बाद चीन ने पहली बार लेह-लद्दाख क्षेत्र में अतिक्रमण किया है। चोरी से डरना वाजिब है, लेकिन चोर का परचना उससे भी ज्यादा खतरनाक है। वैसे भी चीन का भारतीय भू-भाग में प्रवेश का यह पहला मामला नहीं है। भारतीय सैन्य अधिकारियों को इसकेलिए चीन की साम्राज्यवादी वैचारिक पृष्ठभूमि में जाना होगा।
अब उन्हें कौन समझाए कि अरुणाचल प्रदेश समेत भारतीय सीमा क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय सीमा रेखा का अतिक्रमण चीनी सैनिकों ने वर्ष 2008 में ही 223 बार किया है। चमोली के छोटे से इलाके बाराहोती में भी इस साल गर्मियों के दौरान चीनी फौज दो बार घुस आई थी। लाल सेना के जवानों ने वहां ऐसे प्रमाण भी छोड़े, जिसके आधार पर चीन यह साबित कर सके कि यहां उसका निर्बाध आवागमन होता रहता है और यह क्षेत्र उसी का है। चीनी फौजों की इस नापाक हरकत की केंद्र सरकार को तुरंत जानकारी दे दी गई थी, लेकिन उसे चुप्पी साधे रखने में ही अपनी भलाई समझी। खुफिया ब्यूरो, सेना, भारत तिब्बत सीमा पुलिस और राज्य सरकार की खुफिया एजेंसियों ने इस बारे में जो जानकारियां साझा की हैं और केंद्र सरकार को जो रिपोर्ट भेजी हैं, उनमें साफ कहा गया है कि चीनी फौज लगातार घुसपैठ कर रही हैं। तिब्बत से सटे इलाके में 40-45 किलोमीटर लंबी सीमा पर कोई बस्ती नहीं है। वहां कोई तारबंदी भी नहीं है। सर्दियों में वहां बर्फ जमी रहती है। भारतीय फौज और भारत तिब्बत सीमा पुलिस के जवान वहां मोरचा संभाले हैं, लेकिन उनकी कोशिश रहती है कि चीनी फौज से टकराव मोल न ली जाए। एक खुफिया अधिकारी के मुताबिक यहां कई विवादित क्षेत्र हैं। इस पर प्रधानमंत्री से लेकर कैबिनेट और सचिव स्तर पर कई बार दोनों देशों के बीच बातचीत होती रही है। यह ऐसा इलाका है, जहां वर्ष 1962 के भारत-चीन जंग के बाद घुसपैठ तो खूब हुईं, लेकिन दोनों तरफ की फौजों ने गोलियां चलाने में हमेशा संयम दिखाया।
अंतरराष्ट्रीय सीमा रेखा को लेकर दोनों देशों में विवाद की स्थिति लंबे समय से चली आ रही है। चीन यह मानता है कि अंग्रेजों ने उसके एक कमजोर शासक पर दबाव बना कर मैकमोहन रेखा को अंतरराष्ट्रीय सीमा रेखा घोषित करवा दिया था। 2002 में भारत और चीन ने परस्पर नक्शों का आदान-प्रदान भी किया था। वेस्टर्न सेक्टर (पूर्वी जम्मू-कश्मीर) में कराकोरम दर्रा और चिपचैप नदी के बीच समर लुंगपा के दक्षिण इलाके पर भी चीन अपना दावा करता रहा है। चिपचैप नदी के दक्षिण में ट्रिग हाइट्स और प्वाइंट 5495 तथा 5459 हैं। चीनी सैनिक इस इलाके में लगातार घुसते हैं। उन्होंने मानशेन हिल का नाम प्वाइंट 5459 रख रखा है। ट्रिग हाइट्स के दक्षिण पूर्व में स्थित इलाका देपसांग रिज भी विवादास्पद रहा है। चीन जा रहे सउदी अरब के असलहा लदे विमान का कोलकाता में पकड़ा जाना भी किसी गहरी साजिश का हिस्सा हो सकता है।
चीन की साम्राज्यवादी सोच सुरसा मुख की तरह बढ़ रही है।
पड़ोसी देशों में उसकी अनधिकृत घुसपैठ को कमोवेश इसी रूप में देखा जा सकता है। वह जिस तरह नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका और पाकिस्तान की भारत विरोधी सोच को हवा दे रहा है, यह इस बात का द्योतक है कि उसे फाह्यान और ह्वेनसांग के सपनों का गौरवशाली भारत पसंद नहीं है। पड़ोसी देशों की सामरिक महत्व की जमीनों को हथियाने की उसकी कोशिशें परवान चढ़ रही है। पाकिस्तान की इच्छा से ही सही, पश्चिमी क्षेत्र में हथियाई गई 1300 वर्ग किलोमीटर भारतीय भूमि को पाकिस्तान से पाकर वह फूला नहीं समा रहा है। वहां उसने कराकोरम मार्ग विकसित कर लिया है। यह स्थिति भारत के लिए बहुत मुफीद नहीं है। चीन के सैनिकों ने न केवल लद्दाख में अंतरराष्ट्रीय सीमा का उल्लंघन किया है बल्कि वहां पत्थरों और चट्टानों पर अपनी भाषा में ?चीन? भी लिख दिया है। यह सब वह अपना पक्ष मजबूत करने के लिहाज से कर रहा है।
सवाल यह है कि भारतीय सैनिकों को चीनी सैनिकों की घुसपैठ का न तो समय रहते पता चला और न ही उसने चीन के पुख्ता होते दावों को मिटाने की ही कोशिश की। चीन का अंतरराष्ट्रीय सीमा माने जाने वाले माउंट ग्या के पास भारतीय क्षेत्र में करीब डेढ़ किलोमीटर तक घुस आना और ?फेयर प्रिंसेज ऑफ स्नो? के तौर पर प्रख्यात माउंट ग्या को चीन का हिस्सा बताने की लिखित कोशिश करना आम भारतीय के दिल पर कोदो रगड़ने जैसा है। यह कोई सामान्य स्थान नहीं है जिसे भारत सरकार इतने हल्के ले रही है। यह जम्मू-कश्मीर में लद्दाख, हिमाचल प्रदेश में स्फीति और तिब्बत को जोड़ने वाला तिराहा है। गौरतलब है कि सीमा पर गश्त करने वाले दल को 31 जुलाई को पता लगा कि जुलुंग ला दर्रे के आसपास अनेक चट्टानों और पत्थरों पर ?चीन? लिखा गया था। सैन्य प्रवक्ता भले ही इसे परिचालन से जुड़ा मामला करार दे, लेकिन इससे उसकी लापरवाही और देश की सुरक्षा को खतरे में डालने का अपराध कम नहीं हो जाता। सेना के कुछ वरिष्ठ अधिकारियों की इस बात पर एकबारगी यकीन कर भी लें कि सेना के तीन जनरल इस समय एक विनिमय कार्यक्रम के तहत बीजिंग और ल्हासा में हैं, इसलिए मामले को कम महत्व दिया जा रहा है तो भी इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता कि देश की सुरक्षा को लेकर हमारी सुरक्षा मिशनरी कितनी गाफिल है।
हम कुछ उसी तरह की भूल कर रहे हैं जैसी कि हमने कारगिल में घुसपैठ रोकने के संदर्भ में की थी। पाकिस्तान भारत की जिस तरह घेरेबंदी कर रहा है, उसे नजरअंदाज करने का मतलब है पूरे देश को आत्महत्या के लिए गहरे दलदल में धकेल देना और दुर्भाग्यवश इन दिनों कुछ ऐसा ही हो रहा है। कारगिल में पाकिस्तानी कब्जे की खबर भी सेना को गड़ेरियों ने दी थी। यह देश की खुफिया एजेंसियों की विफलता नहीं तो और क्या है? अकेले अगस्त महीने में चीन के सैनिक पूरे लाव-लश्कर के साथ एक नहीं, पूरे 24 बार माउंट ग्या क्षेत्र में घुसे और सेना के अधिकारी यह चेतावनी भी नहीं दे सके कि आगे घुसे तो खैर नहीं। डेढ़ किलोमीटर से अधिक इलाके को चीनमय कर देना एक दिन में संभव नहीं है। इससे पता चलता है कि भारत पर अंतर्राष्ट्रीय दबाव बनाने और अंतर्राष्ट्रीय सीमा रेखा के मामले में उसे झूठा साबित ठहराने के लिए वह किसी भी हद तक जा सकता है। भारतीय सीमा में घुसपैठ के बाद भी चीन नहीं चाहता कि सीमावर्ती क्षेत्रों में भारतीय सेना की हलचल बढ़े। मतलब मारै बरियरा रोवै न दे। अगर चीन के साथ भी घुसपैठ के मामले में पाकिस्तान जैसा व्यवहार नहीं किया गया तो वह एक बार फिर 1962 का इतिहास दोहरा सकता है। देश के हुक्मरानों को यह बात जितनी जल्दी समझ में आ जाए, देश उतना ही फायदे में रहेगा। (लेखक अमर उजाला लखनऊ में मुख्य उप संपादक हैं।)