दिनेश शर्मा
नई दिल्ली। या तो वेद, शास्त्र और उपनिषद झूठे हैं, गुमराह करने वाले हैं या फिर देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह झूठे और ईमानदारी के छद्मावरण में हैं क्योंकि नीति तो स्पष्ट कहती है कि बेईमानों का साथ देने वाला या उनका सहयोग लेने वाला या बेईमानी की अनदेखी करके उस पर चुप हो जाने वाला, सबसे बड़ा बेईमान होता है। मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व में देश में महाघोटालों, आर्थिक अराजकता, बेईमानों और भ्रष्टाचारियों का नापाक और बेशर्म तंत्र खुलकर फल-फूल रहा है। जिनका भंडाफोड़ हुआ भी है तो वह मनमोहन सरकार ने नहीं किया है बल्कि देश के सुप्रीम कोर्ट के संज्ञान, जागरूक नागरिकों और मीडिया ने किया है। मनमोहन सिंह ने चुप्पी मारकर या तो भ्रष्टाचारियों को देश छोड़कर भागने का मौका दिया है या उनको फाइलें जलाने और कालाधन ठिकाने लगाने दिया। देश जो सुन रहा और देख रहा है उसमें उन्होंने राजनीति के बहाने दिग्गज भ्रष्टाचारियों को बचाव के भरपूर अवसर प्रदान किए हैं। क्या देश को ऐसे प्रधानमंत्री की जरूरत है? यदि मनमोहन सिंह ईमानदार हैं तो उन्होंने भ्रष्टाचारियों और दुराचारियों को प्रश्चय क्यों दिया हुआ है? वे किस फार्मूले से अपने आपको ईमानदार साबित करना चाहते हैं? यह कि वे रिश्वत नहीं लेते हैं? मान गए, लेकिन रिश्वत या कमीशन खाकर विदेशी बैंकों में धन जमा करने वालों के सरदार तो हैं? कहा तो यहां तक जा रहा है कि प्रधानमंत्री बनने से पहले भी वे जहां भी सरकार के महत्वपूर्ण पदों पर रहे, उनके अधीन ईमानदार परेशान रहे और नाकारा एवं बेईमानों की चांदी रही।
मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व में देश भ्रष्टाचार, दुराचार और आतंकवाद से थर्राया हुआ है। अभी तो न जाने कितने मामले और अजगर हैं जिनका राज अभी नहीं खुला है। देश के राष्ट्रवादी और जागरूक लोग उन फाइलों को सामने लाने की कोशिश कर रहे हैं जिन पर यूपीए सरकार के राजनेताओं और नौकरशाहों ने भेद खुलने के डर से कुंडली मार रखी है। आरटीआई के कार्यकर्ताओं को मांगी गई सूचनाएं दबाकर हतोत्साहित किया जा रहा है। सरकार में बैठे अनेक मंत्री-नौकरशाह, सरकार के खर्चे से अपने राजनीतिक दल और निजी व्यवसायिक कंपनियां चला रहे हैं। दलालतंत्र की भारत सरकार के मंत्रालयों में बेरोकटोक घुसपैठ है। 'कनिमोझियों', 'नीरा राडियाओं', 'बरखाओं' और 'महाप्रभुओं' का पूरा नेटवर्क मंत्रियों और नौकरशाहों के यहां चौबीस घंटे सक्रिय है। फिर प्रधानमंत्री कैसे दावा करते हैं कि वे ईमानदार हैं? मनमोहन सिंह ने देश को धोखे में रखकर भ्रष्टाचारियों का खुला बचाव किया है। देश के मुख्य सतर्कता आयुक्त जैसे अत्यंत महत्वपूर्ण एवं संवेदनशील पद पर पीजे थॉमस नाम के एक भ्रष्ट नौकरशाह की नियुक्ति की है जिसे सुप्रीम कोर्ट ने रद्द किया है न कि इन्होंने यानि प्रधानमंत्री ने। मनमोहन सिंह ने थॉमस मामले में चुप्पी मारे रखी तो किसलिए? क्या मजबूरी है उनकी? देश में किसी प्रधानमंत्री के नियुक्ति जैसे फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने रद्द किया है, क्या यह मामूली बात है?
सुप्रीम कोर्ट की इस कार्रवाई के बाद मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री के पद पर नहीं रूकना चाहिए, तब जब वे अपने को बड़ा भारी ईमानदार प्रधानमंत्री कहते हों। यह विधिक प्रमाण है कि उन्होंने एक भ्रष्टाचारी नौकरशाह की करतूतों को पूरी तरह से या जानबूझकर अनदेखा करके उसकी देश के मुख्य सतर्कता आयुक्त जैसे पद पर नियुक्ति को मंजूरी दी। आइए अब आगे बढ़े! पुणे में घोड़ो के फॉर्म के मालिक और काली कमाई के बदमाश हसन अली खान और अन्य के खिलाफ पुख्ता सबूत होने के बावजूद उनके विरूद्ध अभी तक कोई कार्रवाई नहीं करने के पीछे मनमोहन सिंह की क्या मजबूरी है? उन्हें हसन अली खान से धन नहीं चाहिए तो क्या उससे घुड़सवारी सीखनी है? या गिफ्ट में कांग्रेस के लिए घोड़े लेने हैं? यहां भी मनमोहन सिंह के पास कोई जवाब नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने ही हसन अली खान पर डंडा चलाया है और उसके बाद मनमोहन सरकार सिपाही बनकर हसन अली खान को ढूढ़ने निकली है, उसकी तलाश में छापे मारे जा रहे हैं, उसे अपनी काली कमाई ठिकाने लगाने का पूरा मौका मिल चुका है इसलिए 'का वर्षा जब कृषि सुखाने।' मनमोहन सिंह देश की सवा करोड़ जनता के धैर्य की और कितनी परीक्षा लेना चाहते हैं? वे साफ-साफ क्यों नहीं कहते कि वे अपनी संरक्षक और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के अनैतिक दबाव में हैं जिसमें पीजे थॉमस की सीवीसी पद पर नियुक्ति भी प्रमुख है।
अमरीकी और उनके सबसे करीबी दोस्त इस्राइली यदि कहा करते हैं कि हिंदुस्तान का राजनीतिक नेतृत्व अत्यंत डरपोक, लालची, महाभ्रष्ट, गैरजिम्मेदार और घोर अनुशासनहीन भी है तो वे क्या गलत कहते हैं? हिंदुस्तान की अंतर्राष्टीय छवि के नए चार-चांद कॉमनवेल्थ गेम की तैयारियों में महाभ्रष्टाचार, जिसको लेकर हिंदुस्तान की इज्जत पर जबरदस्त हमला हो रहा है। टू जी स्पेक्ट्रम घोटाला जिसमें प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सुप्रीम कोर्ट को जवाब देना पड़ा है। क्या यह भारतीय नेतृत्व के लिए बेहद शर्मनाक नहीं है? केंद्र सरकार का कश्मीर में भारतीय सुरक्षाबलों पर पत्थर, बम और तेजाब फेंकने वालों को मुआवजा? पाकिस्तान, हिंदुस्तान की कोई परवाह नहीं करता है। इंग्लैंड से कोहिनूर हीरा मांगने वाली भारत की मनमोहन सरकार आज तक पाकिस्तान से एक भी वांछित अपराधी तो हासिल कर नहीं सकी। बांग्लादेश एक बार नहीं बल्कि कई बार भारत से दुस्साहस के साथ पेश आया है। वह सीमा पर भारतीय सुरक्षाबलों की लोमहर्षक सामूहिक हत्या भी कर चुका है और भारत के बेशर्म हुक्मरान बांग्लादेश का कुछ भी नहीं बिगाड़ सके। अब बारी आती है दूसरे पड़ोसी देश नेपाल की। उसने भी देख-समझ लिया है कि हिंदुस्तान में अब कोई दम-खम नहीं बचा है इसलिए आज वह उसे आंख दिखाता है और भारत के बजाय चीन और पाकिस्तान को दोस्ती की नज़र से देखने लगा है। नेपाल में इन देशों के कुत्ते की तो इज्जत है लेकिन भारतीयों की नहीं और भारत सरकार की तो उसे कत्तई परवाह ही नहीं है। चीन सीमावर्ती भारतीय राज्यों को हड़प लेना चाहता है। उसने भारत को औकात बता रखी है और भारतीय नेतृत्व अपने देश को भ्रम में रखकर झूठ बोल रहा है कि सब कुछ ठीक है।
सच्चाई यह है कि सब कुछ ठीक नहीं है। देश के पूर्वोत्तर राज्यों में भारतीय नेतृत्व की नाकामियां सर चढ़कर बोल रही हैं। नई दिल्ली से इन राज्यों के दौरे पर जाने वाले हुक्मरानों और राजनेताओं के सामने भाड़े के सामाजिक और राजनीतिक लोग पेश किए जाते हैं और उनसे यहां की व्यवस्था और हालातों की झूठी तारीफें कराई जाती हैं। वास्तविकता यह है कि भारतीय सुरक्षाबलों के सशस्त्र जवान भी यहां सुरक्षित नहीं हैं, उन्हें गश्त करने में बड़ी ही अतिरिक्त सावधानियां बरतनी होती हैं। कहा जो यहां तक जाता है कि यहां सक्रिय विघटनकारी एवं विध्वंसकारी तत्व इन राज्यों के प्रमुख कर्णधारों के घरों में शरण पाते हैं। वे आसानी से सुरक्षाबलों को चकमा देकर निर्बाध रूप से अपनी विध्वंसक गतिविधियों को अंजाम देते हैं। यहां पर बम-धमाकों को अंजाम देने वाले ही सत्ता में बैठे हैं इसलिए यह समझना बहुत मुश्किल है कि यहां कौन राष्ट्रवादी है और कौन विघटनकारी। लगभग हर साल आसाम में एक बड़ा बम धमाका होता है जिसमें भारी संख्या में निरीह लोग मरते हैं। मुख्यमंत्री दौड़कर दिल्ली जाते हैं और विघटनकारियों से निपटने के नाम पर भारी-भरकम आर्थिक सहायता ले आते हैं। ये सहायता कहां जाती है? बाकायदा विघटनकारियों और सरकार के लोगों के बीच बंटती है। यदि इसकी सच्चाई देखनी हो तो इस बात की निष्पक्ष जांच हो जानी चाहिए कि हर साल असम में एक बड़ा बम धमाका क्यों होता है? और उस धमाके के बाद केंद्र सरकार क्या करती है।
ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ने भारत को एक लाइन का उत्तर दे दिया है कि यह संभव नहीं है कि भारत को कोहिनूर हीरा लौटा दिया जाए। कोहिनूर हीरा मांगने वाले अब डूब मरें। कोहिनूर हीरे की वापसी के लिए ब्रिटेन सरकार से वार्ता करने के बहाने भारतीय राजनेताओं और हुकमरानों की न जाने कितनी विदेश यात्राएं हुई हैं। ब्रिटेन सरकार हर बार उन्हें अपना एक लाइन का जवाब दे देती है और ये भारतीय हुक्मरान हर बार कोहिनूर के नाम पर अपने कुनबे सहित विदेश में पिकनिक मनाकर लौट आते हैं। जब ब्रिटेन भारत से दो टूक कह चुका है कि उसे कोहिनूर हीरा नहीं लौटाना है तो उसके नाम पर ये विदेश यात्राएं हर बार क्यों होती हैं? इसकी वापसी का अब एक ही रास्ता है और वो है ब्रिटेन से युद्ध। क्या भारत इसके लिए तैयार है?
दरअसल भारतीय राजनेता और हुक्मरान ये भूल रहे हैं कि हिंदुस्तान में वो भी रहते हैं जो स्वाभिमान, सम्मान, शांति और ईमानदारी से जीना चाहते हैं, लेकिन बेईमानों ने नीचता का नंगा नाच कर रखा है। यह सब देख सुनकर दुनिया वाले भी समझ बैठे हैं कि हिंदुस्तान बेईमानों, बोदों, जलीलों और भ्रष्टाचारियों का देश है और वहां अधिकतर ऐसे ही हैं? मनमोहन सिंह क्या देश के प्रधानमंत्रियों के इतिहास में इस रूप में दर्ज होने के लिए तैयार हैं कि उनके कार्यकाल में दुनिया में भारत की यह छवि, राजनीतिक अस्थिरता, देश में उनकी लगातार प्रशासनिक विफलताओं के साथ भ्रष्टाचार खूब फला-फूला? क्या वे यह समझते हैं कि देशहित के शीर्ष प्राथमिकता के आंतरिक एवं बाह्य मामलों में उनकी कमजोर भूमिका और चुप्पी से देश उन्हें कुशल शासक और चक्रवर्ती प्रधानमंत्री के रूप में याद करेगा? शायद हरगिज नहीं और कभी नहीं। विधायिका और कार्यपालिका की कार्य प्रणाली से निराश भारत की जनता को सुप्रीम कोर्ट से बहुत आशाएं हैं। देश की जनता को निराश नहीं होते हुए न्यायपालिका का आभारी होना चाहिए जो देश और उसकी शासन व्यवस्था, सामाजिक एवं मौलिक अधिकारों जैसे मामलों का स्वत: या जनहित याचिकाओं के माध्यम से संज्ञान लेकर न्याय मिलने के विश्वास को स्थापित किए हुए है।