राधेश्याम शुक्ला
वाशिंगटन।अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा की बीजिंग यात्रा के दौरान जारी संयुक्त विज्ञप्ति के आघात से आहत भारत के प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह अमेरिका की अपनी बहुचर्चित यात्रा पर भारतीय समयानुसार सोमवार की सुबह पहुंच गए। यद्यपि अमेरिका में अभी यह रविवार की अपराह्न का समय था। वहां के मौसम विभाग की एक रोचक सूचना है कि उनके पहुंचने के अगले दिन यानी अमेरिकी सोमवार को राजधानी में वर्षा का मौसम रहेगा, फिर मंगलवार को चमकती धूप रहेगी, लेकिन अगले दिन यानी बुधवार फिर बादल और वर्षा का दिन रहेगा। यानी पूरे यात्राकाल में धूप-छांव का अच्छा खेल चलता रहेगा। अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति के पंडितों की नजर में यह मौसम भी भारत-अमेरिका संबंधों के बनते-बिगड़ते रूप को प्रतिबिंबित कर रहा है।
डॉ मनमोहन सिंह अपनी चार दिन की इस यात्रा में करीब 90 से अधिक घंटे वाशिंगटन में बिताएंगे, फिर वहां से वापसी में त्रिनीदाद और टुबैगो की यात्रा पर जाएंगे। उनकी इस यात्रा में सबसे बड़ा घोषित एजेंडा परमाणु समझौते के कार्यान्वयन का है। भारत के प्रधानमंत्री की कोशिश है कि उनकी इस यात्रा पर इस पर हस्ताक्षर हो जाएं, लेकिन अभी अंतिम तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता। यद्यपि दोनों तरफ के अधिकारियों का ख्याल है कि दोनों देशों के संयुक्त वक्तव्य जारी होने के पहले सारे मतभेद दूर कर लिए जाएंगे। भारत को लेकर अमेरिका की नीति अभी भी स्पष्ट नहीं है और वह भारत की आंतकवाद जैसी गंभीर समस्या के प्रति भी कभी भी उतना चिंतित नहीं दिखा। भारतीय जनता में इसकी खासी प्रतिक्रिया होती आई है। इस यात्रा में कोई अमेरिका से कोई अधिक आशा करना गलतफहमी ही होगी क्योंकि अमेरिका के सामने पहले उसके हित हैं और भारत जैसे देश का उसकी दृष्टि में केवल सीमित महत्व है।
जहां तक कुछ मामलों को लेकर समझौतों का सवाल है तो भारत के स्तर पर जो एक बड़ी बाधा थी, वह दूर कर ली गयी है। उसने भारत में स्थापित होने वाले अमेरिकी परमाणु संयंत्रों में दुर्घटना होने की स्थिति में मुआवजा देने की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेने का विधेयक संसद में पास कराने का निर्णय ले लिया है। प्रधानमंत्री के अमेरिका रवाना होने के पहले ही कैबिनेट ने उसे स्वीकृति दे दी है। असल में इस विधेयक के बिना अमेरिका बीमा कंपनियां इन परमाणु संयंत्र लगाने वाली अमेरिकी कंपनियों को बीमा सुविधा नहीं देंगी। अब अमेरिका को अपने पक्ष की बाधा दूर करनी है। वह बाधा है अमेरिका से मिलने वाले परमाणु ईंधन के पुनर्संस्करण अधिकार की। आशा की जा रही है कि कुछ शर्तों के आधार पर अमेरिका यह अधिकार दे देगा। यदि ऐसा हो गया, तो प्रधानमंत्री की इसी यात्रा में समझौते को अंतिम रूप प्रदान कर दिया जाएगा, अन्यथा इसे फिर और आगे के लिए टाला गया, तो इससे भारत-अमेरिकी संबंधों में थोड़ी खटास ही पैदा होगी।
भारतअभी भी अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की बीजिंग यात्रा के दौरान जारी संयुक्त विज्ञप्ति के आघात से उबरा नहीं है। यद्यपि उसे लेकर अमेरिका और चीन दोनों ने अपनी-अपनी तरफ से सफाई दी है। फिर भी उससे भारत को संतोष होने वाला नहीं है। भारत अपने को दक्षिण एशिया की एक प्रमुख शक्ति समझता है, लेकिन इस संयुक्त विज्ञप्ति में आए उल्लेख से लगता है कि अमेरिकी दृष्टि में भारत का 'क्षेत्रीय शक्ति होने जैसा कोई दर्जा नहीं है। वह अभी भी कोई ऐसा देश है, जिसके आचरण व्यवहार को अमेरिका और चीन जैसे देश नियंत्रित करेंगे। भारत को इस मामले में चीन से कोई शिकायत नहीं है, लेकिन अमेरिका से अवश्य शिकायत है। यदि उसकी दृष्टि में भारत की इतनी भी स्वतंत्र हैसियत नहीं है कि वह अपने क्षेत्र की स्वयं जिम्मेदारी का व्यवहार कर सके, तो भला अमेरिका के साथ उसकी कोई दोस्ती कैसे हो सकती है? इसलिए ओबामा के साथ बातचीत में भारत जरूर यह जानना चाहेगा कि वह भारत को उसकी किस हैसियत में अपना साझीदार बनाना चाहता है?
वास्तवमें चीन दक्षिण एशिया में अपनी राजनीतिक भूमिका बढ़ाना चाहता है इसलिए उसने ओबामा को इसके लिए तैयार कर लिया कि दक्षिण एशियायी मामलों यानी भारत पाकिस्तान तथा अफगानिस्तान के मामलों में वे मिलकर काम करेंगे। संयुक्त वक्तव्य के इस अंश पर भारत की गहरी आपत्ति के बाद चीन और अमेरिका दोनों ने अपनी-अपनी तरफ से सफाई दी है, लेकिन सवाल है ऐसे मुद्दे को संयुक्त वक्तव्य में डाला ही क्यों गया जिस पर बाद में सफाई देनी पड़े, जबकि अमेरिका को तथा राष्ट्रपति ओबामा को यह पता है कि पाकिस्तान के मामले में भारत कितना अधिक संवेदनशील है। भारत की नीति शुरू से ही पाकिस्तान से सम्बद्ध मामले में किसी तीसरे देश के हस्तक्षेप के खिलाफ है। फिर इसका क्या औचित्य था कि ओबामा साहब दक्षिण एशिया के उस देश के मामले में चीन को हस्तक्षेप करने के लिए आमंत्रित करें जिन्हें वह भविष्य के लिए अमेरिका का सबसे बड़ा रणनीतिक साझीदार मानते हैं। अमेरिकी अधिकारी कह रहे हैं कि भारत ने इस संयुक्त वक्तव्य में उससे कुछ ज्यादा ही पढ़ लिया है जितना कि उसमें लिखा गया है। लेकिन कूटनीतिक वक्तव्यों में पंक्तियों के बीच में पढऩा कोई अस्वाभाविक बात तो नहीं। भारत का यह सवाल करना कुछ बहुत नाजायज तो नहीं कि संयुक्त वक्तव्य में इन वाक्यों की जरूरत क्या थी। जाहिर है कि इसका आग्रह चीन की तरफ से किया गया होगा, जिसे अमेरिकी पक्ष ने सहजता से स्वीकार कर लिया। जाहिर है इस मामले में भी चीन के हाथों ओबामा ही पिटे। उन्होंने अनावश्यक रूप से उन बातों को भी संयुक्त वक्तव्य में शामिल होने दिया, जिसे लेकर उनका एक मित्र देश भारत व्यथित हो सकता है।
अमेरिका-चीनसंयुक्त विज्ञप्ति में अफगानिस्तान और पाकिस्तान के साथ भारत का जिस तरह उल्लेख किया गया है, वह भारत के लिए बहुत अपमानजनक है। भारत इसके लिए अमेरिका को संदेह का लाभ तो दे सकता है कि वह नासमझी में या गफलत में वैसी शब्दावली पर हस्ताक्षर कर आए, लेकिन इसका भरोसे लायक स्पष्टीकरण उन्हें वाशिंगटन में देना होगा, अन्यथा दोनों देशों के बीच आगे जो भी संबंध होंगे, वे कच्चे ही रहेंगे। भले ही उन्हें दोनों पक्ष कितना ही महिमामंडित क्यों न करें। संयुक्त विज्ञप्ति जारी होने के बाद उठे तूफान और भारतीय आपत्तियों पर भले ही चीन और अमेरिका ने अपने स्पष्टीकरण दिए हों उनसे संबंधों में विश्वास पनपना बहुत मुश्किल लगता है। भारत में सत्ता के कमज़ोर नेतृत्व और देश में राष्ट्रीय एकता अखण्डता जैसे मुद्दों पर भी यहां के राजनीतिक दलों में गहरी मतभिन्नता का आखिर कहीं तो नुकसान होना ही है और वह हो रहा है। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में भारत की क्या हैसियत है और शक्तिशाली देश भारत को कितनी तवज्जोह देते हैं यह अमेरिका-चीन की संयुक्त विज्ञप्ति सेपता चल जाता है। यह मुद्दा भी इस यात्रा में निश्चित रूप से दोनो देशों के आगे पीछे रहेगा।