गोपाल शरण शर्मा
वृंदावन (मथुरा)। श्रावण मास लगते ही ब्रज क्षेत्र में श्रीकृष्ण के जन्म की लीलाओं, रासलीलाओं और उनकी कूटनीतिक और राजनीतिक सफलताओं की धूम मचनी शुरू हो जाती है। श्रावण मास कृष्ण के जन्म मास भाद्रप्रद का प्रवेश माह है। भाद्रप्रद के आते-आते ब्रज क्षेत्र दुनिया के सैलानियों और कृष्ण में आस्था रखने वालों का साधना केंद्र बन जाता है। यहां भक्ति रस में डूबे दुनिया के बड़े-बड़े मनीषी ब्रज के मंदिरों में मोक्ष और जीवन के रहस्य को जानने के लिए एकत्र होते हैं। गीता का उपदेश देने वाले श्रीकृष्ण ने दुनिया को इस संसार को जीने का सलीका बताया है। पाश्चात्य देश श्रीकृष्ण से प्रेरणा लेते हैं कि जीवन कैसे जिया जाए। भाद्रप्रद के आते ही यहां के मंदिर सज-धज रहे हैं और ब्रज श्रीकृष्ण के जन्म की तैयारियों में जुटा हुआ है। श्रीकृष्ण के जीवन में वृंदावन का अत्यंत महत्व है आइए जानें तो वृंदावन का इतिहास क्या कहता है-
भगवान श्रीकृष्ण एवं वृजभानुनंदिनी राधारानी की क्रीड़ास्थली होने के कारण वृंदावन का हिंदु समाज में अत्यन्त आदर का स्थान प्राप्त है। भारतवर्ष के प्रत्येक भाग से ही नहीं वरन् विश्व के कोने-कोने से श्रद्धालु जन यहां की पवित्र भूमि के दर्शनार्थ आते हैं। वृंदावन शब्द दो शब्दों से बना है। वृंदा का अर्थ है तुलसी और वन का अर्थ वृक्षों का समूह। वृज क्षेत्र में यों तो मथुरा, गोकुल, नंदगांव, बरसाना, गोवर्धन आदि प्रसिद्ध स्थल हैं परंतु इन सब में वृंदावन का अपना अलग ही महत्व है। वृंदावन का पुराणों एवं संहिताओं में इसके अनंत महत्व का विशद वर्णन किया गया है। पद्मपुराण के अनुसार वृंदावन ब्रहमसुख के पूर्ण ऐश्वर्य से सुशोभित नित्य आनंदमय है -
‘पूर्ण ब्रहमसुखैश्वर्य नित्यमानन्दमव्ययम्
वैकुण्ठादि तदंशंशं स्वयं वृंदावनं भुवि’ ।
वृहद्गौतमीय तंत्र के अनुसार वृंदावन को भगवान ने अपनी देह के रूप में माना है -
‘इदं वृन्दावनं रम्यं मम धामैव केवलम्
अत्र मे पभावः पक्षिमृगाः कीटाः नरामराः
पंचयोजनमेवास्ति वनं मे देहरूपकम्’
राधा के सोलह प्रमुख नामों में से एक नाम वृंदा भी है। उन्हीं की क्रीड़ा स्थली होने के कारण यह सुरम्य वन वृंदावन कहलाता है।
राधा षोडशनाम्नां च वृन्दा नाम श्रुतौ श्रुतम्
तस्य क्रीड़ावनं रम्यं तेन वृन्दावनं स्मृतम्।।
-ब्रह्मवैवर्त पुराण
तीन तरफ से यमुना से घिरा वृंदावन योगिराज श्रीकृष्ण की लीलाओं से हृदयों में श्रृद्धा, प्रेम और भक्ति का संचार करता है। वृंदावन के इतिहास को मोटे तौर पर तीन भागों में बांटा जा सकता है - प्राचीन, मध्यकालीन एवं आधुनिक काल।
प्राचीन वृंदावन
श्रीकृष्ण का जन्म मथुरा में हुआ और लालन पालन गोकुल में। कहते हैं कि जब गोकुल में कंस के भेजे दैत्यों का उत्पात बढ़ने लगा तो नंदादि वयोवृद्ध गोपों ने सलाह करके वृंदावन आ कर रहना शुरू कर दिया। श्रीकृष्ण के द्वारिका चले जाने पर मथुरा क्या पूरा व्रज ही वीरान, उदास हो गया। महाभारत के युद्ध के पश्चात जब श्रीकृष्ण के पौत्र वज्रनाभ ने व्रज को पुनः बसाया तो उन्होंने श्रीकृष्ण के जन्म स्थान एव लीला क्षेत्रों पर स्मृति मंदिर खड़े किये। प्राचीन काल में वृंदावन तुलसी के पौधौ की बहुलता वाला सभी प्रकार के सुंदर वृक्षों से आच्छादित सघन वन था जो कि अपने प्राकृतिक सौंदर्य के लिये प्रसिद्ध था। इसे व्रज के बारह वनों में सातवां वन माना जाता है। प्राचीन ग्रंथों के अनुसार श्रीकृष्ण के समय में वृंदावन में गोवर्धन पहाड़ी थी और उसके निकट यमुना प्रवाहित होती थी। स्कंद पुराण में लिखा है-
अहो वृन्दावनं रम्यं यत्र गोवर्धनो गिरिः
उस समय का वृंदावन 20 कोस की परिधि का वन था। बौद्ध साहित्य में वृंदावन में वेंदा नामक यक्षिणी के निवास का वर्णन मिलता है, जिसे बुद्ध ने वश में किया था। गुप्तकालीन महाकवि कालीदास ने रघुवंश महाकाव्य में ‘वृन्दावने चैत्ररथादनूने’ कहकर वृंदावन के अनुपम सौन्दर्य की तुलना कुबेर के प्रसिद्ध चैत्ररथ उद्यान से की है। कुषाण एवं गुप्त काल में भी वृंदावन में कुछ मंदिरों के होने का प्रमाण मिलता है। इन युगों में मथुरा की तरह यहां भी यमुना किनारे स्तूप, मठ आदि के प्रमाण मिलते हैं। मौर्यकालीन, भांगुकालीन प्रतिमायें जो कि वृंदावन के विभिन्न स्थानों से उत्खनन में प्राप्त हुई हैं यह प्रदर्शित करती हैं कि इन कालों में भी वृंदावन वैष्णव भागवत संस्कृति का गढ़ था। द्वादशादित्य टीले से प्राप्त ग्यारह ईंटों पर मौर्यकालीन ब्राह्मी लिपि में लेख उर्त्कीण हैं जो कि उस काल में वृंदावन में बस्ती और मंदिरों का होना प्रमाणित करते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि परिवर्ती काल में मथुरा ही राजनैतिक गतिविधियों का केन्द्र रहा। वृंदावन सघन वन होने के कारण ऋषियों, मुनियों और उपासकों की भूमि तो रहा किंतु कोई विशेष महत्व की ऐतिहासिक घटना वृंदावन से जुड़कर सामने नहीं आई।
मध्यकालीन वृंदावन
मध्यकाल में भक्ति आंदोलन एवं उसकी लोकप्रियता के कारण सगुणोपासक भक्तों में भगवान के अवतारों की लीला ब्रज भूमि के प्रति श्रद्धा भक्ति का पुनः संचार हुआ। वृंदावन, मथुरा, गोकुल, बरसाना, गोवर्धन आदि तीर्थो से मानस का जुड़ाव प्रबलतर होने लगा। मध्यकाल में वृंदावन और मथुरा में बड़े-बड़े देवालय थे, जो कि अत्यन्त समृद्ध थे। महमूद गजनवी ने 1018-19 ईश्वी में मथुरा पर आक्रमण किया तो वृंदावन को भी लूटा गया। इतिहासकार उतबी ने लिखा है कि- ‘वृंदावन शहर जो चारो ओर किलों से सुरक्षित था उसकी भी यही दशा हुई। नगर का राजा शत्रु के आक्रमण की सूचना पा कर भाग खड़ा हुआ। लूट-मार से महमूद गजनवी के हाथ अपार धन लगा।’
जिस प्रकार महमूद गजनवी के आक्रमण के बाद मथुरा शहर पुनः बसा वृंदावन का भी नवनिर्माण हुआ। भक्ति आन्दोलन के प्रमुख संतो ने वृंदावन की यात्राएं कीं और प्राचीन ग्रंथों के आधार पर एवं दिव्य ईश्वरीय प्रेरणा प्राप्त करके वृंदावन की सीमाएं निर्धारित की। वर्तमान वृंदावन की सीमाएं लगभग वही हैं जो कि मध्यकाल में निर्धारित की गयी थी। संवत 1560 विक्रमी में स्वामी हरिदास निधिवन में आकर संगीत के माध्यम से अपने इष्ट की उपासना करने लगे। उनके उपास्य ठाकुर बांके बिहारीजी का 1562 विक्रमी में प्रादुर्भाव हुआ। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु 1572 विक्रमी में वृंदावन पधारे। वे व्रज की यात्रा करके पुनः श्री जगन्नाथ धाम चले गये परंतु उन्होंने अपने अनुयाई षड् गोस्वामियों को भक्ति के प्रचारार्थ वृंदावन भेजा। ये गोस्वामी गण सनातन गोस्वामी, श्रीरुप गोस्वामी, श्रीजीव गोस्वामी आदि अपने युग के महान विद्वान, रचनाकार एवं परम भक्त थे। इन गोस्वामियों ने वृंदावन में सात प्रसिद्ध देवालयों का निर्माण कराया जिनमें ठाकुर मदनमोहनजी का मंदिर, गोविन्द देवजी का मंदिर, गोपीनाथजी का मंदिर आदि प्रमुख हैं।
संवत 1591 विक्रमी में स्वामी हित हरिवंश गोस्वामी वृंदावन आए और राधावल्लभजी की प्रतिष्ठा की। इसी काल में श्रीहरिराम व्यास नाभाजी, मीराबाई आदि अनेक प्रसिद्ध संतों, भक्तों का वृंदावन आगमन हुआ। वृंदावन के प्रमुख वैष्णव संप्रदायों, हरिदासी संप्रदाय, राधावल्लभ संप्रदाय आदि का प्रारंभ इसी काल में हुआ। वृन्दावन कृमशः भक्ति का प्रमुख केंद्र बन गया। भक्तों की भीड़ होने लगी। तीर्थ और उससे जुड़ी तीर्थ पुरोहित आदि की पंरपरायें भी आरम्भ होने लगी थीं। अपने दरबारी संगीतज्ञ तानसेन के गुरु स्वामी हरिदास के संगीत की ख्याति सुन कर सम्राट अकबर उनके दर्शनार्थ वृंदावन आए। यहां उन्हें ज्ञात हुआ कि पूर्व शासकों ने ब्रज के मंदिरों को ध्वस्त किया था और धार्मिक प्रतिबंध लगाए थे। सम्राट अकबर ने प्रतिबंधों को हटाने और मंदिर निर्माण की अनुमति प्रदान कर दी। यह घटना संवत 1627 अथवा 1630 विक्रमी की है।
इस युग में भव्य मंदिरों के निर्माण की एक श्रंखला प्रारंभ हुई। मंदिर निर्माण के लिये जो कारीगर देश के विभिन्न भागों से आए उनके अपने-अपने मुहल्ले बसने लगे। संतो का निवास तो पहले से ही था, अब व्यापारी, कारीगर आदि की बस्तियां, हाट, बाजार भी बसने लगे। वृंदावन एक बस्ती का रुप लेने लगा। राजा महाराजाओं, जमींदारो का आगमन बड़ी संख्या में होने लगा। सम्राट अकबर के बाद जहांगीर और शाहजहां के काल में भी ब्रज में निर्माण होते रहे पर जहांगीर के काल में संवत 1674 विक्रमी में वैष्णवों की कंठी, माला तिलक पर रोक लगा दी गयी। बाद में संवत् 1677 विक्रमी में यह आज्ञा वापस ले ली गयी।
औरंगजेब के काल में शासक वर्ग में हिंदुओं के प्रति घृणा और अनुदारता का भाव और अधिक हो गया। औरंगजेब ने देश भर के प्रसिद्व मंदिरों को तुड़वाया। वृंदावन के प्रसिद्ध गोविंददेव मंदिर, मदनमोहन मंदिर, गोपीनाथ मंदिर, जुगलकिशोर मंदिर एवं राधावल्लभ मंदिर ध्वस्त कर दिए गए। औरंगजेब के आक्रमण से पूर्व ही वृंदावन की सभी प्रसिद्ध देव मूर्तियां हिन्दू रजवाडों में भेज दी गईं। गोविंददेवजी और गोपीनाथजी के विग्रह जयपुर ले जाए गए और वे अब वहीं विराजमान हैं और पूजित हो रहे हैं। राधावल्लभजी और श्रीबिहारीजी को भी बाहर ले जाया गया था , वे बाद में वापिस ले आए गए। औरंगजेब के बाद के मुगल शासक कमजोर साबित हुए। इनके काल में नादिर शाह एवं अहमदशाह अब्दाली जैसे विदेशी आक्रांताओं के भारत पर आक्रमण हुए। इनके आक्रमणों को रोकने की शक्ति मुगल सल्तनत में बिलकुल नहीं थी।
संवत 1814 विक्रमी में दिल्ली को लूटकर अहमदशाह अब्दाली ने व्रज पर आक्रमण किया। वल्लभगढ़ में जाटों का उससे युद्ध हुआ परंतु वह आगे बढ़ता गया। मथुरा को ध्वस्त कर दिया गया और फिर वृंदावन पर आक्रमण हुआ। मंदिरों को नष्ट किया गया वैष्णों का कत्ले आम किया गया। इस आक्रमण का वृंदावन के वैरागियों ने हथियार लेकर मुकाबला भी किया परंतु वे मारे गये। मथुरा-वृंदावन एकबार पुनः वीरान हो गये। अब्दाली के जाने के पश्चात श्रद्धालुओं और भक्तों ने पुनः व्रज का नव निर्माण करना शुरू किया। शाह आलम द्वितीय के संरक्षक माधवराव सिंधिया का व्रज से गहरा लगाव था। वे वृंदावन आते रहते थे। उनके समकालीन एक सिपहसालार हिम्मतबहादुर ने वृंदावन में अनेक घाट व बगीचे बनवाये । इन्दौर की महारानी होल्कर परम धार्मिक महिला थीं। उन्होंने वृंदावन में ही नहीं वरन् व्रज के अन्य स्थलों पर भी अनेकों निर्माण कार्य कराये।
संवत 1886 विक्रमी में एक फ्रंसीसी यात्री विक्टर जे के मांट ने वृंदावन के विषय में लिखा -
‘यह बहुत प्राचीन नगर है। मथुरा से भी इसका महत्व अधिक है। यहां दो ऊंचे मंदिर हैं। बनारस के बाद वृंदावन ही वह दूसरा नगर है जहां केवल हिंदुओं की बाती है। यहां कोई मस्जिद मुझे दिखाई नहीं दी। चारों ओर सुंदर वृक्ष हैं जो मैदानों में हरे द्वीप से लगते हैं।’
आधुनिक वृंदावन
मथुरा-वृंदावन पर 2 अक्टूबर सन् 1803 अर्थात संवत 1860 विक्रमी में अंग्रेजी शासों का अधिकार हो गया था। 1857 ईश्वी के विद्रोह के पश्चात कंपनी शासन के स्थान पर ब्रिटिश शासन की स्थापना हुई। अंग्रेजी शासन में अनेकों बुराइयां थीं परन्तु जनता को धार्मिक कार्यो में उन्होंने स्वतंत्रता दी थी। शासन में स्थायित्व आते ही वृंदावन में मदिरों का निर्माण पुनः प्रारंभ हो गया। श्रीकृष्ण चन्द्र ‘लाला बाबू’ ने संवत 1867 में एक विशाल मंदिर बनवाया। संवत 1878 में बंगाल के ही एक जमींदार नंदकुमार बसु ने औरंगजेब के समय में तोड़े गए मंदिरों के निकट ही नए मंदिर बनवाए। भरतपुर महाराज ने श्रीबांके बिहारीजी के मंदिर का निर्माण कराया। लखनऊ के धनाढ्य रईस शाह कुंदन लाल उपनाम ‘ललित किशोरी’ ने श्रीराधारमणजी का मंदिर तथा टेढे़ खंबों वाला मंदिर बनवाया। संवत 1908 में श्रीरंगजी का विशाल मंदिर बना जो कि दक्षिण भारत की निर्माण शैली पर बना एक भव्य एवं विशाल मंदिर है।
अंग्रेजी शासन काल में देश के अन्य भागों की भांति वृंदावन में भी अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह की चिंगारियां समय-समय पर उठती रहीं। महान स्वतंत्रता सेनानी राजा महेंद्र प्रताप निर्मित प्रेम महाविद्यालय देश प्रेम एवं स्वातंत्र्य प्रेम संगीत की भावनाओं का गढ़ बन गया, जहां अनेक प्रसिद्ध क्रांतिकारी एवं अन्य नेता समय-समय पर आते रहते थे। स्वतंत्रता के पश्चात वृंदावन में अनेक मंदिरों मठों आश्रमों का निर्माण हुआ। संपूर्ण देश से धर्मप्राण श्रद्धालु यहां तीर्थ यात्रा हेतु आने लगे। आज वृंदावन उत्तर भारत के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है। कृष्ण भक्ति का तो यह सबसे प्रमुख केंद्र ही है। राधा कृष्ण की उपासना करने वाले सभी वैष्णव संप्रदायों के मंदिर तथा आश्रम यहां हैं। अन्य संप्रदायों तथा अन्य धार्मिक मतों के भी उपासना स्थल यहां हैं।
रामकृष्ण परमहंस देव एवं स्वामी विवेकानंद भी वृंदावन तीर्थ यात्रा करने आए थे। रामकृष्ण मिशन के तत्वाधान में यहां एक विशाल दातव्य चिकित्सालय चल रहा है जहां वृंदावन ही नहीं बल्कि आस-पास के क्षेत्रों के लोग आते हैं। लाला हरगूलाल का टीबी सेनेटोरियम भी चिकित्सा सेवा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दे रहा है। वृंदावन भी वह धार्मिक तथा ऐतिहासिक स्थल है जिसका हजारों वर्ष पुराना इतिहास है। अन्य सांस्कृतिक शहरों की तरह इसने भी युगों के अनेक उतार-चढ़ाव देखे हैं। पुरातन युगों की अनेक धरोहरों को अपने आप में समेटे वृंदावन केवल धार्मिक महत्व के कारण ही नहीं बल्कि अपनी सुरम्यता, पुरातनता, स्थापत्य, संस्कृति आदि के कारण भी दर्शनीय एवं पर्यटनीय है।