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Monday 2 December 2019 01:20:46 PM
लखनऊ। लखनऊ विश्वविद्यालय के हिंदी तथा आधुनिक भारतीय भाषा विभाग और उत्तर प्रदेश जैन विद्या शोध संस्थान लखनऊ के संयुक्त तत्वावधान में 'जैन साहित्य का हिंदी भक्तिकाल पर प्रभाव' विषय पर डॉ राधाकमल मुखर्जी सभागार में राष्ट्रीय संगोष्ठी हुई। भारतीय हिंदी परिषद प्रयागराज के सभापति प्रोफेसर सूर्यप्रसाद दीक्षित, उत्तर प्रदेश जैन विद्या शोध संस्थान लखनऊ के उपाध्यक्ष प्रोफेसर एके जैन, प्रोफेसर पवन अग्रवाल, राष्ट्रीय संगोष्ठी के संयोजक डॉ योगेश जैन और हिंदी विभाग लखनऊ विवि के अध्यक्ष प्रोफेसर योगेंद्र प्रताप सिंह ने माँ सरस्वती की प्रतिमा पर माल्यार्पण एवं दीप प्रज्ज्वलित करके संगोष्ठी का शुभारम्भ किया। इसके पश्चात डॉ कामिनी ने माँ सरस्वती की वंदना प्रस्तुत की।
संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र को संबोधित करते हुए प्रोफेसर योगेंद्र प्रताप सिंह ने कहा कि जैन धर्म हमें नैतिकता का पाठ पढ़ाता है और नैतिकता के माध्यम से ही मनुष्य को ईमानदार एवं कर्तव्यनिष्ठ बनाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि जैन साहित्य से ही हमें हिंदी भक्तिकाल से प्रेरित होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। डॉ योगेश जैन ने जैन धर्म को साहित्य की आत्मा कहा और बताया कि जैन लेखकों ने प्राचीनकाल में अनेक स्रोत लिखे। उन्होंने कहा कि जैन धर्म में भक्ति का माध्यम दास्य भाव का नहीं रहा, जो तुलसीदास ने दास्य भाव के माध्यम से भक्तिकाल को स्वर्ण युग बनाया, वह जैन परम्परा में नहीं रहा, इस परम्परा में मनुष्य के गुणों को आधार मानकर उस गुणयुक्त व्यक्ति को ही पूज्य माना गया है। उन्होंने कहा कि बनारसीदास जैन जैसे लेखकों ने लोगों के हित के लिए स्वयं की रचना को गोमती में प्रवाहित कर दिया, उनका मानना था कि ऐसा साहित्य किस काम का है जिससे समाज में रहने वाले लोगों का हित न हो, ऐसी रचना जिसका कोई सामाजिक प्रदेय न हो वह रचना किसी काम की नहीं। डॉ योगेश जैन ने कहा कि भारतीय संस्कृति की जुड़वा बहनें वेद और जैन हैं।
प्रोफेसर सूर्यप्रसाद दीक्षित ने कहा कि जैन धर्म से प्रभावित भक्तिकाव्य समावेशी काव्य आंदोलन था, जैन धर्म के 24 में से 22 तीर्थंकर विष्णु के अवतार माने गए हैं, इसमें बौद्ध के साथ-साथ इसका प्रभाव भक्ति कवियों पर पड़ा। जैन तीर्थंकरों का अहिंसा परमो धर्म: में अरिहंत ने कहा कि इंद्रियों पर विनय प्राप्त करना ही जैन धर्म का प्रमुख कर्तव्य है, जैन साहित्यकारों ने सत्य को अधिक बल दिया है। प्रोफेसर अभय कुमार जैन ने बताया कि जैन साहित्य में जैन वाणी को उस काल में 718 भाषाओं में गूंथा गया था, जैन दर्शन को मुख्य रूपसे तीन कालों में बांटा गया था, जिसमें पूर्वकाल में स्वयंभू को जैन परम्परा के अंतर्गत प्रथम कवि के रूपमें स्वीकार किया गया है। उन्होंने कहा कि जैन साहित्य में मुख्य रूपसे शांत रस की प्रधानता है। डॉ रामकिशोर शर्मा ने संगोष्ठी के समापन सत्र में जैन साहित्य में नारी विषयक दृष्टि पर विचार रखे और जैन साहित्य से भक्तिकाल तक आने वाले परिवर्तनों की विस्तृत व्याख्या की। उन्होंने बताया कि वैराग्य का अर्थ अनासक्त होना है और भवसागर को पार करने की जो कला सिखाए वही तीर्थंकर है।
डॉ सभापति मिश्र ने जैन कवियों और उनकी कविताओं का क्रमानुसार चर्चा करते हुए उनके भक्तिकाल पर पड़ने वाले प्रभाव की चर्चा की। उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश की भूमि जैन धर्म के प्रचार एवं प्रसार का केंद्र है, जैसे अयोध्या में ही पांच तीर्थंकरों ने जन्म लिया और जैन साहित्य तथा भक्तिकाव्य एक-दूसरे के परस्पर पूरक हैं। कोचीन से पधारीं प्रोफेसर एनजी देवकी ने कहा कि सातवाहन कृत गाथा सप्तशती जैन प्राकृत की पहली रचना है और कृष्णकाव्य को केंद्र में रखकर उन्होंने अपने विचार रखे। नागपुर से पधारे प्रोफेसर एमएम कडू ने बताया कि जैन आचार्यों ने हिंसा को अहिंसा में परिवर्तित करने के लिए कार्य किया। संगोष्ठी में प्रोफेसर कैलाश देवी सिंह, डॉ बलजीत श्रीवास्तव, डॉ भरत सिंह, डॉ शशांक मिश्र, डॉ शक्ति द्विवेदी, डॉ पुष्पा द्विवेदी, डॉ पंकज सिंह, विश्वविद्यालय एवं महाविद्यालय के विद्वतजन और शोधार्थी उपस्थित थे।