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सबकी जागरूकता से बीड में शिशु लिंग अनुपात सुधरा

भावना गोखले

Sunday 21 July 2013 08:02:50 AM

male and female

मुंबई। बीड में सरकार, स्वयं सेवी संगठनों और नागरिक कार्यकर्ताओं के प्रयासों से शिशु लिंग अनुपात में सुधार के सुखद परिणाम दिखाई देने लगे हैं। जन्म के समय लिंग अनुपात की गणना के लिए एक ऑन लाइन पोर्टल की रिपोर्ट ने परियोजना से संबद्ध सभी व्यक्तियों को आश्चर्य चकित कर दिया है। बीड जिले के लिंग अनुपात में 2011 की तुलना में 2012 में 159 अंकों का प्रभावशाली इजाफा हुआ। अब यह प्रत्येक 1000 लड़कों की तुलना में 906 लड़कियों के रूप में दर्ज हुआ है, 951 का आदर्श लिंग अनुपात हासिल करने के लिए प्रयास जारी हैं। महाराष्ट्र के लिए एनआरएचएम मिशन के डायरेक्टर विकास खड़गे के अनुसार जागरूकता अभियानों, कानून के कड़े अनुपालन, मां और शिशु का पता लगाने की प्रणाली के रूप में प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल, नियमित निरीक्षण और अल्ट्रासाउंड और सोनोग्राफी केंद्रों पर छापे मारने जैसे सभी उपायों की बदौलत जन्म के समय राज्य के लिंग अनुपात में महत्वपूर्ण सुधार हुआ है। बीड के अलावा परभनी और औरंगाबाद में भी लिंग अनुपात में सुधार दिखाई दिया है।
महाराष्ट्र के मराठवाड़ा क्षेत्र में बीड जिला कन्या भ्रूण हत्या के घिनौने अपराध को लेकर दो वर्ष पहले राष्ट्रव्यापी समाचारों की सुर्खियों में था। परिणाम स्वरूप अधिकारियों ने अनेक चिकित्सकों के खिलाफ गंभीर कार्रवाई शुरू की। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार बीड में प्रत्येक 1000 लडकों की तुलना में लड़कियों की संख्या 796 थी, जो समूचे महाराष्ट्र के लिए 894 के शिशु लिंग अनुपात और 914 के अखिल भारतीय शिशु लिंग अनुपात की तुलना में बहुत कम थी। शिशु लिंग अनुपात की गणना 0-6 आयु समूह में प्रत्येक 1000 लड़कों की तुलना में लड़कियों की संख्या के रूप में की जाती है। अपने आप में यह अनुपात सही तस्वीर पेश नहीं कर पाता, क्योंकि लड़कियों के नाम कम संख्या में दर्ज कराए जाने की प्रवृत्ति लोगों में देखी गयी है। ऐसे में जन्म के समय लिंग अनुपात को अधिक परिष्कृत और परिशुद्ध संकेतक समझा जाता है, जिसमें प्रत्येक 1000 लड़कों की तुलना में लड़कियों के जन्म के आंकड़े शामिल किए जाते हैं।
गर्भपात के पीछे आम तौर पर अनियोजित गर्भधारण को कारण समझा जाता है, जबकि कन्या भ्रूण हत्या, अवांछित संतान की जन्म के बाद हत्या किए जाने की सदियों पुरानी कुप्रथा से भी अधिक घिनौना अपराध है। गर्भ में कन्या को चुन कर मारना इसलिए संभव हो पाता है कि चिकित्सा साधनों के जरिए शिशु के लिंग का पता चला जाता है। लिंग का पता करने में महिला के ऊपर पति या ससुराल वालों और यहां तक कि महिला के माता-पिता सहित परिवार का दबाव होता है। दुर्भाग्य की बात है कि कन्या भ्रूण हत्या के मामलों में वृद्ध और युवा दोनों ही वर्गों की महिलाएं बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेती हैं।
बीड़ क्षेत्र में कई प्रतिष्ठित मेडिकल प्रैक्टिसनरों की मिली भगत से प्रसव पूर्व लिंग निर्धारण की अनेक घटनाओं का पता चलने के बाद खतरे की घंटी बजने लगी। भारत की संसद ने 1994 में गर्भ धारण पूर्व और प्रसव पूर्व नैदानिक तकनीक (लिंग निर्धारण की रोकथाम) अधिनियम बनाया था, जिसमें गर्भ धारण से पहले अथवा बाद में संतान के लिंग का चयन करने की तकनीकों पर रोक लगाने और लिंग के आधार पर गर्भपात के लिए प्रसव पूर्व नैदानिक तकनीकों के दुरूपयोग को रोकने के प्रावधान किए गए थे, किंतु इस कानून को लागू करने में लापरवाही के चलते कन्या शिशु के खिलाफ भेदभाव रोकने में कोई खास प्रगति नहीं हो पाई।
राज्य सरकार इस चुनौती के प्रति सजग तो हुई और उसने कन्या भ्रूण हत्या रोकने के लिए अनेक उपायों की घोषणा की तथा इसे बढ़ावा देने वालों की धरपकड़ शुरू की। गैर कानूनी तरीके से अल्ट्रासाउंट करने वाले सेंटरों पर छापे मारे गए, जो लिंग का पता लगाने के परीक्षणों में लिप्त थे। खाद्य एवं औषधि प्रशासन ने उन ऐसी औषधियों और दवाओं की बिक्री पर निगरानी रखनी शुरू की, जिनकी आवश्यकता गर्भ को चिकित्सीय तरीके से समाप्त करने में पड़ती थी। बीड़ जिले में उन 12 कैमिस्टों के खिलाफ कार्रवाई की गयी जो उन्हें भेजे गए कारण बताओ नोटिसों का संतोषजनक जवाब नहीं दे पाए। कानून के कार्यान्वयन के पूरक उपाय के रूप में कन्या शिशु का महत्व समझाने के लिए एक व्यापक जागरूकता अभियान चलाया गया। टेलीविजन और रेडियो पर लोक सेवा विज्ञापन प्रसारित करने के अलावा आमिर खान का टीवी शो ‘सत्यमेव जयते’ भी कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ जागरूकता बढ़ाने में विशेष रूप से मददगार साबित हुआ।
सरकार के प्रयासों में मदद करने के लिए कई स्वयं सेवी संगठन भी आगे आए हैं। बीड में ‘टी फाउंडेशन’ और ‘मराठवाड़ा लोक विकास मंच’ जैसे संगठन तालुकों को गोद लेने के लिए आगे आए, ताकि शिशु लिंग अनुपात में सुधार लाया जा सके। इन स्वयं सेवी संगठनों ने शिरूर-कासर तालुक को गोद लिया, जिसमें एक व्यापक सर्वेक्षण कराया गया तथा अनिवार्य सहायता सेवाओं का प्रावधान किया गया। टी फाउंडेशन के डॉक्टर भारती लावेकर के अनुसार जब 2011 में सर्वेक्षण शुरू किया गया तो स्थिति अत्यंत चिंताजनक थी, बीड में लिंग अनुपात 733 था और शिरूर-कासर तालुक में स्थिति और भी खराब थी जहां शिशु लिंग अनुपात केवल 669 था। स्वयं सेवी संगठनों ने घर-घर जाकर सर्वेक्षण किया और प्रतिकूल लिंग अनुपात के कारणों की सूची तैयार की। डॉक्टर लावेकर के अनुसार ग्रामवासियों की मानसिकता और व्यवहार के तौर तरीकों का अध्ययन करने के बाद यह निष्कर्ष निकला कि कानून बनाने मात्र या टेलीविजन स्टिंग आपरेशन चलाने से स्थिति में सुधार नहीं हो सकता, समस्या की जड़ तक पहुंचना होगा और लोगों की मानसिकता में बदलाव लाना होगा।
सरकार ने पीसीपीएनडीटी अधिनियम को सख्ती से लागू करने पर निगरानी रखना शुरू किया, वहीं गर्भवती महिलाओं को नियमित स्वास्थ्य जांच के जरिए समग्र स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराई गयीं। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के अंतर्गत विटामिन और पूरक पोषण आहार की व्यवस्था की गयी। आशा (मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता) स्वयं सेवकों और आंगनवाड़ी सेविकाओं के कौशल उन्नयन के लिए विशेष प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए गए। अंतर-वैयक्तिक वार्तालाप में स्वयं सेवी संगठनों ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की और महिलाओं के खाली समय के दौरान उन तक पहुंच कायम की गयी। कन्या शिशु को बढ़ावा देने के लिए लोगों को प्रेरित करने के वास्ते एक नियतकालिक जमा योजना के अंतर्गत बालिका सुरक्षा कार्यक्रम शुरू किया गया। इस कार्यक्रम के अंतर्गत 15 अगस्त 2011 के बाद पैदा होने वाली प्रत्येक बालिका के नाम से रुपये 5000 का फिक्स डिपोजिट स्टेट बैंक ऑफ हैदराबाद में 18 वर्ष की आयु तक के लिए किया जाता है। बालिका के बालिग होने पर एकमुश्त राशि उसे दी जाती है, बशर्ते वह न्यूनतम शैक्षिक योग्यता पूरी कर ले।

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