लिमटी खरे
नई दिल्ली। भोपाल में 1984 में हृदय विदारक भीषणतम औद्योगिक त्रासदी के फैसले के 26 साल बाद फिर इससे संबंधित नित नए खुलासे इस प्रकार हो रहे हैं कि मानो एकता कपूर के टीवी सीरियल हों जिनमें एक के बाद एक एपीसोड बढ़ते ही जाते हैं। ऐसा लगता है कि इस मामले में और भी भेद खुलते जाएंगे और उन पर राजनीतिक हमलों की श्रृंखला शुरू हो जाएगी। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और बीसवीं सदी के अंतिम दशकों के कांग्रेस की राजनीति के चाणक्य रहे कुंवर अर्जुन सिंह को अदालती फैसले के बाद फिर से शक के दायरे में ला दिया गया है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह मीडिया के सामने आने पर मजबूर हो गए हैं, निरुत्तर हैं। इस मामले पर बोलने और इससे जुड़े रहस्यों से पर्दा उठाने के लिए अगर किसी के पास सच है तो वह हैं सोनिया गांधी जिन्होंने चुप्पी मारकर यह भी साबित कर दिया है कि वे इस मामले को और आगे बढ़ता नहीं देखना चाहतीं क्योंकि इसकी अलार्म सूईं बार-बार प्रधानमंत्री कार्यालय की ओर घूमती दिखती है।
कांग्रेस पर लगे आरोपों के मामले में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जिस प्रकार गोल-मोल जवाब दे रहे हैं, उसे समझ सभी रहे हैं और कांग्रेस भी रक्षात्मक मुद्रा में है। कहीं न कहीं डर है कि राजनैतिक बियावान में ढकेल दिए गए कुंवर अर्जुन सिंह ने अगर मुंह खोला तो यह कांग्रेस और उसकी सरकार के लिए भारी मुश्किलों भरा समय होगा और यह भी हो सकता है कि दो तीन दशकों तक कांग्रेस का फिर वैसा ही हाल हो जैसा इससे पहले तक हुआ है। दिल्ली में कल तक सूने पड़े दिख रहे अर्जुन सिंह के सरकारी आवास में लाल बत्ती और सायरन की आवाजें इस बात का संकेत हैं कि भोपाल गैस कांड के फैसले से उनकी अहमियत एकदम से बढ़ चुकी है।
भोपाल के तत्कालीन जिलाधिकारी मोती सिंह ने अपने ऊपर इस मामले की बुरी छाया आते देख एक तीर छोड़ दिया है। यह खुलासा करके कि उन्होंने तत्कालीन मुख्य सचिव के दबाव में यूनियन कार्बाईड के प्रमुख वारेन एंडरसन को छोड़ा था यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि जब उन्होंने मुख्य सचिव के कहने पर एंडरसन को छोड़ा है तो मुख्य सचिव पर भी कोई मामूली स्तर से दबाव नहीं होगा। जाहिर सी बात है कि राज्य के मुख्य सचिव पर एंडरसन को छोड़ने के लिए कहां से संदेश आया होगा। फिलहाल यह मुद्दा ज़ोर से उछल रहा है कि बीस हज़ार लोगों के हत्यारे को किसने छुड़वाया और उसे रातों-रात अमेरिका जाने दिया। अगर यह बात राजनीतिक रूप से प्रकट और स्थापित हो जाती है तो इससे सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस को हो सकता है। यह तो सत्य है कि देश को भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी ही 'हांक' रहे हैं। यहां पर एक आईएस अधिकारी की विफलता का भी खुलासा होता है और वह यह कि क्या जिलाधिकारी ने तब 'ऊपरी दबाव' को लिखा पढ़ी में लिया था, अगर नहीं तो एंडरसन को भोपाल से भगाने का पहला आपराधिक कृत्य तो मोती सिंह ने किया। मोती सिंह पर आपराधिक मामला दायर किया जाए तब फिर इस मामले में रहस्यों की फाइले सबके सामने होंगीं। उस वक्त मोती सिंह और एक के बाद एक सभी दोषी नग्नावस्था में दिखाई देंगे।
छब्बीस साल का समय कम नहीं होता। अमूमन छब्बीस साल में एक युवा दो बच्चों का बाप बन चुका होता है, पर इन उमरदराज लोगों का साहस देखिए कि उन्होंने इस मामलें में छब्बीस साल तक मौन साधे रखा। आखिर क्या वजह थी कि छब्बीस साल तक ये सारे राजदार अपने अंदर अपराध बोध को पालते रहे? राजधानी भोपाल के हनुमान गंज क्षेत्र में आता है यूनियन कार्बाईड। उस थाने के तत्कालीन थाना प्रभारी सुरेंद्र सिंह की आत्मा भी अभी ही जागी है। उन्होंने छब्बीस साल बाद यह बताने की ज़हमत उठाई है कि 'उन्होंने भी ऊपरी दबाव' के चलते ही मामले की धाराएं बदलीं थीं। रात में उन्हें यूनियन कार्बाईड के प्रंबंधन के खिलाफ धारा '304 ए' के तहत मामला पंजीबद्ध किया था, पर सुबह लाशों के ढेर देखने के बाद उन्होंने जब प्रबंधन के खिलाफ गैर इरादतन हत्या का मामला दर्ज करना चाहा तो फिर 'ऊपरी दबाव' का जिन्न सामने आया और उनके हाथ बंध गए।
जो खबरें मीडिया में आ रही हैं, उसके अनुसार तत्कालीन विदेश सचिव महाराज कृष्ण रसगोत्रा की तरफ भी शक की सुईं गई है। कहा जा रहा है कि रसगोत्रा ने एंडरसन को गैस कांड के उपरांत भोपाल यात्रा के दरम्यान पुलिस सुरक्षा और रिहाई तक सुनिश्चित कराई थी। अमेरिकी दूतावास के तत्कालीन उप प्रमुख गार्डन स्ट्रीब के खुलासे से भारत गणराज्य का प्रधानमंत्री कार्यालय और विदेश मंत्रालय दोनों ही शक के घेरे में आ गए हैं। पूर्व अमेरिकी राजनयिक गार्डन स्ट्रीब का कहना है कि वारेन एंडरसन के मामले में भारत सरकार ने अमेरिका की इस शर्त को मान लिया था कि एंडरसन को भोपाल ले जाया जाए, किन्तु उसे सुरक्षित वापस पहुंचाया जाए। इसके बाद जो भी हुआ, एंडरसन ने राजकीय अतिथि का अघोषित दर्जा पाकर तत्कालीन पुलिस अधीक्षक स्वराज पुरी को अपना सारथी बनाया। सरकारी वाहन में कंडक्टर की जगह तत्कालीन जिलाधिकारी मोती सिंह बैठे थे। मध्य प्रदेश सरकार का उड़न खटोला उनके स्वागत में स्टेट हेंगर पर उनका इंतजार कर रहा था। कैप्टन अली ने उनके आते ही उनका अभिवादन किया और उन्हें ससम्मान दिल्ली पहुंचा दिया। एक टीवी चैनल के फुटेज में साफ दिखाई पड़ रहा है जिसमें वारेन एंडरसन यह कह रहा है कि अमेरिका का कानून है, वह घर जाने के लिए स्वतंत्र है।
भारत के जनसेवक अपनी जवाबदारी भूल चुके हैं, यह बात पूरी तरह स्थापित हो चुकी है। अब किस पर भरोसा किया जाए? क्या न्यायालय स्वयं ही इस मामले में संज्ञान लेकर इन सभी से यह पूछ सकता है कि छब्बीस साल तक सभी गोपनीय राजों को अपने सीने में दफन करने वालों की नींद अब क्यों टूटी है और उन्होंने किसके दबाव में अपने कर्तव्यों से मुंह मोड़ा था? तो क्यों न उनसे छब्बीस साल का वेतन, भत्ते और वे सारे सत्व जो उन्होंने इन छब्बीस सालों में लिए हैं, उनसे वापस ले लिए जाएं? वह पैसा आखिर जनता के गाढ़े पसीने की कमाई का ही था, अगर वे सेवानिवृत हो चुके हैं तो इन सभी की पेंशन तत्काल प्रभाव से रोक देनी चाहिए। कोई भी सरकारी नुमाईंदा क्या दबाव में नौकरी करता है? सत्तर के दशक के पहले तो लोग भ्रष्टाचार करने से घबराते थे, इसे सामाजिक बुराई की संज्ञा दी जाती थी। क्या हो गया है कांग्रेस को? आधी सदी से ज्यादा समय तक देश पर राज करने वाली कांग्रेस का चेहरा इतना भयानक है कि सच्चाई सामने आते ही लोग इससे घृणा करने लगेंगे। आरोप है कि कांग्रेस ने दुनिया के चौधरी अमेरिका से निजी तौर पर 'मुआवजा' लेकर देश को अंग्रेजों के हाथों बेच दिया था? कांग्रेस को इसका जवाब देना चाहिए। सोनिया गांधी को भी अपना मौन तोड़ना ही होगा, वरना उनकी चुप्पी राजीव गांधी पर लगने वाले आरोपों की मौन स्वीकारोक्ति ही समझी जाएगी।