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'हमारा प्रधानमंत्री' और 'भारत का प्रधानमंत्री'

लोकसभा के चुनाव में प्रधानमंत्री के चेहरों पर वृहद विश्लेषण

'तीसरी बार भी मोदी सरकार और अबकी बार 400 के पार!'

Monday 8 January 2024 10:58:05 AM

दिनेश शर्मा

दिनेश शर्मा

'our prime minister' and the prime minister of india! (file photo)

नई दिल्ली। कांग्रेस शासनकाल में दशकों से इस्लामिक सांप्रदायिकता और आतंकवाद, राजनीतिक जोड़-तोड़ और कपटपूर्ण गठजोड़, अस्थिरता, अपराध, भ्रष्‍टाचार, जातिवाद, कुनबापरस्‍ती, भितरघात, आंतरिक असुरक्षा से लगभग सभी जगह जूझते-घिसटते आ रहे भारत का यह दशक भाजपा गठबंधन सरकार के प्रचंड प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में देशवासियों की आशाओं विश्वास मनोबल और ऐतिहासिक उपलब्धियों केसाथ पूरा हो रहा है। इसी केसाथ देशमें होने जा रहे लोकसभा चुनाव में तीसरी बार भी भाजपा गठबंधन की नरेंद्र मोदी सरकार की पहले से भी ज्यादा प्रचंड बहुमत से वापसी तय मानी जा रही है। प्रधानमंत्री के लिए चेहरा सबके सामने है, तथापि 'हमारा प्रधानमंत्री' कैसा हो और 'भारत का प्रधानमंत्री' कैसा हो केलिए जबरदस्त घमासान अपने चरम है। राजनीतिक दलों-दलालों में समर्थन देने और समर्थन हासिल करने की सौदेबाज़ियां, बनते और बिखरते राजनीतिक रिश्‍तों, राजनीतिक वादों और तकरारों के तनावभरे वातावरण केसाथ इसबार का लोकसभा चुनाव कुछ अलग ही दिखने जा रहा है। यह चुनाव कुछ केलिए यह अब कभी नहीं, तो कुछ केलिए भागते भूत की लंगोटी ही सही है। कुछ के सामने नए दोस्‍त ढूंढने की चुनौती है तो कुछ के सामने गठबंधन बनाने और बचाने की दुश्‍वारियां हैं।
भारत के प्रधानमंत्री पद के दावेदार तो जग जाहिर हैं और दुनिया भी जान रही है-नरेंद्र मोदी! किंतु 'हमारा प्रधानमंत्री' बनाने वाले नरेंद्र मोदी के प्रचंड चेहरे के सामने पराजय से डरे अपने कार्यकर्ताओं को निराशा से बचाए रखने की ही चिंता में डूबे हैं और लोकसभा चुनाव में जाने की हिम्मत भी नहीं जुटा पा रहे हैं। इन गैरभाजपाई राजनीतिक दलों ने लोकसभा चुनाव केलिए पुराना यूपीए गठबंधन खत्मकर इंडी अलायंस बनाया है, जिसका अभीतक न कोई नेता है न दफ्तर है और ना ही मोदी को हटाने के अलावा देश के लिए कोई एजेंडा है, बस 'हमारा प्रधानमंत्री' के चेहरे केलिए बैठकें ही करते फिर रहे हैं। नरेंद्र मोदी शासन के पूर्व देश में कांग्रेस गठबंधन की सरदार मनमोहन सिंह की दस साल सरकार रही है और जहांतक उनके नेतृत्‍व की लोकप्रियता और विश्‍वसनीयता का प्रश्‍न हैतो वह कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के रबर स्टैंप प्रधानमंत्री ही कहलाए गए। कांग्रेस के इस शासन से त्रस्त चली आ रही देश की जनता ने आखिर 2014 के लोकसभा चुनाव में गुजरात के मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री पद केलिए भाजपा के प्रचंड चेहरे नरेंद्र मोदी को प्रचंड बहुमत केसाथ देश की सत्‍ता सौंप दी। देशमें नरेंद्र मोदी युग आया और आज देश और दुनिया में उनकी एवं भाजपा गठबंधन सरकार की लोकप्रियता अपने चरम पर है। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा शासन के दस साल पूरे होने को हैं। इन वर्षों में भाजपा गठबंधन सरकार के फैसलों की लोकप्रियता केसाथ भारत ने हर क्षेत्र में ऐतिहासिक प्रगति आत्मसम्मान और आत्मविश्वास की जिन ऊंचाईयों को छुआ है, उनकी देश में लहर है।
दुनिया जान रही है और मान रही हैकि नरेंद्र मोदी विश्व के एक लोकप्रिय और प्रभावशाली राजनेता बन चुके हैं, जो तीसरी बार भी प्रचंड बहुमत से भारत में भाजपा सरकार बनाने जा रहे हैं, जबकि उनके सामने कांग्रेस और बाकी विपक्षी दल अपनों के ही बीच में विवाद और अस्‍थिरता के शिकार हैं। वे इंडी अलायंस बनाकर लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के सामने 'हमारा प्रधानमंत्री' का चेहरा प्रस्तुत करने केलिए संघर्ष करते दिख रहे हैं। भाजपा गठबंधन के खिलाफ पहले यूपीए और अब इंडी अलायंस उन्ही हताश-निराश नेताओं का मात्र एक झुंड बनकर रह गया है, जिसका केवल मोदी विरोध और सत्ता पाने का एजेंडा है, जो जोड़-तोड़ और जातिवाद केलिए बदनाम और वोटों केलिए किसीभी स्‍तरपर गिरने को तैयार हैं, जिनके कारण आज देश-प्रदेश में केवल अराजकता और सांप्रदायिकता का नंगा नाच देखा जा सकता है, जो आजतक देश में या अपने ही राज्य में विश्‍वसनीय लीडर या योग्‍य शासनकर्ता के रूपमें स्‍वीकार नहीं किए गए, जो दुनिया में भारत की जगहंसाई ही करते कराते आ रहे हैं। बहरहाल इंडी अलायंस में नरेंद्र मोदी के सामने प्रधानमंत्री पद केलिए कोई भी दमदार चेहरा नहीं दिखता है। कांग्रेस अपने वारिस राहुल गांधी को भी प्रधानमंत्री का अघोषित चेहरा बनाकर देशभर में सड़कों पर घुमा रही है, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने किसी भी रूपमें मुकाबले में कहीं नहीं टिकते हैं, बाक़ी जिन और के नाम लिए जा रहे हैं, उनपर भी जनसामान्य हंस रहा है या व्यंग्य कस रहा है।
इंडी अलायंस में जरा 'हमारा प्रधानमंत्री' के चेहरे देखिए-कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे। ये कर्नाटक से आते हैं और वस्तुत: सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के 'प्यादे' कहलाते हैं और उतना ही करते बोलते हैं, जो जितना उनसे कहा जाता है। सोनिया गांधी ने उन्हें इस हिदायत के साथ कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी दी हैकि वे सदैव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ गालियां गढ़ेंगे और ज़हरीली उल्टियां करते रहेंगे। इस 'जिम्मेदारी' को ही वे अपना बहुत बड़ा सौभाग्य मानते हैं। हालॉकि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इंडी अलायंस के प्रधानमंत्री के चेहरे के रूपमें दलित चेहरा कहकर मल्लिकार्जुन खड़गे का नाम प्रस्तावित किया है, जिसपर मल्लिकार्जुन खड़गे ने फूले नहीं समाकर यू टर्न भी ले लिया है, क्योंकि इंडी अलायंस में एक क्षणिक चुप्पी के बाद उनपर असहमति के स्वर भी सुने गए। वैसे भी कांग्रेस में प्रधानमंत्री का एक ही चेहरा है-राहुल गांधी। मल्लिकार्जुन खड़गे भी जानते हैंकि उनके लिए यह प्रस्ताव एक मज़ाक है, क्योंकि प्रधानमंत्री चेहरे केलिए कांग्रेस में राहुल गांधी के अलावा और किसी का नाम सोचा भी नहीं जा सकता है। इंडी अलायंस में तीसरा चेहरा स्वयं नीतीश कुमार बने हैं, जो फिलहाल बिहार में आरजेडी कांग्रेस एवं जेडीयू गठबंधन के मुख्यमंत्री हैं। उन्हें इंडी अलायंस का झुंड बनाने का श्रेय भी दिया जाता है, मगर बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और राजद नेता लालू यादव तो कुछ और ही खेल खेलना चाहते हैं। वे बस अपने पुत्र एवं नीतीश कुमार मंत्रिमंडल में उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव को किसी भी तरह लोकसभा चुनाव के पूर्व ही बिहार का मुख्यमंत्री देखने को तड़प रहे हैं। सच तो यह हैकि वे नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री होते देखना भी नहीं चाहते हैं। उन्होंने नीतीश कुमार पर प्रधानमंत्री पद का छद्म जाल बिछाकर तेजस्वी यादव केलिए बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ने केलिए बहलाया फुसलाया या दबाव बनाया हुआ थाकि ममता बनर्जी ने इंडी अलायंस के प्रधानमंत्री चेहरे केलिए दलित नाम पर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे का नाम प्रस्तावित कर लालू यादव की प्लानिंग ही बिगाड़ दी है, जिसके बाद लालू यादव इंडी अलायंस पर यह दबाव बना रहे हैंकि नीतीश कुमार को ही तुरंत प्रधानमंत्री का चेहरा और इंडी अलायंस का संयोजक घोषित किया जाए।
इंडी अलायंस में जबतक चेहरे पर गतिरोध रहेगा, तेजस्वी यादव के मुख्यमंत्री की ताजपोशी भी फंसी रहेगी। नीतीश कुमार भी इस ऊहापोह की स्थिति में हैंकि कहीं ऐसा न हो जाए कि इंडी अलायंस का चेहरा बनने के चक्कर में उन्हें न माया मिले न राम और लालू यादव ने उनसे अपने पुत्र तेजस्वी यादव को बिहार का मुख्यमंत्री बनवा लिया। नीतीश कुमार इंडी अलायंस के प्रधानमंत्री के चेहरे की कितनी पात्रता रखते हैं, यह हाल के महीनों में उनकी कार्यप्रणाली और बयानों से सभी ने समझ लिया है। उन्होंने बिहार में जिस तरह भाजपा गठबंधन से अलग होकर भाजपा नेतृत्व पर हमले किए और राजद और कांग्रेस से मिलकर सरकार बनाई, उससे उनकी एक लीडर की छवि और विश्वसनीयता भी तार-तार हो गई है। वे इंडी अलायंस का प्रधानमंत्री का चेहरा बनकर नरेंद्र मोदी के सामने कितने टिक पाएंगे, इंडी अलायंस में उनकी कितनी स्वीकार्यता होगी यह सब जान चुके हैं, वैसे भी ममता बनर्जी दलित के नाम पर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को इंडी अलायंस का चेहरा प्रस्तावित करके नीतीश कुमार के सपने केसाथ एक बड़ा खेल कर चुकी हैं। इंडी अलायंस में और भी तो प्रधानमंत्री का चेहरा बनने के सपने देख रहे हैं-पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, एनसीपी के नेता शरद पवार, समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव, आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल, शिवसेना के नेता उद्धव ठाकरे आदि-आदि। इंडी अलायंस के ये सब वो नेता हैंकि जिनमें प्रधानमंत्री पद की कोई भी पात्रता नज़र नहीं आती है।
बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती भी अपने को प्रधानमंत्री पद का दावेदार मानती रही हैं, लेकिन वे इंडी अलायंस में नहीं हैं। गौरतलब हैकि एक समय वह थाकि जब मायावती को प्रधानमंत्री पद का प्रबल दावेदार माना जा रहा था। कांग्रेस नेता और तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने अमेरिका में भारतीय समुदाय के सामने मायावती केलिए यहांतक कहा थाकि वह भारत की शक्तिशाली राजनेता और भारतीय लोकतंत्र का चमत्कार हैं, लेकिन मायावती ने प्रधानमंत्री की कुर्सी के सामने भ्रष्टाचारजनित कृत्यों से अकूत धन संपदा भाई-भतीजों को चुना, जिसके परिणामस्वरूप उनका प्रधानमंत्री पद पर दावा तो छोड़िए, मुख्यमंत्री पद का दावा भी जाता रहा। इंडी अलायंस के एक और सूरमा और महाराष्ट्र के दिग्गज छत्रप एनसीपी नेता शरद पवार आजकल न घर के हैं और ना घाट के। भतीजे अजित पवार उनकी एनसीपी की तोड़ डाली, जिससे प्रधानमंत्री के चेहरे के रूपमें उनकी कोई चर्चा तक नहीं कर रहा है। ऐसी ही हालत इंडी अलायंस के प्रधानमंत्री चेहरे आम आदमी पार्टी के नेता एवं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की है, जो शराब घोटाले में अब और तब अंदर जाने ही वाले हैं। इंडी अलायंस की एक और प्रधानमंत्री चेहरा त्रणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की हालत भी पतली है। वह इंडी अलायंस के प्रधानमंत्री पद के झांसे में नरेंद्र मोदी के सामने अपना लोकसभा चुनाव बर्बाद नहीं करना चाहती हैं। ममता बनर्जी मानती हैं कि प्रधानमंत्री की कुर्सी एक दिन की चांदनी फिर अंधेरी रात है, इसलिए उनकी पश्चिम बंगाल की कुर्सी सलामत रहे तो सबकुछ खैरसल्ला अल्लाह-अल्लाह। इस तरह नरेंद्र मोदी के सामने न केवल बेहद कमजोर और बिखरा हुआ विपक्ष है, बल्कि इंडी अलायंस में उनके मुकाबले पर कोई भी चेहरा नहीं है।
उत्‍तर प्रदेश देश की सत्ता का कारक और सत्ता संघर्ष का प्रमुख केंद्र माना जाता है। यहां के राजनीतिक समीकरण केंद्र में निर्णायक उलटफेर करते हैं, जो कुछ इस प्रकार हैं-उत्‍तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की पूर्ण बहुमत की सरकारें बन चुकी हैं और दोनों के ही मुस्लिम तुष्टिकरण सांप्रदायिकता अपराध और जातिवाद से उत्तरप्रदेश त्राहिमाम कर गया था। इस कारण ये दोनों प्रदेश की जनता और भाजपा के सामने अपनी स्वीकार्यता और प्रासंगिकता भी खो चुके हैं। उत्तर प्रदेश के प्रचंड मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपनी लोकप्रिय शासनप्रणाली से इनके ज़हरीले एजेंडे ध्वस्त कर दिए हैं, जिससे सपा-बसपा का अस्तित्व ही दांव पर है। सपा बसपा के नेता अपने सजातीय वोट भी एकजुट नहीं रख पा रहे हैं। उत्तर प्रदेश में उनका बहुत तेजी से भाजपा की ओर झुकाव बढ़ता जा रहा है। पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड जैसे राज्यों में जातीय संघर्ष और मुस्लिम तुष्टिकरण के चलते सामाजिक सद्भाव एवं कानून व्‍यवस्‍था पूरी तरह से ध्‍वस्‍त है तो दिल्ली हिमाचल की सरकारों में भ्रष्टाचार अपने चरम पर है, क्‍या आपको नहीं लगता? इस कारण यह भी माना जाता हैकि यह लोकसभा चुनाव देश में गैर भाजपाई दलों की भ्रष्ट कार्यप्रणालियों के खिलाफ श्‍वेत-पत्र की तरह होगा। देश के सत्ता संघर्ष में खासतौर से उत्‍तर भारत में भाजपा सब तरफ सीधे मुकाबले में खड़ी है और सबके लिए निर्णायक चुनौती बनी है। कारण हैं-नरेंद्र मोदी। इस परिदृश्‍य में प्रधानमंत्री पद के बाकी दावेदारों की पात्रता को लेकर उत्तर भारत की राजनीति में काफी उतार-चढ़ाव देखे समझे जा सकते हैं, जबकि देश के समग्र क्षेत्रीय राजनीतिक समीकरणों पर गौर करें तो पाते हैंकि नरेंद्र मोदी सब तरफ लोकप्रिय और सारे विपक्ष पर भारी हैं।
कांग्रेस भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वैश्विक छवि एवं लोकप्रियता से बेहद डरी हुई है, क्योंकि नरेंद्र मोदी सरकार के फैसले उसकी तबाही के कारण बने हैं। नरेंद्र मोदी उसका लक्ष्‍य हैं, जिनके रहते कांग्रेस का राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने का सपना लगभग दम तोड़ चुका है और उनकी नफरत के बाज़ार में मुहब्बत की यात्राओं के बावजूद देश के राज्यों में भाजपा की बढ़त रुकने का नाम नहीं ले रही है। उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा की स्‍थिति भाजपा के खिलाफ किसी अन्‍य राजनीतिक दल से एकल या संयुक्‍त रूपसे चुनावी गठबंधन बनाने की भी नहीं बची है, क्योंकि इनके पूर्व के गठबंधन विफल हो चुके हैं। सवाल है कि क्‍या सपा फिर से कांग्रेस के साथ आएगी? और इसी प्रकार क्‍या बसपा भी सपा के रहते कांग्रेस से हाथ मिलाएगी? शायद नहीं! उत्तर प्रदेश के राजनीतिक संदर्भ में नरेंद्र मोदी को सबसे पहले यही स्‍थिति चाहिए, जोकि फिलहाल है। लोकसभा चुनाव के पूर्व देश के पांच राज्‍यों छत्‍तीसगढ़, मध्‍यप्रदेश, मिजोरम, तेलंगाना, राजस्‍थान के विधानसभा चुनाव में तीन महत्वपूर्ण राज्यों छत्‍तीसगढ़, मध्‍यप्रदेश और राजस्थान में भाजपा की प्रचंड जीत ने लोकसभा चुनाव की तस्‍वीर और भी ज्‍यादा साफ कर दी है। कांग्रेस के लिए यह काल खंड बाकी कांग्रेसी शासन से बिल्‍कुल भिन्‍न और भारी चुनौतियों वाला है, जिसमें सोनिया गांधी के भ्रष्ट सिंडिकेट पर नरेंद्र मोदी सरकार कड़ाई से प्रहार और कार्रवाई कर रही है, जिसे देश की जनता पसंद भी कर रही है। जम्मू-कश्मीर में धारा 370, सीएए, एनआरसी, देश के भीतर और सीमापार पाकिस्तान प्रायोजित इस्लामिक आतंकवाद पर कड़ी कार्रवाई, महिलाओं को आरक्षण, चंद्रयान, आदित्य एल1, प्रतिरक्षा क़ानूनों में बदलाव जैसे फैसलों से मोदी सरकार पर देश को भारी भरोसा है। कांग्रेस या इंडी अलायंस को देश में अपनी सत्ता की कहीं कोई उम्‍मीद नहीं दिखती है। दक्षिण भारत और उत्तर भारत के भी कुछ क्षेत्रीय दल भाजपा के बढ़ते प्रभाव से चिंता और अवसाद में हैं, जिनके नेता आजकल मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम, सनातन धर्म और अयोध्या में श्रीराम मंदिर के निर्माण पर तीखे हमले करते दिख रहे हैं।
भाजपा गठबंधन की लोकसभा चुनाव की तैयारियां अपने चरम पर हैं और उसका लक्ष्य और नारा भी सामने आ चुका है-तीसरी बार भी नरेंद्र मोदी सरकार और अबकी बार 400 के पार। भाजपा का यह लक्ष्य काल्पनिक नहीं बल्कि वास्तविक लगता है, जबकि गैरभाजपाई राजनीतिक दलों की चुनावी तैयारियां कहीं नज़र नहीं आ रही हैं। कांग्रेस की चुनावी तैयारियों देखें तो पाएंगे कि खासतौर से उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल में कांग्रेस की स्‍थिति बहुत ही ख़राब दिखती है। छत्‍तीसगढ़, मध्‍यप्रदेश और राजस्थान के चुनाव में भी भाजपा की प्रचंड जीत ने कांग्रेस को बाहर का रास्ता दिखा दिया है। दक्षिण भारत में भी कुछ ऐसा ही है। तेलंगाना और कर्नाटक में कांग्रेस सरकार बनने के बावजूद लोकसभा चुनाव में खासतौर से कर्नाटक में नए समीकरणों से भाजपा गठबंधन का पलड़ा भारी दिख रहा है। कांग्रेस को तेलंगाना के विधानसभा चुनाव की तरह लोकसभा चुनाव में मुसलमानों से जरूर आशा बनी हुई है, लेकिन यह अवश्यंभावी नहीं है। बिहार में लालू यादव पर तो प्रश्‍नचिन्‍ह ही लग चुका है, उनका बचा-खुचा राजनीतिक जीवन कांग्रेस के साथ चल रहा है। लालू यादव येनकेन प्रकारेण नीतीश कुमार की जगह अपने बेटे उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव को बिहार का मुख्यमंत्री देखना चाहते हैं, इसके लिए उन्होंने रणनीतिक तौरपर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री का सपना दिखाकर इंडी अलायंस के पेड़ पर चढ़ा दिया है और वे समझ बैठे हैं कि उन्हें इंडी अलायंस नरेंद्र मोदी के सामने प्रधानमंत्री का चेहरा घोषित कर देगा और वे देश के प्रधानमंत्री बन जाएंगे, यह अलग बात हैकि नीतीश कुमार का राजनीतिक जीवन इसी ग़लतफहमी में यहीं दी एंड हो जाना है। आंध्रप्रदेश में भारी राजनीतिक उथल-पुथल है और चर्चा हैकि भाजपा और तेलगू देशम में फिर से समझौता होने जा रहा है। समझौता भी कांग्रेस के गले में फांस होगी। इसी प्रकार सुना जा रहा हैकि पंजाब में भी अकाली दल और भाजपा में फिर से दोस्ती होने जा रही है।
'हमारा प्रधानमंत्री' कैसा हो? यह नारा तो सभी दलों के पास है, लेकिन 'भारत का प्रधानमंत्री' कैसा हो? इस सवाल का सही उत्‍तर किसके पास है? भारत की नई पीढ़ी के पास ही इसका सही उत्तर है नाकि किसी दल या गठबंधन के पास। गैर भाजपाई दलों में प्रधानमंत्री चेहरे केलिए कई नेता लालायित हैं, लेकिन नरेंद्र मोदी के प्रोफाइल के सामने वे कहीं नहीं टिकते हैं। कुछ राजनीतिक दल तो केवल इसलिए अपना महत्व प्रकट करने में लगे हैं, ताकि उन्हें चुनाव में अधिक से अधिक चंदा मिल सके। उन्हें पता हैकि लोकसभा चुनाव में उनका कोई चांस नहीं है जैसे-उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी। बसपा अध्‍यक्ष मायावती तो लगभग खामोश हैं और आजकल सोशल मीडिया, ट्वीटर और फेसबुक प्लेटफॉर्म पर ही राजनीति कर रही हैं। अखिलेश यादव को पिताश्री मुलायम सिंह यादव की तरह येन केन प्रकारेण सरकार धन और केवल अपने और परिवार के लिए राजनीतिक पद, फाईव स्टार भौतिक सुख-सुविधाएं और देश की सर्वोच्‍च सुरक्षा चाहिए। इन्होंने हर बार समाज के लिए अत्‍यंत ख़तरनाक तत्‍वों को नेता बनाकर और अपराधियों को निर्दोष बताकर लोकसभा या विधानसभा चुनाव में उतारा है। लोकसभा या विधानसभा चुनाव में सपा और बसपा की ओर से बहुत से अपराधी जीतकर भी आए हैं और उन्‍होंने सम्‍मानित सदनों का वातावरण तार-तार किया है। भारत के सुप्रीम कोर्ट ने देश की जनता को अपने ऐतिहासिक फैसलों में सज़ायाफ्ता अपराधियों के चुनाव लड़ने पर रोक लगा रखी है, जिसमें ऐसे राजनीतिक दलों और नेताओं को राजनीति से हाथ धोना पड़ा है, जिनके कारण देश और समाज नाना प्रकार से त्रास झेलता आ रहा है।
भारत के प्रधानमंत्री को लेकर जनसामान्य में नगर शहर कस्बों गांवों में चौपालों पर चुनाव की जोरदार चर्चा शुरू हो चुकी है। कांग्रेस जबतक अपने बूते सत्ता में आती रही, तबतक यह प्रश्न गौण होता थाकि कौन प्रधानमंत्री बनेगा। देश में राजनीतिक परिस्थितियां और समीकरण पूरी तरह से बदल जाने के बाद अब इस बात का विशेष महत्व हो गया हैकि जो राजनीतिक दल केंद्र में सत्ता संभालेगा, उसका कौन सा नेता प्रधानमंत्री पद को सफलतापूर्वक संभालने में सक्षम होगा। भारतीयों और उनसे सरोकार रखने वाले दूर देशों केलिए भी भारत का आम चुनाव एक उत्सुकता और उसीके साथ एक चिंता का भी विषय है। उत्सुकता इसलिए हैकि भारत विश्व का बड़ा लोकतांत्रिक देश है और चिंता यह है कि यहां गठबंधन सरकार की विवशताओं का परिणाम सभी मामलों में पूरी तरह देश के ‌हितों के खिलाफ रहा है। भारत के राजनीतिज्ञों और हुक्‍मरानों पर अब दुनिया की संशयात्‍मक नज़र रहती आई है। भारत ही इस महाद्वीप में राजनीतिक शक्‍ति, शांति और स्थिरता का एक जिम्‍मेदार नेता माना जाता है और अन्य शक्तिशाली देश भारत के आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक मामलों में भी पूरी दिलचस्पी रखते हैं। दुनिया में सबसे ज्यादा मुसलमान भारत में रहते हैं, इसलिए भी दुनिया के मुस्लिम देशों की जितनी दिलचस्पी भारत के चुनाव और खासतौर से मुसलमानों से संबंधित फैसलों में रहती है, शायद उतनी खालिस मुस्लिम देशों में भी नहीं रहती है। भारत में भाजपा की नरेंद्र मोदी सरकार की पाकिस्तान बांग्लादेश एवं और भी मुस्लिम देशों में बड़े कौतूहल से चर्चा होती आ रही है।
भारत में एक दशक पूर्व तक केंद्र सरकार अवसरवादी गठबंधन की बैसाखियों पर चलती आई है, जिस कारण वह संसद में किसी भी विषय पर समर्थन पाने के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों की मोहताज होती थी। कई मामलों में कई अवसरों पर गठबंधन के लोग साथ छोड़कर अलग हो गए और सरकार को संसद में गैरों का सहारा लेना पड़ा। इसका सबसे ज्यादा नुकसान देश की विदेश नीति और आंतरिक सुरक्षा को होता आया है, क्योंकि भारत केलिए जितना आंतरिक एवं बाह्य सुरक्षा और आर्थिक विकास का महत्व है, उतना ही यह भी महत्वपूर्ण है कि उसकी विदेश नीति में कितना दम है। फिलहाल भारत का यह पक्ष काफी मजबूत दिखाई देता है। दरअसल चुनाव के समय देश के नागरिकों के सामने सर्वप्रथम यह प्रश्न होता है कि कौन सा राजनीतिक दल केंद्र में अपनी सरकार बनाकर देश के सामाजिक आर्थिक विकास की प्रक्रिया को सबसे अच्छे ढंग से अंजाम देता है और दे सकता है। पहले यह चिंता और जागरुकता नहीं थी, लेकिन जैसे-जैसे देश में राजनीतिक आर्थिक और शैक्षणिक विकास हो रहा है, वैसे-वैसे देश के नागरिकों की महत्‍वाकांक्षा, राजनीतिक दलों के एजेंडों और उनके स्थायित्व में दिलचस्पी बढ़ रही है। राजनीतिक जागरुकता का स्तर और राजनीति में भागीदारी का प्रतिशत तेजी से बढ़ रहा है, यह अलग बात है कि मतदान का प्रतिशत अभी भी औसत है, इसलिए मौजूदा राजनेताओं के सामने यह भी चुनौती है कि वह इस श्रृंखला में अपने को कायम रखने के लिए सक्रिय और अपने एजेंडे के प्रति कैसे जवाबदेह रहें।
राजनीतिक दलों के भावी प्रधानमंत्रियों के नाम सामने आना बहुत अच्छी बात मानी जाती है। विश्व के कुछ दूसरे देशों में भी वहां के राजनीतिक दल ऐसा करते आए हैं, इसलिए यह उचित समझा जाता हैकि भावी प्रधानमंत्री केलिए जो नाम सामने हैं, उनकी योग्यता और व्यक्तित्व के सभी पहलुओं पर राष्ट्रीय स्तर पर बहस छिड़े, ताकि लोगों को अपने हिसाब से राजनीतिक दल एवं प्रधानमंत्री का चुनाव करने में मदद मिले। यह कोई भावुकता का प्रश्न नहीं है, बल्कि कर्त्तव्य और विचार का विषय है। प्रधानमंत्री कैसा हो के विषय पर शायद ही मत भिन्नता हो और वह है योग्‍यता और भ्रष्टता। इसके बाद लोकतांत्रिक व्यवस्था का ज्ञान और अनुभव, संसदीय प्रणाली को सुदृढ़ और लोकतांत्रित रखने में योगदान, देश की सामाजिक एवं आर्थिक प्रगति का दर्शन, सरकारी व्यवस्था को सुचारू रूपसे चलाने की क्षमता और विश्व के सामने अपने देश को और अपनी नीतियों को श्रेष्ठ साबित करने की क्षमता। भारत में जबसे क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का प्रभाव बढ़ा है, तबसे देश को गठबंधन सरकारों का सामना करना पड़ रहा है। कुछ सीमा तक यह लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत हो सकता है, लेकिन देश की आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक प्रगति केलिए नहीं हो सकता, इसीलिए आज प्रधानमंत्री एवं दल का चयन राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं से ऊपर चला गया है। क्षेत्रीय दलों के महत्व को नकारा नहीं जा सकता, लेकिन भावना, भाषा, धर्म और जाति के आधार पर उनके आगे बढ़ने की इजाजत भी नहीं दी जा सकती, जैसा कि कुछ वर्षों पहले महाराष्ट्र, दक्षिण एवं पूर्वोत्तर राज्यों में हुआ है।
इसका आशय यह नहीं है कि भाषा धर्म और जाति की अवहेलना करके किसी देश की नीति बने, अपितु इसका मतलब यह हैकि यह तथ्य भी कायम रहे और देश के सामाजिक आर्थिक राजनीतिक विकास के ढांचे पर भी इसका कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़े। हो क्‍या रहा है? कुछ क्षेत्रीय दल और उनके एजेंडे एकता के बजाय जोड़-तोड़ और विघटन के रास्ते पर बढ़ रहे हैं। इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता हैकि किसी भी देश की एकता और अखंडता केलिए देश में बड़े राज्यों का होना भी जरूरी है। देश में भावनाओं पर आधारित राज्यों की मांग और आंदोलन देश की एकता की कीमत पर स्वीकार नहीं हो सकते। इनका आधार उस क्षेत्र की भौगोलिक और भाषाई जरूरत जरूर हो सकता है। आज प्रधानमंत्री पद के दावेदार केवल अपने प्रभाव और संख्या बढ़ाने केलिए इन एजेंडों का दोहन करने में लगे हुए हैं और हर जगह अलग राज्यों की मांग का समर्थन करते हुए भी घूम रहे हैं। अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारत जैसे देश को प्रधानमंत्री पद केलिए अबतक कैसे नेताओं को झेलना और सुनना पड़ा है। नरेंद्र मोदी इनसे अलग और एक वृहद आशावादी राजनीतिज्ञ के रूपमें देखे जाते हैं, जिसका प्रमाण उनकी सर्वसमाज में स्‍वीकार्यता है। देश की जनता गहन मंथन में है और उम्‍मीद की जाती है कि उसका वोट राष्‍ट्रवाद, सुरक्षा और विकास को जाएगा। विभिन्न पंथों, भाषाओं, राजनीतिक और सामाजिक मतभिन्‍नताओं के भारत देशमें राजनीति और सत्ता का विभाजन बहुत विचित्र है। राजनीतिक दलों के मुद्दे पार्टी के प्रति निष्ठा बदलते ही बदल जाते हैं। राजनीतिक हालात ज़ुबान और मुंह देखकर बदल रहे हैं और ज़ुबान भी बहुत ज़हरीली और झूंठी होती जा रही है।
देश की राजनीतिक दशा और दिशा में हालातों और समीकरणों से आगे और क्‍या उलटफेर होगा, यह वोटर तय करेगा। पराजय का सामना करते आ रहे देश के कई ग़ैरभाजपाई दल चुनाव आयोग से वोटिंग मशीन पर बेईमानी का आरोप लगाकर उसके स्थान पर मतपत्रों वाली पुरानी व्यवस्था बहाल करने की मांग करते आ रहे हैं, जो बाहुबलियों के बूथकब्जों और मतगणना में गड़बड़ी के मंसूबों के बहुत अनुकूल है, मगर चुनाव आयोग कईबार कह चुका हैकि भारत में वोटिंग मशीन से मतदान और मतगणना सबसे सुरक्षित है, इससे समय और पैसा बचता है। इससे वो दल और लोग हतोत्‍साहित हैं, जो ईमानदारी से मतदान और परिणाम पसंद नहीं करते हैं। जनता सुरक्षा और विकास चाहती है, अपनी तात्‍कालिक समस्‍याओं का हल चाहती है, खासतौर से जानमाल की सुरक्षा के मामले पर वह सबसे ज्‍यादा चिंतित और संवेदनशील है, इसीलिए लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा का देश में सुशासन, राष्‍ट्रवाद, विकास और सुरक्षा सशक्‍त चुनावी मुद्दा बन गया है, इसका सामना करना इंडी अलायंस केलिए न केवल मुश्किल बल्कि असंभव समझा जा रहा है, इसलिए देश में तीसरी बार भी पहले से ज्यादा प्रचंड रूपमें नरेंद्र मोदी सरकार सुनिश्चित दिख रही है, इसीलिए भाजपा के नारे में ग़ज़ब का आत्मविश्वास झलकता है-तीसरी बार भी नरेंद्र मोदी सरकार और अबकी बार 400 के पार। एक की हार होनी है और दूसरे की जीत इसलिए मतदान जरूर करें और अपना राष्ट्रधर्म निभाएं!

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