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रंगनाथ आयोग की सिफारिशें ही सर्वसम्मत नहीं

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नई दिल्ली। धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों की समस्याओं पर विचार करने के लिए बने रंगनाथ मिश्र आयोग की रपट से एक बात साफ होती जा रही है कि इस आयोग की सिफारिशें सर्वसम्मत नहीं हैं। आयोग की सदस्य सचिव आशा दास ने तो इसाई और मुसलिम दलितों को अनुसूचित जाति वाला आरक्षण देने की सिफारिश का विरोध करते हुए असहमति दर्शाने वाली टिप्पणी के साथ सलाह दी है कि हमारे देश में धर्म और जाति के आधार आरक्षण देने से निहित स्वार्थों का लाभ ही हो रहा है, इसलिए सरकार अपनी नीतियों और कार्यक्रमों में बदलाव करे और धर्म और जाति के आधार के बगैर परिवार को इकाई मान कर सभी ऐसे परिवारों की सहायता के लिए विशेष कदम उठाए जो आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े हों।
आशा दास जो भारतीय प्रशासनिक सेवा की वरिष्ठ अधिकारी भी हैं उन्होंने अपनी टिप्पणी में आगे कहा है कि अनुसूचित जातियों की शिनाख्त का आधार हिंदू धर्म की सदियों पुरानी कठोर जाति व्यवस्था से उपजी अस्पृश्यता के कारण पैदा हुआ सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक पिछड़ापन रहा है, यही वजह है कि भारत सरकार और अंग्रेज सरकार ने इस्लाम और इसाई धर्म के अनुनायियों को अनुसूचित जाति का नहीं माना। उनका कहना है कि अनुसूचित जाति की उत्पत्ति को समझने के लिए इस शब्द के इतिहास को समझना होगा। पहली बार गवर्मेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 में इसका प्रयोग हुआ। इस सिलसिले में 1936 में जारी आदेश के पैरा-3 में कहा गया था कि कोई भी भारतीय इसाई अनुसूचित जाति का सदस्य नहीं माना जा सकता। यूं तो अनुसूचित जातियों की शिनाख्त की कोशिश 1880 की जनगणना के समय से ही चल रही थी, लेकिन 1931 की जनगणना के समय आयुक्त हाटन ने अस्पृश्य माने जाने वाले समुदायों की शिनाख्त के निष्कर्ष स्पष्ट रूप से तय किए जोकि मुख्यतया हिंदुओं में प्रचलित अस्पृश्यता के इर्द गिर्द ही घूमते थे। मसलन, क्या ब्राह्मण उन जातियों के लिए विभिन्न संस्कार और पूजा पाठ करते हैं? क्या उच्चवर्णीय हिंदुओं को सेवाएं देने वाले नाई, दर्जी इन जातियों को सेवाएं देते हैं? क्या उन जातियों के छूने और पास आने से उच्चवर्णीय हिंदू अपने आप को प्रदूषित महसूस करते हैं? क्या उच्चवर्णीय हिंदू उनके हाथ का पानी पीते हैं? क्या उन्हें रास्ते, कुंए, स्कूल, मंदिर आदि सार्वजनिक सुविधाओं का इस्तेमाल करने की मनाही है? क्या सार्वजनिक जीवन में इस जाति के शिक्षित व्यक्ति के साथ उतने ही पढ़े उच्चवर्णीय के समान बर्ताव किया जाता है? क्या उसे किसी पेशे के कारण्‍ा दलित माना जाता है या वह पेशा छोड़ देने पर भी उसका सामाजिक पिछड़ापन बना रहेगा?
इसाई और मुस्लिम दलितों को अनुसूचित जाति का दर्जा देने का विरोध करते हुए उन्होंने दलील दी है कि अनुसूचित जाति के जिन लोगों ने इसाई धर्म या इस्लाम कबूल किया है और जो सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े हैं, उन्हें ओबीसी सूची के तहत शामिल किया गया है और शिक्षा और रोजगार में आरक्षण और अन्य सुविधाएं मिल रही हैं। ओबीसी सूची में शामिल इन इसाई और मुसलिमों को दोहरे लाभ मिल रहे हैं। एक तरफ उन्हें ओबीसी में शामिल किए जाने के कारण शिक्षा और सरकारी नौकरियों में आरक्षण मिल रहा है, दूसरी तरफ अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्य के नाते संवैधानिक, कानूनी और संस्थाई संरक्षण जैसे लाभ मिल रहे हैं।
अनुसूचित जातियों की बढ़ती आबादी की तरफ ध्यान आकर्षित करते हुए आशा दास ने कहा कि अभी अनुसूचित जातियों को 15 फीसद आरक्षण मिल रहा है, 2001 की जनगणना के अनुसार उनकी आबादी का फीसद और बढ़ गया है मगर आरक्षण नहीं बढ़ सकता। ऐसे में मुस्लिम और इसाई बने लोगों को अनुसूचित जाति का दर्जा देने पर वर्तमान अनुसूचित जातियों कि शिक्षा और सरकारी नौकरियों के मामले पर बुरा असर पड़ेगा। इन दिनों इसाई और मुस्लिम दलितों को अनुसूचित जाति का आरक्षण देने की मांग उठ रही है, लेकिन इस मांग की सही पड़ताल करना जरूरी है। यह पता लगाया जाना चाहिए कि उनके साथ उनके समाजों में जो भेदभाव हो रहा है उससे उपजने वाली वंचितता और विषमता हिंदू समाज के कठोर भेदभाव से उपजी विषमता और वंचितता के मुकाबले कितनी है?यह सही है कि कुछ चर्चों और कब्रिस्तानों में उनके लिए अलग जगह रखी जाती है। उनके समाजों के लोग धर्मांतरण करके आए लोगों के साथ घुलते-मिलते नहीं हैं। ये बातें बेशक निंदनीय हैं मगर इनकी हिंदू समाज में अस्पृश्यों के साथ किए जाने वाले व्यवहार से तुलना नहीं की जा सकती। फिर इस बारे में कोई प्रामाणिक तथ्यों और दस्तावेजों पर आधारित कोई शोध उपलब्ध नहीं है जो साबित कर सके कि इस्लाम और इसाईयत को अपनाने वाले दलितों के साथ उनके समाजों में होने वाला भेदभाव, विषमता और वंचितता उतनी ही रहती है जितनी हिंदू समाज में है। जबकि एक ब्रिटिश मिशनरी सैमुअल मेटीर ने केरल और तमिलनाडु में 25 साल तक रह कर किए अध्ययन के आधार पर लैंड ऑफ चैरिटी- और नेटिव लाइफ ट्रावनकोर-नामक पुस्तकें लिखीं। इनमें निष्कर्ष निकाला गया है कि इन राज्यों में इसाईयत कबूल करने वाले दलितों की शैक्षणिक सामाजिक और आर्थिक स्थिति उन दलितों से बेहतर है जो हिंदू धर्म में ही रह गए।
हालांकि दलित इसाईयों के बारे में आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। मगर इसाईयों के बारे में जो सामाजिक संकेतक उपलब्ध हैं उससे स्पष्ट है कि साक्षरता, शिक्षा के स्तर, काम में भागीदारी के मामले में इसाई (जैनों को छोड़कर) अन्य धार्मिक समुदायों हिंदू, मुस्लिम, सिख और बौद्ध से काफी आगे हैं। अपनी असहमति की टिप्पणी में आशा दास ने रंगनाथ मिश्र आयोग की ओर से आयोजित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन के साथ मिल कर मुसलमानों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति समस्याएं और नीतिगत विकल्प-विषय पर सेमिनार का जिक्र किया है और कहा है कि इसमें शामिल हुए कई मुस्लिम अध्येताओं की राय थी कि विश्व स्तर पर सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन के कई कारक हैं-शिशु मृत्यु दर, शहरीकरण और जन्म के समय जीवन की औसत संभाव्यता। जहां तक मुस्लिमों का सवाल है वे इन निष्कर्षों पर बहुसंख्यक समाज से कहीं आगे हैं। इसलिए मुस्लिमों के लिए धर्म के आधार पर आरक्षण की मांग करना संवैधानिक और नैतिक दृष्टि से उचित नहीं है। उनकी यह भी राय थी मुस्लिमों की कम प्रति व्यक्ति आय के लिए छोटे परिवार की संकल्पना को न अपनाना और काम में महिलाओं की कम भागीदारी जैसे कारक जिम्मेदार हैं। इन दोनों के लिए समाज के मुल्ला मौलवी जिम्मेदार हैं। चाहे जितना आरक्षण देकर भी इस समस्या को हल नहीं किया जा सकता। इसका समाधान यह है कि समाज को कट्टरतावादी मुल्लाओं के शिकंजे से निकाला जाए। समान नागरिक संहिता लागू की जानी चाहिए। इसके अलावा सरकार कुछ सकारात्मक कदम उठाए।
मुस्लिम और इसाई दलितों को अनुसूचित जाति मानने में आने वाली दिक्कतों का जिक्र करते हुए आशा दास ने कहा कि मुस्लिम और इसाई दोनों धर्म बाहर से आक्रमणकारियों, व्यापारियों और मिशनरियों या धर्मप्रचारकों के जरिए आए और पिछले सैकड़ों वर्ष के दौरान स्थानीय लोगों के धर्मांतरित होने से मजबूत बने। इसलिए यह अनुमान लगाना कठिन है कि भारत की मौजूदा आबादी में से कौन लोग हमलावरों, व्यापारियों और धर्म प्रचारकों की संतानें हैं और कौन धर्मांतरित दलितों की। इस बारे में प्रामाणिक दस्तावेजों के अभाव में उन मुस्लिमों और इसाईयों की शिनाख्त मुश्किल होगी जो वास्तव में अनुसूचित जाति मूल के हैं। उनकी एक दलील यह भी है कि इस्लाम और इसाई धर्म कबूल करने वाले दलितों को अनुसूचित जाति का दर्जा देने का मतलब है इन धर्मों में औपचारिक रूप से जाति व्यवस्था को आरोपित करना और इन धर्मों के बुनियादी सिद्धांतों को बदलना जो संसद और न्यायपालिका दोनों के अधिकार क्षेत्र से बाहर है। (जनसत्ता)

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