दिनेश शर्मा
नई दिल्ली। उत्तर भारत से विमुख होते हुए दक्षिण की ओर रूख कर रही भाजपा के नए अध्यक्ष नितिन गडकरी का इंदौर एजेंडा उनके दस फीसदी वोटों का इजाफा ऐसे कर पाएगा? अयोध्या में राम मंदिर का भव्य निर्माण और उसके पास कहीं खाली जगह पर मस्जिद की तामीर से भाजपा को मोक्ष मिल जाएगा? अपने ही देश में सांप्रदायिक कहलाए जा रहे राष्ट्रवादियों को भाजपा की मुख्यधारा में ऐसे ही लाएंगे? खुद कॉडर भाजपाई ही कह रहे हैं कि भाजपा की धंसती जमीन और उसकी आंतरिक कलह पर खड़े ये वो सवाल हैं जिनका उत्तर केवल कुशाभाऊ ठाकरे नगर इंदौर में सपने देखने से ही प्राप्त नहीं किया जा सकता। अपने ज़मीनी कार्यकर्ताओं की उपेक्षा और उन्हें लगातार बेइज्जत करती आ रही भाजपा का इसीलिए कॉडर दरक रहा है। वह देश की आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था, मंहगाई, प्रशासनिक अराजकता, गैर भाजपा दलों की तुष्टिकरण की राजनीति और देश के खिलाफ सक्रिय बाहरी और विघटनकारी शक्तियों को अपने राष्ट्रवाद के सिद्धांत से जवाब देने में विफल हो रही है। भाजपा अध्यक्ष की कुर्सी पर जो भी आते जा रहे हैं वे अपने प्रांत विधानसभा या लोकसभा क्षेत्र से या जिले से बाहर निकल ही नहीं पा रहे हैं।
संगठनात्मक और राष्ट्रीय स्तर पर सरकार चलाने में विफल रही भाजपा ने प्रबुद्ध वर्ग से लेकर अछूत कहे जाने वाले निचले वर्ग तक का शुरूआती दौर में भरपूर लाभ तो उठाया है मगर एक समय बाद वह उनके भाजपा से मोह भंग को नहीं रोक सकी है। देश की जनता ने कांग्रेस के बाद राजनीति में सर्वाधिक अनुकूल अवसर भाजपा को ही दिए हैं, लेकिन भाजपा के 'ड्राइंगरूमी लीडरों' ने अपने संगठन और सरकार में वर्चस्व की लड़ाई में कॉडर को धता बताकर देश भर में उसके विस्तार के सुअवसरों को गंवाया है। राष्ट्रवाद की बात करते-करते भाषा और प्रांत की गाली पर उतरने वाले छदम भगवाधारी ये देशभक्त, भारत और उसकी जनता को आज काफी मंहगे पड़ रहे हैं। इनके ओछे भाषणों और जनसामान्य विरोधी लक्ष्यों के कारण हिंदुस्तान के अनेक विश्वप्रसिद्ध आराध्य देवों की दूसरे धर्मों और देशों में मज़ाक और अवहेलना हो रही है। भाजपा के खेवनहार राम का नाम और धाम दोनो ही अछूत हो गए हैं। विघटनकारियों को धर्मनिरपेक्ष और राष्ट्रवादियों को सांप्रदायिक कहा जाने लगा है। केंद्र की यूपीए सरकार का राजनीतिक डर देखिए कि मुसलमानों के लिए हज जाने पर वहां होने वाले खर्च पर सब्सिडी दी जाती है और आध्यात्मिक चेतना और मोक्ष प्राप्ति के लिए हरिद्वार कुंभ जाने वालों के रेल टिकट पर अतिरिक्त सरचार्ज लिया जाता है। इससे यह सच्चाई स्थापित होती है कि भारत में वोट बैंक और तुष्टिकरण की राजनीति चरम पर है और भाजपा सहित अब किसी भी राजनीतिक दल का इससे अलग सोचना नामुमकिन है। आबादी नियंत्रण जैसे देशव्यापी मामले पर सभी के मुंह सिले हुए हैं और किसी भी तरह से राजनीतिक लाभ उठाने की खातिर महिला बिल जैसे मामलों में अपना लाभ ढूंढा जा रहा है। गैर भाजपाई दलों के मुस्लिम वोटों को रिझाने के लिए राजनीतिक एवं सामाजिक एजेंडे जगजाहिर हैं ही। भाजपा के नए अध्यक्ष नितिन गडकरी के सामने पार्टी और देश की ये वो जबरदस्त चुनौतियां हैं, उस पर उनकी भाजपा का दस प्रतिशत वोट बढ़ाने की योजना है। क्या यह योजना सफल हो पाएगी, खासतौर से तब जब भाजपा को लेकर देश में एक निराशा का भाव है?
नितिन गडकरी की भारतीय जनता पार्टी चलाने वाली टीम अपने बनने के शुरूआती दौर में ही घनघोर विवादों से घिर गई है। इस टीम में न केवल कई जनाधार वाले प्रभावशाली कॉडर नेताओं की उपेक्षा की गई है बल्कि युवाओं की राजनीति में भागीदारी का नाटक दिखाकर एक नए विवाद को जन्म दे दिया गया है। नही लगता कि उत्तर भारत के भाजपा के कई कॉडर नेताओं और प्रचंड कार्यकर्ताओं के सामने महाराष्ट्र की टीम खड़ी कर दी गई है? मानो भाजपा का अब यहीं अंतिम पड़ाव हो और गडकरी को अब यहां के बाहर भाजपा नहीं दिखाई पड़ रही हो। भाजपा के सामने उत्तर भारत में बसपा एक बड़ी चुनौती है जिसमें अपर कास्ट के लोग दलित वोटों को जोड़कर अपना राजनीतिक भविष्य खोज रहे हैं। महिला बिल से उत्तेजना के स्वाभाविक कारण भी राजनीतिक पटल पर अफरा तफरी पैदा किए हुए हैं। इस बिल के पारित होने की अवस्था में न जाने कितने भाजपाई दिग्गजों का राजनीतिक सूर्य अस्त हो जाएगा। भाजपा ने महिला बिल का समर्थन करके एक प्रकार से कांग्रेस की ही मदद कर डाली है।
यहसर्वविदित है कि कांग्रेस राहुल गांधी को इसका राजनीतिक लाभ पहुंचाना चाहती है जिनके बारे में कांग्रेस के लीडर प्रशंसात्मक अंदाज में बोलते हैं कि राहुल गांधी महिलाओं और युवाओं में काफी लोकप्रिय हो रहे हैं और उन्हें यकीन है कि महिला बिल के पारित होने के बाद यदि लोकसभा चुनाव करा दिए जाएं और उसी के साथ सच्चर कमेटी की रिपोर्ट भी लागू कर दी जाए तो कांग्रेस को अपने बूते पर बहुमत मिल जाएगा। देश में अकेले सत्ता को आतुर कांग्रेस भी कहीं न कहीं चाहती है कि इसके बाद बिना देरी किए फिर से लोकसभा चुनाव करा दिए जाएं जिसमें महिलाओं और मुसलमानों का वोट उसकी झोली में जाना तय है क्योंकि सच्चर कमेटी मुसलमान वोट कांग्रेस में खीच लाने का बड़ा हथियार बन सकता है। राजीव गांधी के लक्ष्मण रहे राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह के मंडल कमीशन को अचानक लागू करने के उद्देश्य को इतनी जल्दी भूल गए कि उन्होंने ऐसा करके राजनीतिक दलों को किस प्रकार पटकनियां दीं थीं? महिला बिल पर भाजपा क्या कांग्रेस को यह सुखद अवसर प्रदान नहीं कर रही है और क्या भाजपा सोचती है कि महिला बिल का उसे राजनीतिक लाभ मिलेगा? महिला बिल पर कांग्रेस के साथ खड़े होने और भाजपा के उत्तर भारत में कमज़ोर प्रदर्शन और उसके सहयोगी दलों के विघटनकारी क्षेत्रीय और भाषाई एजेंडों के कारण भाजपा के कॉडर में काफी निराशा का वातावरण बना हुआ है। भाजपा नेतृत्व, महाराष्ट्र में शिव सेना और उसकी 'नासकेत' महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के लीडर राज ठाकरे के कर्मों का खामियाजा भुगत ही चुकी है। महाराष्ट्र विधान सभा चुनाव में उसे इन्हीं कारणों से काफी नुकसान भी हुआ है लेकिन उसकी यह मजबूरी हो गई है कि वह शिव सेना से अलग होकर जाए भी तो कहां जाए?
भाजपा के इंदौर अधिवेशन में नितिन गडकरी के भाषण से जो आशाएं निकली थीं वे ज्यादा नहीं टिक सकीं हैं, क्योंकि गडकरी की टीम में कोई कॉडराई और राज्य स्तरीय संतुलन नहीं दिखाई देता है। पूछा जा रहा है कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की एक तरफ प्रशंसा करके उनकी संगठन में उपेक्षा किसलिए की गई है? नरेंद्र मोदी जैसा नेता किसलिए भाजपा के संसदीय बोर्ड में नहीं है और उन्हें बाहर रखने के पीछे क्या उद्देश्य है? हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के विरोधियों को खुली हवा देकर धूमल को नीचा दिखाया गया है? मध्यप्रदेश से दो-दो महासचिव? यह कौन सी रणनीति है? मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान सरकार का प्रदर्शन भी अच्छा माना जाता है। राजस्थान में वसुंधरा राजे सिंधया को लेकर भाजपा में शुरू से नाराज़गी चली ही आ रही है तो उनके प्रति संगठन में ऐसी उदारता का भाव किस लिए है? वे तो राजस्थान में भाजपा की वापसी में पूरी तरह से विफल रही हैं? तेरह महिलाएं संगठन में ली गई हैं क्या यह दिखाने के लिए कि भाजपा महिलाओं को राजनीति में बहुत महत्व दे रही है? आप 33 प्रतिशत भागीदारी वाले महिला बिल के साथ खड़े तो हैं, क्या देश में यह संदेश पर्याप्त नहीं रहा? इससे भाजपा मजबूत होगी या भाजपा शासित राज्यों में भाजपा विरोधी ताकतों को और मजबूत होने का मौका मिलेगा?
भाजपा आखिर किस फार्मूले से युवाओं को जोड़ना चाहती है? और इसके लिए उसके पास क्या एजेंडा है? देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में तिल-तिल कर दम तोड़ रही भाजपा को संकट से बचाने के लिए गडकरी की टीम की क्या योजना है? इंदौर अधिवेशन से अब तक इस पर कोई काम तो होता नज़र नहीं आया है इसलिए गडकरी की बीजेपी में दस प्रतिशत वोट बढ़ाने की योजना पर सवाल उठ रहे हैं। देश के भाजपा शासित राज्यों गुजरात, कर्नाटक, मध्यप्रदेश छत्तीसगढ़ और हिमाचल प्रदेश में वहां की सरकारें, केंद्र सरकार के असहयोग से जूझ रही हैं। ऐसे में संगठनात्मक उथल-पुथल का वहां के दूसरे शक्तिशाली राजनीतिक दल लाभ उठाने में लगे हुए हैं। जहां तक इन राज्यों में सरकार की कार्यप्रणालियों का प्रश्न है तो छिट-पुट आरोपों और आंतरिक प्रतिरोध को छोड़कर कोई बवाल नहीं दिखाई पड़ता है, यह नितिन गडकरी के लिए सबसे बड़े संतोष की बात हो सकती है लेकिन राज्यों के नेतृत्व की उपेक्षा का संदेश भी गडगरी की टीम से निकला है।
देश के महत्वपूर्ण राज्य बिहार में चुनाव होने वाले हैं और भाजपा में यहां का प्रतिनिधित्व न के बराबर है भले ही गडकरी के पास इसकी भरपाई की कोई और बड़ी योजना हो लेकिन 'का वर्षा जब कृषि सुखाने?' गडकरी के सामने बिहार की गठबंधन सरकार की उपलब्धियों से राजनीतिक लाभ उठाने की भी एक चुनौती है। उनके अध्यक्षीय काल में उत्तर भारत में बिहार में पहला राजनीतिक मुकाबला होने जा रहा है जिसमें उन्हें यह सिद्ध करना है कि वे भाजपा को और कितना बढ़ा सकते हैं। परंतु फिलहाल तो संदेश यही निकला है कि गडकरी ने संगठन में बिहार की बहुत उपेक्षा की है। बिहार में नितीश कुमार की गठबंधन सरकार ने बहुत अच्छे कार्य किए हैं और चुनौती यह है कि कांग्रेस राजद और लोक जनशक्ति, राज्य में सत्तारूढ़ जदयू और भाजपा गठबंधन को छिन्न-भिन्न्ा करने में लगी हुई हैं। संगठनात्मक मामलों के विश्लेषण कर्ताओं का अभिमत है कि भाजपा नेतृत्व की थोड़ी भी असावधानी और कॉडर कार्यकर्ताओं की उपेक्षा बिहार में उसको नुकसान पहुंचा सकती है।
कहां है भाजपा कॉडर और अनुशासन?
भारत में केवल दो ही ऐसी राजनैतिक पार्टियां हैं जो कॉडर और वैचारिक धतरातल से चलती हैं। इनमें एक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी है और दूसरी आरएसएस की कार्यप्रणाली से मुख्य रूप से प्रेरित भारतीय जनता पार्टी है। भाकपा और भाजपा कॉडर दोनों के ही अलग-अलग सिद्धांत और विचार हैं लेकिन कॉडर आधारित राजनीति समान है। दोनों पार्टियों का एक मजबूत कॉडर माना जाता है जिनमें संगठन की ज्यादा चलती है और सरकार की कम। भाकपा कॉडर में किसी आयातित नेता की नियुक्ति के मामले में कोई समझौता नहीं है। ऐसा कभी भाजपा में भी रहा है। दोनों पार्टियों के कार्यकर्ताओं को जातिगत स्तर पर नहीं बल्कि वैचारिक स्तर पर प्रशिक्षित किया जाता है और आगे बढ़ाया जाता है। यही कारण है कि दोनों पार्टियों में सभी जाति के लोग हैं और वे विचारधारा को आगे बढ़ाते हुए कड़े अनुशासन में रहते आए हैं। कहने का आशय ये है कि भाजपा ने अपने कॉडर के अनुशासन और संगठन की सर्वोच्च्ा प्राथमिकता से समझौता करना शुरू कर दिया है।
जबकि भाकपा ने विभिन्न्ा उतार-चढ़ाव के बावजूद अपने कॉडर की कार्यप्रणाली, विचारधारा और कड़े अनुशासन को बनाए रखा हुआ है जिस कारण पश्चिम बंगाल में वामदल की सरकार को अभी तक कोई हिला नहीं पाया है भले ही वहां तृणमूल कांग्रेस की नेता और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बनने का सपना संजोए ममता बनर्जी वामदलों के लिए बड़ी चुनौती बनी हों। अपवाद को छोड़कर कभी नहीं सुना गया कि भाकपा के कॉडर कार्यकर्ता या नेता ने नाराज़ होकर या राजनीतिक अवसर न मिलने पर अपनी पार्टी को छोड़कर दूसरी पार्टी की सदस्यता ले ली हो या अपनी पार्टी बना ली हो या चुनाव में अपनी पार्टी को हराने में लग गया हो। लेकिन जो भाजपा संगठन को ही सर्वोच्च मानकर, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कड़े अनुशासित कॉडर और राष्ट्रवाद के सिद्धांत से चलती है उसमें संगठन की उपेक्षा के फलस्वरूप पतन के लक्षण दिख रहे हैं। भाजपा में कॉडर कार्यकर्ताओं को उनकी वरिष्ठता और लोकप्रिय कार्यप्रणाली के अनुसार जिम्मेदारियां सौंपने की परंपरा रही है। संगठनात्मक स्तर पर नीचे से ऊपर तक इसी सिद्धांत का अनुपालन होता आया है लेकिन इस दशक में भाजपा, भाकपा की तरह अनुशासित कॉडर के सिद्धांत और कार्यकर्ताओं को संगठनात्मक जिम्मेदारी सौंपने की परंपरानुगत कार्यप्रणाली को अक्षुण नहीं रख पाई है। इस विशेषता में वह भाकपा से काफी पिछड़ गई है।
उदाहरण के तौर पर भाकपा के वरिष्ठ नेता और लोकसभा अध्यक्ष रहे सोमनाथ चटर्जी, परमाणु डील के मामले में अपनी पार्टी लाइन से अलग चलने के कारण भाकपा से निकाल दिए गए। अपनी पार्टी की इस कार्रवाई से सोमनाथ चटर्जी तिलमिलाए तो जरूर लेकिन किसी दूसरी पार्टी में शामिल नहीं हुए और न उन्होंने अपनी कोई पार्टी बनाई या बंगाल के चुनाव में भाकपा को हराने के लिए कोई काम किया। भाकपा में वह एक कॉडर पार्टी का सैद्धांतिक फैसला था और यहां भाकपा के एक कॉडर नेता का वैचारिक और कॉडर अनुशासन था। सोमनाथ चटर्जी अपनी पार्टी में एक कॉडर कार्यकर्ता के रूप में प्रगति करते हुए ही पोलित ब्यूरो तक पहुंचे और उसके कॉडर के प्रति वैचारिक प्रतिबद्धता और अनुशासन पर कायम रहे।
लेकिन भाजपा के अनेक नेता पार्टी या सरकार में अपने या अपनों के लिए अवसर न मिलने से नाराज़ होकर या अनुशासनहीनता के कारण पार्टी से निकाले जाने या निकल जाने पर पार्टी के योगदान को भी ताक पर रखकर न केवल दूसरे दलों में चले गए या अपनी पार्टी बना ली अपितु भाजपा को नेस्तनाबूद करने की कसम खाकर उसके खिलाफ चुनाव भी लड़ा और लड़ाया। जैसे उत्तर प्रदेश में प्रमुख रूप से भाजपा के प्रचंड नेता और राज्य के मुख्यमंत्री रहे कल्याण सिंह ने किया। गुजरात में पूर्व मुख्यमंत्री शंकर सिंह बघेला और केशूभाई पटेल ने किया, दिल्ली में संघ और भाजपा के हाथ, नाक, कान कहे जाने वाले मदन लाल खुराना, राजस्थान में जसंवत सिंह, मध्यप्रदेश में उमा भारती और गोविंदाचार्य और इन जैसे और भी कई नेताओं ने भाजपा से निकाले जाने या अलग होने के बाद अपनी अलग पार्टी बना ली या भाजपा को ही ठिकाने लगाने निकल पड़े। ये अलग बात है कि कॉडर से बाहर जाते ही कई नेताओं का राजनीतिक प्रभाव छिन्न-भिन्न हो गया।
इससे भाजपा का यह दावा खत्म हो गया है कि वह एक अनुशासित और कॉडर आधारित पार्टी अभी भी है। भाजपा संगठन में कभी कॉडर कार्यकर्ताओं को ही पद दिए जाते रहे हैं, आयातित नेताओं को नहीं। उन्हें राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए भाजपा में टिकट जरूर दिए गए और सरकार में शामिल भी किया गया, मगर उनकी संगठन में कोई भूमिका नहीं रखी गई। भाजपा के नए अध्यक्ष नितिन गडकरी तो संघ के शीर्ष स्तर से आए हैं मगर उन्होंने भाजपा अध्यक्ष बनते ही भाजपा की कई परंपराओं को झटका दे दिया है। उनकी जो भी राजनीतिक रणनीति हो लेकिन भाजपा कॉडर में फिल्म अभिनेत्री हेमा मालिनी, टीवी कलाकार स्मृति ईरानी, किरन खेर और शायना की संगठन में तैनाती को अंदरूनी तौर पर सहजभाव से मंजूर नहीं किया जा रहा है। यह अलग बात है कि इन नेताओं का भाजपा के प्रति अनुराग है और भाजपा के राष्ट्रवाद के सिद्धांत में निष्ठा है लेकिन वे भाजपा की कॉडर नेता या कार्यकर्ता नहीं मानी जाती हैं। इसी प्रकार वरूण गांधी फायर ब्रांड लीडर हो सकते हैं लेकिन भाजपा कॉडर में स्वीकार नहीं हो रहे हैं जैसा कि उन्हें भाजपा का राष्ट्रीय सचिव बनाया गया है। नितिन गडकरी के इन संगठनात्मक फैसलों पर संगठन में संशयात्मक प्रतिक्रियाएं हो रही हैं और आक्रोश के रूप में बाहर भी आ रहीं हैं। कहा जा रहा है कि जब गडकरी भाजपा में अनुशासन और राष्ट्रवाद की बात कर रहे हैं तो उन्होंने आयातित लोगों को संगठन में प्रमुख स्थान देकर एक ऐसे विवाद को जन्म दे दिया है जिसका आगे चलकर सामना और समाधान और भी ज्यादा मुशकिल हो जाएगा।
भारत में राष्ट्रवाद की भावना रखने वालों ने अपनी भावनाओं के पोषण की कल्पना भाजपा में की थी। शुरूआती दौर में तो सब ठीक चला लेकिन सत्ता का सुख भोगते हुए भाजपा दो खेमों में बंट गई। इनमें एक तबका सत्ता में रहकर खुद को ईमानदार साबित करने और अपना घर भरकर दूसरों को बेईमान समझने में लग गया और दूसरा संगठन में पड़े रहकर लगातार उपेक्षा का शिकार होकर सत्ता एवं पद लौलुप नेताओं के खिलाफ खड़ा हो गया। स्थानीय प्रशासन ने भी उसको सम्मान नहीं दिया या मुंह देखकर या आयातित चाटुकार नेताओं को महत्व दिया। इसमें भाजपा के कॉडर कार्यकर्ताओं की भारी उपेक्षा हुई। इससे भाजपा अनुशासनहीनता और निष्ठा परिवर्तन की ओर चल पड़ी। ऐसे ही कारणों से भाजपा अधिकांश राज्यों में अपनी सरकारें नहीं बचा सकीं और केंद्र में भी हाथ आए अवसर को झूठे फीलगुड की रौ में गंवा दिया। यही गलती आज भी जारी है। इससे वह समूह भारी निराश है जो राष्ट्रवाद के पोषण के सपनों को पूरा होते देखने की आशा से भाजपा से जुड़ा था। वह अब शांत है और भाजपा नेताओं की कार्यप्रणाली पर भरोसा नहीं कर रहा है। नितिन गडकरी इस चुनौती को स्वीकार कर उसका सामना करने की स्थिति में हैं? इसीलिए उनकी दस प्रतिशत वोट बढ़ाने की योजना की सफलता पर किसी को भी यकीन नहीं हो रहा है।