दिनेश शर्मा
कोई मुझसे पूछे कि मेरा पत्रकारिता का कॅरियर कब शुरू हुआ? तो मेरा उत्तर होगा कि सन् 1983 में मेरे पत्रकारिता जीवन की स्वर्णिम शुरूआत हुई थी। उसी साल इंडियन एक्सप्रेस समाचार पत्र-समूह ने प्रभाष जोशी के संपादन में नई दिल्ली से हिंदी दैनिक जनसत्ता की शुरूआत हुई थी और यह समाचार पत्र मेरी ऐसी पाठशाला थी जिसमे मै जाता तो नहीं था मगर उससे निकले जनसत्ता से मुझे रोज ही कुछ नया और वह सब सीखने का मौका मिला जो कभी-कभी पाठशाला और पत्रकारिता की कार्यशालाओं में भी सीखने को नहीं मिलता है। जनसत्ता ने इसी रूप में मुझे जो दिया वह मेरे जीवन का सबसे बड़ा उत्तरदान है, भले ही मुझे उस समय जनसत्ता में आधुनिक हिंदी पत्रकारिता के भीष्म पितामह प्रभाष जोशी के साए में रहने का सौभाग्य प्राप्त न हुआ हो। जनसत्ता का मेरे जीवन मे अद्वितीय महत्व क्यों है उसकी वजह हिंदी के संपादक यही प्रभाष जोशी हैं जिन्होंने भारतीय हिंदी पत्रकारिता को एक प्रभाष जोशी युग मे बदल दिया।
आज मेरे जीवन का एक असहनीय सच से सामना हुआ है मेरी आत्मा जान रही है मेरा मन भी जान रहा है लेकिन मेरा विश्वास यह मानने को तैयार नहीं है कि प्रभाष जोशी नहीं रहे हैं। मुझे मेरी उनसे एक संक्षिप्त मुलाकात रह-रह कर याद आ रही है कि जब उन्होंने दिल्ली में जनसत्ता के अपने केबिन में मुझे बच्चे कहकर और अपनेपन का एक गहरा एहसास कराते हुए एक डांट सी नसीहत दी थी कि जाओ पढ़ो अभी तुम्हारा पढ़ने का समय है। वास्तव में मै उस समय पढ़ रहा था और मेरा लिखने का शौक मुझे उस रोज दिल्ली में जनसत्ता के दफ्तर में उन तक खींच ले गया था। मै इस डांट के विस्तार में जाऊं तो विषय लंबा खिंच जाएगा लेकिन कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं जो किसी की प्रगति का रास्ता खोल देती हैं। वही मेरे साथ भी हुआ, मै भले ही उनसे अपने जीवन में एक बार दिल्ली में और एक बार लखनऊ में मिल पाया हूं।
जनसत्ता शैली ने हिंदी पत्रकारिता का इतिहास लिखा है और उसके शुरूआती दौर के हिंदी समाचार-पत्रों को जनसत्ता का मुकाबला करना असम्भव बना हुआ था। जनसत्ता के कलेवर और भाषा-शैली का लोहा माना गया। यह मानना मुश्किल था कि जनसत्ता और प्रभाष जोशी में किसे पढ़ा जा रहा है। देश-दुनिया की किसी भी घटना और उनके सबसे प्रिय खेल क्रिकेट पर बेहतरीन अंदाज़ में लिखना किसी भी पढ़ने वाले को बार-बार पढ़ने के लिए मजबूर करता रहा है। उनकी टीम ने भी लिखने के मामले में नए से नए प्रयोग किए जोकि जनसत्ता की जोरदार सफलता का कारक हुए। प्रभाष जोशी ने जनसत्ता को उस मुकाम तक पहुंचा दिया जहां कोई हिंदी समाचार-पत्र नहीं पहुंच पाया और अब न पहुंच पाएगा। प्रभाष जोशी और अमिताभ बच्चन और भारत के प्रधानमंत्री या अमेरिका के राष्ट्रपति से मिलने की प्राथमिकता मुझसे पूछी जाए तो लोकप्रियता के हिसाब से भी सबसे पहले प्रभाष जोशी से मिलने की मेरी तमत्रा होगी। शायद उस वक्त मै अमिताभ बच्चन सहित बाकी औरो को भी भूल जाऊं। मेरी नज़र में प्रभाष जोशी हिंदी पत्रकारिता के सुपर स्टार हैं जोकि मृत्युपर्यंत इस खिताब के एक मात्र दावेदार रहे। प्रभाष जोशी के अलावा आज तक कोई भी 'पत्रकारिता का सुपरस्टार' नही है।
यदि मै अतीत की चर्चा करूं तो मेरा यह दर्द फिर उठ खड़ा होगा कि मुझे प्रभाष जोशी जी ने अपने साथ जनसत्ता मे मौका नही दिया। इसकी भी एक कहानी है और उसे मै सच्चाई से बयान कर रहा हूं। मै उस समय पढ़ रहा था और मुझे लिखने का शौक शुरू हो चुका था। मै बिजनौर से कई अखबारों को खबरें भेज दिया करता था जो कि नवभारत टाइम्स मे भी छप जाया करती थीं। इससे मेरे मन मे पत्रकारिता मे आगे बढ़ने की ललक बढ़ी। सन् 1983 मे जनसत्ता आया और मै एक दिन दिल्ली उसके दफ्तर पहुंच गया। बहादुर शाह जफर मार्ग पर एक्सप्रेस हाउस मे भूमि तल पर ही जनसत्ता का दफ्तर था। मै बहुत संकोच से जनसत्ता के संपादकीय सहयोगियों की तरफ बढ़ा तो मेरी मुलाकात सबसे पहले राजीव शुक्ला नाम के उपमुख्य संपादक से हुई। उस समय जनसत्ता की नौकरी के लिए आईएएस और आईपीएस की तरह लिखित परीक्षा और साक्षात्कार हुआ था। बाकी अखबारों में यह परंपरा जनसत्ता से ही शुरू हुई है। मै बिजनौर से दिल्ली आया था तो राजीव शुक्ला ने हमसे पूछा कि आपने एग्जाम दिया था, मैने कहा नहीं। तो फिर? राजीव शुक्ला का यह प्रश्न मेरे लिए निरूत्तर था। मैने उनसे पूछा कि संपादक जी कहां बैठते हैं तो राजीव शुक्ला इसका उत्तर दिए बिना अपने संपादकीय सहयोगियों के पास चल दिए। इनके बाद डेस्क पर बैठे कॉपी एडिटर जगदीश उपासने से मुलाकात हुई। मैने उनसे कहा कि मै बिजनौर से जनसत्ता का संवाददाता बनना चाहता हूं। जगदीश उपासने बोले कि इसके लिए आपको संपादक जी से बात करनी होगी, चाहें तो आप खबरें भेजिए यदि स्तरीय होंगी तो देखी जाएंगी। इस दौरान मैने वहां के संपादकीय वातावरण को देख और समझ लिया था। संपादक से मिलने की इच्छा लिए मै उनके कार्यालय की ओर बढ़ा ही था कि सामने रिर्पोटिंग टेबिलों पर दो व्यक्ति बैठे दिखे जिनसे परिचय के बाद पता चला कि एक आलोक तोमर हैं जो कि सिटी रिर्पोटर हैं और दूसरे रामबहादुर राय हैं जो कि वरिष्ठ संवादाता हैं। मैने अपना परिचय देते हुए दोनो को मंतव्य बताया। आलोक तोमर ने मेरी मदद करने के अंदाज़ में कहा कि आप श्री प्रभाष जोशी जी से मिलिए। इनकी मेरे प्रति सहानुभूति भी नजर आ रही थी लेकिन इनकी भी सीमाएं थीं। मै जोशी जी के कार्यालय पहुंचा और मेरी मुलाकात तेज गति से कोई आलेख टाइप कर रहे व्यक्ति से हुई। मैने बताया कि संपादक जी से मिलना है। उन्होंने पूछा कि आपको बुलाया गया है? तो मैने कहा- नहीं, मै बिजनौर से आया हूं और संवाददाता बनना चाहता हूं। यह संयोग था कि प्रभाष जोशी जी अपना लेख पूरा करके वहां से उठने वाले थे। उनके पीए ने मेरे बारे मे बताया और करीब दस मिनट बाद मुझे बुला लिया गया। प्रभाष जोशी जी खड़े हुए थे और उन्होने मुझे देखकर सबसे पहले यही पूछा कि 'तुम्हारी उम्र क्या है? किस क्लास मे पढ़ते हो? इस तरह कई प्रश्न थे जो उन्होंने खड़े-खड़े ही किए और जिनका उन्होने उत्तर देने का भी पूरा अवसर नही दिया और अंत में कहा कि जाइए, पहले पढ़िए और लिखते हो तो कुछ भेजिए, देखेंगे। ठीक है? अब जाइए, लेकिन पढ़ाई कीजिए, आप अभी बच्चे हैं।' मै उनके सामने खड़ा नही हो पा रहा था किसी सवाल का पर्याप्त और संतोषजनक उत्तर देने की बात तो दूर थी। उन्होंने मेरे चेहरे के भाव देखे और फिर सलाह दी कि 'पढ़िए भी लिखिए भी।' इस मुलाकात का कोई परिणाम तो नही रहा जिसके लिए मै उनसे मिलने गया था लेकिन मै इस बात से खुश था कि मै संपादक जी से मिला। मै वापस आलोक तोमर और रामबहादुर राय के पास पहुंचा और मैने उन्हें यह पूरा वृतांत बताया। आलोक ने कहा कि जोशीजी आपसे मिल लिए यही बहुत बड़ी बात है। मै बिजनौर लौट गया। मैने जनसत्ता को खबरें भेजीं, छपी भीं लेकिन मै उनकी नज़र में एक महत्वाकांक्षी बालक की छवि से नहीं उबर सका। मै जनसत्ता को अपनी पाठशाला मानकर चलता गया। जनसत्ता मे जोशीजी के साथ काम करने की मेरी तमत्रा अधूरी ही रही। लेकिन मैने जो कुछ भी पाया है उसके पीछे मेरी यही पाठशाला रही है।
पिछले दिनो प्रभाष जोशी जी से दिल्ली में फोन पर अनुरोध किया कि वे स्वतंत्र आवाज़ डॉट कॉम के लिए किसी भी विषय पर लेख लिखेंगे तो हमे बहुत खुशी होगी। उस दिन वे अपनी पुत्रवधु उमा जोशी के घर पर थे। मैने अपने पोर्टल का मुख्य पृष्ठ और कुछ स्टोरीज़ उनको कोरियर से भेज दी थीं। उन्होंने देख भी ली थीं। मेरे फोन पर उन्होंने कहा मै जरूर तुम्हारे लिए लिखूंगा-लखनऊ आ रहा हूं वहां भी मिलना। इस बीच वे एक किताब में व्यस्त हो गए और पोर्टल के लिए चाहकर भी नहीं लिख पाए। मैने उनसे जब दोबारा अनुरोध किया तो वे हल्के बुखार में रहते हुए भी फोन पर आए। उनका कहना था कि मै तुम्हारे पोर्टल के लिए कुछ खास और कुछ अलग ही लिखूंगा। मैने उनकी पुत्रवधु उमा जोशीजी से भी जानना चाहा था कि स्वतंत्र आवाज़ डॉट कॉम उन्होंने देखा है कि नहीं तो उनका कहना था कि 'पापा ने आपके सारे प्रिंट देखे हैं वह उनकी बहुत तारीफ कर रहे थे- कह भी रहे थे कि इस पोर्टल के लिए लिखना है।' मगर यहां भी हमारी किस्मत ने साथ नहीं दिया। स्वतंत्र आवाज़ डॉट कॉम प्रभाष जोशी जी के विशेष आलेख से वंचित रह गया। जिस समय प्रभाष जोशी जी के निधन का समाचार आया उस समय मेरी मनस्थिति काफी किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो गई लेकिन यह विश्वास अभी भी नहीं हो पा रहा है कि पत्रकारिता के महान विजेता प्रभाष जोशी अब हमारे बीच मे नहीं हैं।
प्रभाष जोशी पत्रकारिता के उन लोगों में कभी शामिल नहीं हुए जो लेखनी से समझौते करके राज्यसभा, विधानपरिषद, राजदूत या संस्थाओं में नामित होने के लिए लिखते हैं। वे पत्रकारिता के पुरस्कारों के पीछे भी नहीं दौड़े। उनमे किसी पद्म विभूषण की चाह नहीं देखी गई। वे पत्रकारों के बीच से आए थे और मृत्युपर्यंत पत्रकारों के बीच में रहे। उनके व्याख्यान हर विषय पर अकाट्य रहे। उन्हें टीवी टॉक पर या मुद्दों पर ध्यान से सुना जाता रहा है। उन्होंने अपने समकालीन हर साहित्यकार और कवि का सम्मान तो किया ही, क्रिकेट जैसे खेल पर भी बहुत सधकर और खरे लेखक की तरह लिखा। वे क्रिकेट के दीवाने थे और इसी की दीवानगी उन्हें हमसे दूर ले गई। हमे लगता है कि वे हैदराबाद के भारत आस्ट्रेलिया के बीच क्रिकेट श्रंखला के एक दिनी मैच के अंतिम मुकाबले में सचिन तेंदुलकर के शानदार खेल से बहुत प्रसन्न होने और जीत की ओर जाते हुए अचानक तेंदुलकर के एक खराब शॉट खेलकर आउट होने और इस तरह इस मैच के नाहक ही गंवा देने को वे बर्दाश्त नहीं कर पाए। देश का पत्रकारिता जगत आपके इस तरह जाने से ग़म मे डूबा है। आपकी जगह हमेशा खाली रहेगी। इस धरती पर अब कोई प्रभाष जोशी जन्म नहीं ले सकता। जनसत्ता में रविवार को 'कागद कारे' हिंदी जगत के पाठकों का सबसे प्रिय स्तंभ था इस बार जब जनसत्ता रविवार को पाठकों के सामने जाएगा तो वहां सब होंगे लेकिन प्रभाष जोशी जी नहीं होंगे भले ही उनके लिखे लाखों लेख हमेशा छपते रहेंगे।
आपने लखनऊ में कहा था कि अपन का ऊपर भी इंडियन एक्सप्रेस हाउस रहेगा। किसी संस्थान के प्रति निष्ठा की ऐसी बेजोड़ मिसाल पेश करने वाले प्रभाष जोशी जी आप ठीक ही कह रहे थे। यहां आपकी निष्ठा पर कोई उंगुली नहीं उठा पाया। पत्रकारिता के प्रभाष जोशी युग के अंत होने से जो नुकसान हुआ है वह भर तो नहीं पाएगा लेकिन जब-जब देश में हिंदी पत्रकारिता के कदम लड़खड़ाएंगे तब-तब प्रभाष जोशी एक अदृश्य प्रेरणा के रूप में जरूर सामने होंगे। पत्रकारिता में कुछ नया कर दिखाने वालों के इस हृदय सम्राट के प्रति स्वतंत्र आवाज़ डॉट कॉम अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता है।