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यशस्वी होता है, अन्न का सम्मान करने वाला!

Saturday 16 March 2013 10:14:44 AM

हृदयनारायण दीक्षित

हृदयनारायण दीक्षित

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करोड़ों लोग भूखे हैं। लाखों टन अन्न की बर्बादी है। अन्न सामान्य पदार्थ नहीं। यह जीवन का मूलाधार है। वैदिक साहित्य में अन्न के प्रति अतिरिक्त आदरभाव प्रकट किया गया है। भौतिकवादी विद्वान उपनिषद् दर्शन पर भाववाद का आरोप लगाते हैं। वे उपनिषदों में मौजूद भौतिकवाद की उपेक्षा करते हैं। तैत्तिरीय उपनिषद् उत्तरवैदिक काल की प्रीतिकर रचना है। इसके सातवें, आठवें और नवें अनुवाक् में अन्न की प्रतिष्ठा है। यहां अति सरल और छोटे-छोटे वाक्यों में अन्न की दिव्य अनुभूति है। कहते हैं, “अन्नं न निन्द्यात- अन्न की निंदा न करें। तत् व्रतम-यह व्रत-निश्चय है। प्राणो व अन्नम्-अन्न ही प्राण है। प्राण ही अन्न है। शरीर अन्न में प्रतिष्ठित है।” यहां प्राण व शरीर दोनों ही अन्न में प्रतिष्ठित बताए गए हैं। बताते हैं कि जो यह बात ठीक से जान लेता है वह अन्नवान पशुधन से युक्त और संपूर्ण तेज से भर जाता है और यशस्वी भी हो जाता है।” यहां किसी अंधविश्वास की स्थापना नहीं है। सामान्य ज्ञान की ही बाते हैं। कोई कह सकता है कि इसमें नया क्या है? यहां दर्शन जैसी कोई बात है ही नहीं, लेकिन ध्यान से जांचने पर यहां नितांत नई स्थापना है। नई बात है अन्न के प्रति आदरभाव की।
अन्न उपयोगी है। सो अन्न उत्पादन जरूरी है। यह दृष्टि उपयोगितावादी है। अन्न प्राणवान है। जीवमान सत्ता है, इसलिए इसकी निंदा नहीं करेंगे। यही व्रत है। उपनिषद् की यह दृष्टि संवेदनशील है। इस बोध में अन्न नमस्कारों के योग्य हो जाते हैं। उपनिषद् के आठवें अनुवाक में भी अन्न की ही प्रतिष्ठा है। कहते हैं, “अन्नं न परिचक्षीत, तत् व्रतम्- अन्न की अवहेलना न करें, यह व्रत है। जल ही अन्न है, जल में तेज प्रकाश है। अन्न में अन्न की प्रतिष्ठा है।” निंदा, प्रशंसा और अवहेलना जैसी क्रियाएं मनुष्यों को बुरी लगती हैं। भौतिकवादी दृष्टिकोण में अन्न पर निंदा, स्तुति या अवहलेना का प्रभाव नहीं पड़ता। अन्न निंदा स्तुति नहीं सुनता। अन्न पर निंदा स्तुति का प्रभाव भले ही न पड़ता हो, लेकिन हम सब पर इस सोच का असर पड़ता ही है। हम अन्न के निंदक होते हैं, उसकी उपेक्षा करते हैं, तो अन्न के संरक्षक की भूमिका में नहीं रहते।
इसीलिए अन्न के वर्णन में ऋषि बार-बार दोहराते हैं कि जो यह बातें जानते हैं, वे अन्न संपंन बनते हैं, यशस्वी और कीर्तिवान बनते हैं, पशुधन संपदा से युक्त होते हैं। उपनिषद् के ऋषि की अंतर्दृष्टि गहरी है। उपनिषद् के ऋषि वैज्ञानिक भौतिकवाद से आगे की बाते करते हैं। वैज्ञानिक भौतिकवाद अपूर्ण है। अर्द्धसत्य पर आधारित है। रोटी-अन्न भौतिकवाद में भी प्रथम आवश्यकता है लेकिन उपनिषद् के ऋषि इस आवश्यकता को संस्कार देते हैं। वे दोहराते हैं - तत् व्रतम्। यह व्रत है, संकल्प है। सामान्य जीवन में हम सब व्रत का अर्थ भोजन छोड़ने या फास्ट से लेते हैं। उपनिषद् के ऋषि कहते हैं “समय पर भोजन जरूरी है - तत् व्रतम्। यही व्रत है। अन्न अपरिहार्य है। अन्न की जरूरत टाली नहीं जा सकती। मासांहार अन्न का विकल्प नहीं, विकृति है।
उपनिषदों और पतंजलि के योगसूत्रों के रचनाकाल में लंबा फासला है। कोई तीन हजार वर्ष का। उपनिषद् के ऋषि शरीर को ‘अन्नमय कोष’ कहते हैं, अन्न से निर्मित, अन्न ऊर्जा से भरपूर है, अन्नमय कोष। पतंजलि भी यही शब्द प्रयोग करते हैं। अन्नमय कोष के बाद ‘प्राणमय कोष’ बताते हैं और दोनो को अन्न-जरूरत से जोड़ते हैं। शरीर की जरूरतों का ऐसा सरल, सुबोध सामान्य विज्ञान ऋषियों ने गाकर समझाया था। अन्न जरूरी है। नेहरू की सरकार के समय पूरे देश में पोस्टर लगाए गए थे-“अधिक अन्न उपजाओ।” राष्ट्र की अन्न जरूरत वाले इस सरकारी आह्वान को अन्न की आत्मनिर्भरता से जोड़ा गया था।
पंडित नेहरू के हजारों वर्ष पहले, तैत्तिरीय उपनिषद् के ऋषि ने नवें अनुवाक की शुरूवात में कहा था “अन्न बहुकुर्वीत, तत् व्रतम्। अधिक अन्न पैदा करो, यह व्रत है।” बात इतनी ही होती तो सरकारी होती। ऋषि ने आगे जोड़ा, “यह पृथ्वी अन्न है। आकाश अन्नाद - अन्न का आधार है। पृथ्वी में आकाश है, आकाश में पृथ्वी है। अन्न अन्न में प्रतिष्ठित है। जो यह बात जानते हैं, अन्न संपंन होते हैं। यशस्वी होते हैं। महान होते हैं-महान भवित, महान कीर्तया।” भारत को खाद्यान्न आत्मनिर्भरता चाहिए। अन्न उत्पादन जरूरी है। ऋषि कहते हैं-यह व्रत है। वे व्रत संकल्प बताकर चुप नहीं होते। वे इस आवश्यकता के व्यापक दर्शन भी समझाते हैं “शरीर अन्नमय है। प्राण अन्न है। अन्न प्राण है। पृथ्वी अन्न है। आकाश अन्न का आधार है। बार-बार कहते हैं कि यह बात जानना समझना बहुत जरूरी है। वे यह बातें जानने के फायदे भी समझाते हैं। उपनिषद् के इस खंड में कही भी कोई अंधविश्वास नहीं। ऋषि ईश्वर को अन्नदाता नहीं बताते और न ही देवताओं से अन्न संपन्नता की स्तुतियां करते हैं।
उपनिषद् का अन्न क्षेत्र परिशुद्ध वैज्ञानिक है, यहां कोई परलोक नहीं, कोई अंधविश्वास नहीं। अन्न की आवश्यकता पर ही जोर है। बताते हैं कि “घर आए अतिथि से प्रतिकूल वार्ता न करें, यह व्रत है, इसलिए परिश्रमपूर्वक ढेर सारा अन्न संग्रह करना चाहिए। अतिथि से अनुरोध कहना चाहिए कि भोजन तैयार है, आइए अन्न लीजिए।” अतिथि सत्कार प्राचीन भारतीय संस्कृति है, तब अतिथि को भोजन कराना ही मुख्य आदर था। आधुनिक भारत चाय पर ही अटक गया है। कुछ समय पहले कहते थे, “चाय तैयार है, आप चाय पीकर ही जाएं। अब पूंछते हैं कि क्या आप चाय लेंगे? उत्तर आधुनिक मित्र कोल्ड ड्रिंक से बहुत आगे बढ़कर दारू से भी अतिथि सत्कार करने लगे हैं। नया सूत्र और भी दिलचस्प हैं, पूंछते हैं, “अतिथि कब वापस जाओगे।” ऋषि कहते हैं “घर आए किसी भी अतिथि से प्रतिकूल व्यवहार न करें-न कंचन। उपनिषद् सामान्य शिष्टाचार को भी व्रत बताती है, लेकिन आधुनिक सभ्यता में शिष्टाचार मात्र औपचारिकता है।
उपनिषद् दर्शन इसीलिए आज और भी प्रासंगिक हो गया है। उपनिषद् के इसी अंश में अन्न शिष्टाचार का प्रीतिपूर्ण मनोविज्ञान भी है। बताते हैं कि “जो पूरी श्रद्धा के साथ अतिथि को भोजन कराते हैं वे प्रथम श्रेणी के अन्न संपंन बनते हैं। जो मध्यम तरीके से कामचलाऊ अतिथि सत्कार से काम चलाते हैं, वे कामचलाऊ अन्न संपंन बनते हैं और जो यों ही अतिथि को निपटाते हैं, वे निकृष्ट अन्न संपंन बनते हैं। अंत में पहले वाली बातें दोहराते हैं “जो यह रहस्य जानते हैं वे श्रेष्ठ होते हैं।” ज्ञान बोध बहुत जरूरी है। ज्ञान का अवसान कर्म में होता है और कर्म का अवसान बोध में।
मैं राजनीतिक कार्यकर्ता हूं। राजनैतिक कार्यकर्ता होने के कारण मुझे राजनीति पर ज्यादा लिखना चाहिए। राजनीति मेरा धर्म है। गीता में श्रीकृष्ण ने ‘परधर्म’ को भयावह बताया है तो भी मैंने ऋग्वेद, अथर्ववेद और उपनिषद् प्रसंगों पर हजारों निबंध लिखे हैं। ‘परधर्म’ से जुड़ने का खतरा झेलता हूं। राजनीति पीड़ित करती है। राजनीति का स्वधर्म आनंद नहीं देता। उपनिषद् आनंदित करते हैं, इसीलिए कोई 15 बरस से उपनिषदों को समझने का प्रयास करता हूं। यही समझ लगातार लिख रहा हूं। अब तक यही व्रत है-तत् व्रतम्।

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