Wednesday 11 January 2023 01:04:29 PM
दिनेश शर्मा
नई दिल्ली/ लखनऊ। कांग्रेस के प्रचंड हिंदूवादी राजनेता संजय गांधी के उन्हीं की तरह प्रचंड पुत्र और भारतीय जनता पार्टी से अपना शानदार राजनीतिक कैरियर स्थापित कर राष्ट्रीय चेहरा बने वरुण गांधी आजकल नरेंद्र मोदी सरकार और भाजपा नेतृत्व पर हमलावर हैं। वे मीडिया का खिलौना बने हैं, चर्चाओं में हैंकि वे काफी समय से भाजपा में उपेक्षित हैं, भाजपा से नाराज हैं और लोकसभा चुनाव के पूर्वही किसी दूसरे राजनीतिक दल में जा सकते हैं। कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी और राहुल गांधी की अपने इस सगे चचेरे भाई वरुण गांधी केप्रति सहानुभूति प्रकट होने केबाद राजनीतिक गलियारों में सुना जा रहा हैकि वे कांग्रेस में लिए जा सकते हैं या सपा या फिर तृणमूल कांग्रेस में भी जा सकते हैं। नरेंद्र मोदी सरकार के फैसलों नीतियों और भाजपा की राजनीतिक मंच से अनवरत कड़ी आलोचना करने केबाद यह तो लगभग निश्चित हैकि ऐसी स्थिति में भाजपा में उनका बने रहना या भाजपा नेतृत्व में उनकी स्वीकार्यता का समय समाप्त हो चला है, इसलिए वरुण गांधी को न केवल अपना राजनीति कैरियर बचाने केलिए अपितु मां मेनका गांधी केलिए भी किसी और राजनीतिक दल में जाना होगा। यद्यपि मेनका गांधी कुछ बोल नहीं रही हैं, तथापि वरुण गांधी के राजनीतिक हालात अत्यंत विषम हैं, जिनमें उनके सामने एक तरफ कुआं है और दूसरी तरफ खाई है।
एक थे कल्याण सिंह और एक हैं वरुण गांधी! जी हां, वास्तव में इसी कहानी केसाथ कांग्रेस और सपा की राजनीतिक गुगली में फंस गए हैं प्रचंड हिंदू राजनेता वरुण गांधी, जिससे उनका और उनकी मां मेनका गांधी का भी राजनीतिक कैरियर दांव पर लग चुका है। एक बड़ा प्रश्न हैकि वरुण गांधी का मोदी सरकार और भाजपा के खिलाफ यह अनवरत अभियान किसके भरम पर है? या उच्च महत्वाकांक्षा, उग्र भाषाशैली और सामान्य वार्तालाप में भी अपना आपा खोकर सामनेवाले की बेइज्जती करदेने केलिए विख्यात वरुण गांधी आखिर खुद ही के कारण इस अंजाम तक पहुंच गए हैं? भाजपा से निकलकर अपने दमपर खुदका राजनीतिक दल बनाने की तो उनमें कोई क्षमता दिखाई नहीं देती है। दूसरी बात वरुण गांधी केलिए कांग्रेस या किसी और राजनीतिक दल में जाने का मतलब भी साफ हैकि अपने स्वभाव के विपरीत किसी और जेबी दल की दासता स्वीकार कर लेना और कम सेकम संजय गांधी जनित स्वाभाविक तेवरों की पहचान का परित्याग करना वरुण गांधी केलिए क्या संभव हो सकेगा? हिंदूवादी तेवरों और भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की नज़दीकियों ने ही उन्हें लोकप्रियता एवं राष्ट्रीय चेहरे का शानदार उत्तरदान दिया है, मगर अख़बारों में मोदी सरकार विरोधी कॉलम लिखने और स्वच्छंद बयानबाज़ियों से वरुण गांधी की राजनीतिक स्थिति ऐसी बन चुकी हैकि उनके सामने एक तरफ कुआं है और दूसरी तरफ खाई है। कुछ जानकारों का यहभी कहना हैकि वरुण गांधी कांग्रेस में या कहीं और भी चल पाएंगे, इसमें बड़ा संशय है, इसलिए उन्हें जो हुआ सो हुआ, भाजपा नेतृत्व से अपना मसला सुलझाकर अपने और मां के राजनीतिक कैरियर को बचाना चाहिए। उन्हें उकसाई हुई राजनीति छोड़कर सोचना चाहिए कि कांग्रेस भलेही उनके सगे परिवार की हो, तथापि राजनीति में कोई किसी का भाई-बहन, माई-बाप मित्र नहीं होता है, वरुण गांधी को भाजपा में रहकर बुद्धिमता से विपरीत स्थितियां संभाल लेनी चाहिएं, जिसका अभीभी समय है।
वरुण गांधी का किसी दूसरे दल में जानेसे जो हस्र होना है, वो सर्वाधिक चर्चा में है, जिसे वो समझ नहीं रहे हैं, जबकि उनकी भांति भ्रम और राजनीतिक महत्वाकांक्षा के कई दुष्परिणाम सामने हैं, जिनका उत्तर प्रदेश से एक बड़ा उदाहरण उनके सामने है। भाजपा के प्रचंड राजनेता कल्याण सिंह अपने राजनीतिक महत्व से अभिभूत होकर इतनी बड़ी गलतफहमी का शिकार हुएकि उन्होंने भाजपा नेतृत्व से टकराकर यह धमकी देते हुएकि भाजपा की जड़ों में मट्ठा डालकर उसको खत्मकर दूंगा, भाजपा छोड़ी थी। उन्होंने बड़े जोर-शोर से भाजपा के सामने अपनी राष्ट्रीय क्रांति पार्टी बनाई, मगर उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में वे केवल अलीगढ़ की अपनी अतरौली विधानसभा सीट ही जीत पाए। इससे भाजपा तो खत्म नहीं हुई, मगर भाजपा से अलग होकर उसके खिलाफ अपनी राजनीतिक पार्टी बनाने का उनका अभियान पूरी तरह विफल हो गया। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे और एक समय भाजपा के शीर्ष राष्ट्रीय नेताओं की कतार में पहुंच गए और यहां तककि भाजपा में प्रधानमंत्री मैटिरियल तक कहलाने लगे कल्याण सिंह के समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव के सामने आत्मसमर्पण कर देने से उनके बाकी तेवर तेवर भी धरे के धरे रह गए। मुलायम सिंह यादव ने उन्हें सपा में लेतो लिया, लेकिन इस फैसले से मुलायम सिंह यादव से मुसलमान नाराज हो गए, जिससे घबराकर वे तुरंत कल्याण सिंह से अलग हो गए और भाजपा से बाहर उन्हें अपनी हैसियत पता चल गई। कल्याण सिंह और उनके पुत्र राजवीर सिंह के राजनीतिक कैरियर पर ग्रहण लग गया और कल्याण सिंह अवसाद में चले गए। अंतत: वे भाजपा नेतृत्व के पैरों पर गिर गए, मनुहार की और अपने किए की माफी मांगी, जिसके बाद उन्हें भाजपा में वापस लिया गया। भाजपा नेतृत्व ने उदारता प्रकट हुए एक समय बाद उन्हें राज्यपाल भी बना दिया। कल्याण सिंह का यह एक तरह से थूककर चाटना था। वरुण गांधी केलिए कल्याण सिंह का उदाहरण एक बड़ी शिक्षा और चेतावनी भी है।
यह सच हैकि कल्याण सिंह, राजनाथ सिंह की उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूपमें बड़ी विफलता केबाद जब भारतीय जनता पार्टी को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री केलिए कोई डायनमिक चेहरा नहीं मिल रहा था, तब वरुण गांधी को भी प्रयोग के तौरपर ही संकेत दिया गया थाकि वे तैयारी करें। वरूण गांधी को भाजपा का महासचिव, स्टार प्रचारक, यहांतक कि पश्चिम बंगाल का प्रभारी भी बनाया गया, मेनका गांधी का भी महत्व बढ़ाकर उन्हें न केवल मंत्री अपितु भाजपा की राष्ट्रीय कार्यसमिति का भी सदस्य बनाया गया, लेकिन वरुण गांधी आपे से बाहर हो गए, उन्होंने भाजपा के नेताओं को शिक्षा देनी शुरू करदी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह की आंखों का तारा बने वरुण गांधी ने इलाहाबाद में भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अधिवेशन में रोड शो और शक्ति प्रदर्शन करके अपना सारा खेल बिगाड़ लिया। वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अमित शाह और भाजपा हाईकमान की नज़रों से गिर गए और अपना विश्वास पुर्नस्थापित नहीं कर पाए। उन्होंने भाजपा से जो पाया था, वह सब गंवा दिया। मां मेनका गांधी की राजनीति भी किनारे लग गई। दरअसल वरुण गांधी को एक ऐसे सिंडिकेट ने घेरा हुआ है जो उनको उनकी भाजपा में उपेक्षा का तेज़ नशा देकर उन्हें नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ ही उकसाता भड़काता आ रहा है और वे ज़हर उगलते जा रहे हैं। वरुण गांधी के जो वास्तविक शुभचिंतक थे, वेभी वरुण गांधी का एकमात्र नरेंद्र मोदी विरोधी एजेंडा समझकर उनसे दूर हो गए हैं। वरुण गांधी उस बीजेपी का नुकसान करने की बड़ी गलतफहमी का शिकार हुए हैं, जिसका जनाधार इतना व्यापक हो चुका हैकि वरुण गांधी से भी कहीं ज्यादा भाजपा के कई दिग्गज हांसिये पर हैं और वे भाजपा का कुछ भी नहीं बिगाड़ पाए हैं। कांग्रेस निपट गई है। भाजपा से बाहर उनकी पहली मुश्किल यही होगी कि उन्हें भाजपा की तरह राजनीतिक दुलार करने वाला नहीं मिलेगा।
संजय गांधी की ही तरह वरुण गांधी के भी खून में हिंदुत्व है और यह भी सच हैकि एक आकर्षक राजनैतिक व्यक्तित्व के मामले में राजीव गांधी परिवार में भी वरुण गांधी के सामने कोई नहीं टिकता। राहुल गांधी में वरुण गांधी जैसी कोई योग्यता और व्यक्तित्व नज़र नहीं आता। भारत में इस समय जो राजनीतिक परिदृश्य है, उसमें भाजपा को छोड़कर कांग्रेस, सपा या तृणमूल कांग्रेस का वरुण गांधी के हिंदुत्व से कोई भी समझौता संभव नहीं हो सकता। कांग्रेस या सपा यदि उनको ले भी लेती है तो वहां किसी पद का कोई महत्व नहीं है। कांग्रेस में तो पहले से ही सोनिया गांधी, राहुल गांधी, प्रियंका गांधी, राबर्ड वाड्रा का वर्चस्व है और इनके बाद वहां किसी को भी नेता की तरह नहीं, बल्कि उनके नौकर की तरह रहना होता है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का उदाहरण सबके सामने है, जो हर फैसला सोनिया गांधी और राहुल गांधी से पूछकर किया करते थे। बहुतों ने देखा होगाकि राहुल गांधी ने किस तरह सबके सामने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का कैबिनेट नोट फाड़कर फेंक दिया था। उस कांग्रेस परिवार में वरुण गांधी अपना क्या राजनीतिक कैरियर बना पाएंगे? यदि मेनका गांधी भी कांग्रेस में ले ली जाती हैं, तब वे सोनिया गांधी के सामने अपनी मां को सम्मान दिला पाएंगे? जिस मेनका गांधी ने सोनिया गांधी की उपेक्षाओं और अपमान का दंश झेला हो तो क्या वरुण गांधी उसे भूलकर कांग्रेस की राजनीति करेंगे? यही स्थिति सपा की है, जहां अखिलेश यादव के अलावा कोई नेता नहीं है, चाचा शिवपाल सिंह यादव तकका का हस्र सबके सामने है। माना जाता हैकि मेनका गांधी का मंत्रीपद जाने के पीछे भी वरुण गांधी और उनकी नरेंद्र मोदी सरकार पर टीका-टिप्पणियां हैं, जो इन महीनों में तो काफी मुखर हो गई हैं। भाजपा वरुण गांधी को बर्दाश्त करती आ रही है, मगर अब उनका वह ज़माना जा चुका है।
भाजपा उत्तर प्रदेश की कई लोकसभा सीटों के समीकरण और सांसद की कार्यप्रणाली छवि और स्वीकार्यता पर गहन मंथन कर रही है और जहां भी कोई संशय है या जहां कोई भाजपा नेता या सांसद वरुण गांधी की तरह हाईकमान को आंखें दिखा रहा है, वहां ताकतवर विकल्प भी तैयार किया जा रहा है। भाजपा हाईकमान प्रतिष्ठापूर्ण क्षेत्रों में विकल्प पर बहुत पड़ताल कर रहा है और वरुण गांधी कदाचित सोच रहे हैं और उन्हें समझाया जा रहा हैकि उनके जाने से भाजपा का नुकसान होगा। टीवी चैनलों और अख़बारों में जो उनका नरेंद्र मोदी विरोधी अभियान चल रहा है, उसे हर कोई वरुण गांधी का प्रायोजित विज्ञापन ही मान रहा है। वरुण गांधी के कार्यालय से ही अक्सर उनसे संबंधित विवादास्पद सूचनाएं लीक होती रहती हैं। कहने वाले कहते हैंकि स्वयं उनका निजी सचिव नसीब सिंह ही पराए हाथों में खेलता है, जिसे मेनका गांधी और वरुण गांधी अपना बड़ा ही विश्वासपात्र समझते हैं। वरुण गांधी का सेवा और सामाजिक कार्यों का पक्ष बहुत प्रशंसनीय माना जाता है, वह सांसद के रूपमें मिलने वाला वेतन-भत्ता भी नहीं लेते हैं और अपने पास से जरूरतमंदों पर खर्च करते हैं। ऐसा करके उनको लोकप्रियता तो मिली है, लेकिन राजनीतिक रणनीतियों में वे उतनी कामयाबी हासिल नहीं कर पाए हैं। उनकी शैली और व्यवहार बहुत कमजोर माना जाता है, जिसे भाजपा बहुत बर्दाश्त करती है। वे भाजपा में नहीं होते तो शायद राजनीति का राष्ट्रीय चेहरा नहीं बन पाते, इसलिए हर कोई कहता हैकि वे कहीं और कितना चल पाएंगे? यह भी उनका कार्यालय ही चर्चा करता हैकि अख़बारों में वरुण गांधी के नामसे जो लेख आलेख छपते हैं, उन्हें वरुण गांधी नहीं लिखते हैं, बल्कि उन्हें लिखते कोई और हैं, किंतु उनपर नाम व फोटो वरुण गांधी का छपता है। यह भी कहते हैंकि सोशल मीडिया पर उनके ज्यादातर फॉलोअर्स प्रमोशन बिज़नेस से ही हैं। एक प्रचंड राजनेता के राजनीतिक कैरियर में इतने सारे झोल?
वरुण गांधी दरअसल उकसाई हुई राजनीति महत्वाकांक्षा के शिकार होते आ रहे हैं और उनका राजनीतिक खेल सबसे ज्यादा उन्हीं के मुंह लगे कुछ मीडिया और सनसनीखेज़ नेताओं ने ही बिगाड़ा है। वरुण गांधी के अनेक शुभचिंतकों ने उन्हें सचेत कियाकि वह मीडिया या राजनीति के कालनेमियों केसाथ अपनी राजनीतिक निजता साझा नहीं किया करें, क्योंकि उनकी बातें टेप कर ली जाती हैं और दूसरों को सुनाई जाती हैं, मगर वरुण गांधी ने इसपर कोई ध्यान नहीं दिया, जिसका आज उनको बड़ा राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ रहा है। वरुण गांधी चाहे जो भी समझें, लेकिन उनके निजी सचिव नसीब सिंह इसके लिए ज्यादा जिम्मेदार माने जाते हैं, जिन्होंने राजनीतिक कालनेमियों को वरुण गांधी के ड्राइंगरूम तक पहुंचाया, उनकी बातें लीक की गईं। इस प्रकार मीडिया को तो वरुण गांधी के निजी सचिव नसीब सिंह के सौजन्य से वरुण गांधी की निजता की ब्रेकिंग जानकारियां मिल गईं, लेकिन बीजेपी में वरुण गांधी के तंबू उखड़ गए। वरुण गांधी भाजपा नेतृत्व का भरोसा खो बैठे हैं, अन्यथा एक समय वह भी था, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दिल्ली में उनके ज़ोरबाग़ वाले घर भी आए हैं। वरुण गांधी से न केवल ख़ुदको, बल्कि उनके कारण उनकी मां मेनका गांधी कोभी बड़ा नुकसान पहुंचा है। हो सकता हैकि वरुण गांधी कांग्रेस में ले लिए जाएं, उनको चुनाव लड़ा दिया जाए या उन्हें कांग्रेसशासित किसी राज्य से राज्यसभा में ले लिया जाए, लेकिन वहां उनका कोई भविष्य नहीं माना जाता है और रही उनके सपा में जानेकी बाततो वहां भी वरुण गांधी केसाथ भी वही होगा, जो अखिलेश यादव के पिता मुलायम सिंह यादव ने कल्याण सिंह केसाथ किया, क्योंकि वरुण गांधी हिंदुत्व से बाहर नहीं जा सकते, उनका उग्र स्वभाव भी एक बड़ा मसला है, जो सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव को मंजूर नहीं होगा।
मीडिया में वरुण गांधी के कांग्रेस में जाने का नया हल्ला वरुण गांधी की राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा की तारीफ से शुरू हुआ है। टीवी चैनलों पर वरुण गांधी के कांग्रेस या सपा में जाने की ख़बरें और डिबेट चल पड़ी हैं, मगर यह भी एक तर्क दिया जा रहा हैकि जिस प्रकार वरुण गांधी और उनकी मां मेनका गांधी सेफई में मुलायम सिंह यादव के अंतिम संस्कार में गए थे, उससे अखिलेश यादव वरुण गांधी व मेनका गांधी में भी कुछ चल रहा है। निष्कर्ष यह हैकि जबतक वरुण गांधी या मेनका गांधी भाजपा से बाहर जाने की अपनी रणनीति का सार्वजनिक रूपसे खुलासा नहीं करते हैं, तबतक उनके यहां-वहां जाने के कयास ही लगाए जाते रहेंगे, जो सच नहीं भी हो सकते। जानकार कहते हैकि हो सकता हैकि वरुण गांधी और मेनका गांधी भाजपा छोड़ने की घोषणा ही नहीं करें और भाजपा से टिकट कटने पर ही अपनी रणनीति का खुलासा करें। हो सकता हैकि इन्हें भाजपा से नहीं निकाला जाए और ये जिस दल में जाना चाहें खुद ही चले जाएं, भाजपा इन्हें जाने से नहीं रोकेगी। भाजपा का वरुण गांधी से कोई लगाव दिखाई नहीं देता है, वैसेभी भाजपा में मां-बेटे की कोई खास उपयोगिता नहीं दिखाई देती है। वरुण गांधी और मेनका गांधी उत्तर प्रदेश में किसी केसाथ भी किसीभी लोकसभा सीट से चुनाव लड़ें, इसकी भाजपा को कोई चिंता नहीं है। वरुण गांधी के शुभचिंतक इस बात से आहत हैं कि वे मोदी सरकार के खिलाफ इस्तेमाल किए जा रहे हैं और जो लोग उनको उनके हित की राय देने की कोशिश करते हैं तो उनसे कुपित होकर वरुण गांधी कहते हैं कि वे उनका मनोबल तोड़ रहे हैं। आचार्य तुलसीदास ने रामचरितमानस में यह बात कुछ इस तरह कही है-हित मत लागत तोहि न कैसे काल बिबसु कहुं भेषज जैसे। अर्थात हित की सलाह वैसे ही अच्छी नहीं लगती है, जैसे मृत्यु के वश में रोगी को दवा अच्छी नहीं लगती। काश! कल्याण सिंह का हस्र उनके समझ में आ जाए।