विधि जैन
Thursday 22 June 2017 12:21:26 AM
रायपुर। दिगंबर जैन संत आचार्य विद्यासागर महाराज की दीक्षा के अगले वर्ष 2018 में 50 वर्ष पूर्ण होने पर देश-विदेश में 'संयम स्वर्ण महोत्सव' मनाया जाएगा, जो छत्तीसगढ़ के डोंगरगढ़ में 28 जून 2017 से शुरू हो रहा है। इसका समापन जून 2018 में होगा। ज्ञातव्य है कि 2017 में ही महात्मा गांधी के स्वदेशी और जनजागरण के चंपारण सत्याग्रह के 100 वर्ष भी पूरे हो रहे हैं। आचार्य विद्यासागर महाराज ऐसे दिगंबर जैनाचार्य हैं, जो दीक्षा ग्रहणकर आधी शताब्दी से अपनी तपसाधना के साथ-साथ मानव कल्याण के कार्य कर रहे हैं और लाखों करोड़ों लोगों की श्रद्धा के वे केंद्रबिंदु हैं। संयम स्वर्ण महोत्सव में सालभर मानव कल्याण, सांस्कृतिक एवं धार्मिक कार्यक्रम देश के अनेक गांव और नगर में आयोजित किए जाएंगे।
संयम स्वर्ण महोत्सव के प्रमुख कार्यक्रम 28, 29 और 30 जून 2017 को छत्तीसगढ़ के डोंगरगढ़ जिला राजनांदगांव में होंगे, जहां आचार्य विद्यासागर महाराज विराजित हैं। डोंगरगढ़ में देश-विदेश से करीब 1 लाख से अधिक श्रद्धालुओं के आने की संभावना है। जैन श्रद्धालु 28 जून को डोंगरगढ़ में होने वाले आयोजनों के साक्षी नहीं बन पाएंगे, क्योंकि वे अपने गावों और शहरों में इस महोत्सव की तैयारियां कर रहे हैं। इस दिन सभी प्रमुख जैन मंदिरों से सुबह प्रभातफेरी निकाली जाएंगी एवं आचार्य विद्यासागर महाराज के विशेष संगीतमय पूजन का आयोजन होगा।नगर-नगर वृक्षारोपण किया जाएगा, अस्पतालों, अनाथालयों और वृद्धाश्रमों में फल एवं जरूरत की सामग्री का वितरण किया जाएगा, जरूरतमंदों को खाद्यान्न, वस्त्र वितरण आदि का आयोजन भी किया जाएगा।
आचार्य विद्यासागर महाराज का जन्म 10 अक्टूबर 1946 को ‘शरद पूर्णिमा’ के पावन दिन कर्नाटक के बेलगाम जिले के सदलगा ग्राम में हुआ था। उन्होंने 22 वर्ष की उम्र में पिच्छी-कमंडल धारणकर संसार की समस्त बाह्य वस्तुओं का परित्याग कर दिया था। दीक्षा के बाद से ही वे सदैव पैदल चलते हैं, किसी भी वाहन का इस्तेमान नहीं करते। साधना के इन 49 वर्ष में आचार्य विद्यासागर महाराज ने हजारों किलोमीटर नंगे पैर चलते हुए महाराष्ट्र, गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, पश्चिम बंगाल, झारखंड और बिहार में अध्यात्म की गंगा बहाई है, लाखों लोगों को नशामुक्त किया है और राष्ट्रीय एकता को मजबूती प्रदान की है। आचार्य विद्यासागर महाराज जब पद विहार करते हैं, गांव-गांव में हर वर्ग के लोगों का ऐसा हुजूम उमड़ पड़ता है, जिससे लगता है कि मानो स्वयं भगवान महावीर स्वामी चल रहे हों, पैरों में छाले पड़ें या फिर कांटे चुभें पर इस महासंत की यात्रा अनवरत जारी रहती है, वे कभी किसी को बताते नहीं कि कब और कहां के लिए पद विहार करेंगे, वे सच्चे अर्थों में जन-जन के संत हैं।
आचार्य विद्यासागर महाराज से प्रेरित उनके माता-पिता, दो छोटे भाई अनंतनाथ एवं शांतिनाथ और दो बहन सुवर्णा और शांता ने भी दीक्षा ली है। आचार्य विद्यासागर महाराज लकड़ी के तख़्त पर अल्प समय के लिए ही सोते हैं, कोई बिछौना नहीं, ना ही कोई ओढ़ना। वे रोजाना अलसुबह उठ जाते हैं। वे जैन मुनि आचार संहिता के अनुसार 24 घंटे में केवल एक बार पाणीपात्र में आहार और एक बार ही जल ग्रहण करते हैं, उनके भोजन में हरी सब्जी, दूध, नमक और शक्कर नहीं होते हैं। आचार्य विद्यासागर महाराज की प्रेरणा से देश में अलग-अलग जगह लगभग 100 गौशालाएं संचालित हो रही हैं, ये गौशालाएं मुख्य रूपसे गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र में हैं। उनकी प्रेरणा से अनेक तीर्थ स्थानों का पुर्नरूद्धार हुआ है और कला एवं स्थापत्य से सुसज्जित नए तीर्थों का सृजन हुआ है। सागर में भाग्योदय तीर्थ चिकित्सालय जैसा आधुनिक सुविधाओं से लैस अस्पताल संचालित है। उन्होंने मातृभाषा में शिक्षा और हथकरघा के माध्यम से स्वदेशी क्रांति का आरम्भ किया है। जनहित, राष्ट्रहित और भारतीय संस्कृति के संरक्षण के लिए ऐसे संत प्रतिपल सोचते हैं।
आचार्य विद्यासागर महाराज स्त्री शिक्षा एवं मातृभाषा में शिक्षा के पुरजोर समर्थक हैं। गुरुदेव की पावन प्रेरणा से उत्कृष्ट बालिका शिक्षा केंद्र के रूप में प्रतिभास्थली नाम के आवासीय कन्या विद्यालय खोले जा रहे हैं, जहां बालिकाओं के सर्वांगीण विकास पर पूरा ध्यान दिया जाता है, जिसका सुफल यह है कि सीबीएसई से संबद्ध इन विद्यालयों का परीक्षा परिणाम शत प्रतिशत होता है और सभी छात्राएं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होती हैं। इन विद्यालयों में अंग्रेजी की धारा के विपरीत हिंदी माध्यम से शिक्षा दी जा रही है, जैसे विश्व के सभी विकसित देशों में शिक्षा का माध्यम मातृभाषा ही होती है। आचार्य विद्यासागर महाराज का मानना है कि मातृभाषा में शिक्षा होने से बच्चों का मस्तिष्क निर्बाध रूपसे पूर्ण विकसित होता है, उनमें अभिनव प्रयोग, नवाचार करने की क्षमता और वैज्ञानिक दृष्टि विकसित होती है। सभी प्रमुख शिक्षाविद् भी यही कह रहे हैं और यूनेस्को भी मातृभाषा में शिक्षा को मानव अधिकार मानता है।